मेरे आत्मीय मित्र वरिष्ठ कथाकार एवं कवि श्री ओमप्रकाश वाल्मीकि जी अब हमारे बीच नहीं रहे | 18 नवंबर 2013 को उनका देहरादून [ उत्तराखंड ] में देहावसान हो गया | इस महान रचनाधर्मी को दलित साहित्य सृजक कहना अनुचित है | वे सही अर्थों में मानवीय संवेदना के मार्मिक आयामों के चितेरे थे | उनकी रचनाएं मानवीय पीड़ा , शोषण , अन्याय , संघर्ष , अपमान और व्यथा की सच्ची अनुभूतियों की अभिव्यक्ति हैं | उन्होंने साहित्य में इन्हें उतारने का अभिनव प्रयोग किया | वाल्मीकि जी अपने व्यक्तिगत जीवन में अत्यंत जीवट और जुझारू थे | वास्तव में परिस्थितियों ने उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में सार्थक जीवन जीने का आदी बना दिया था | उनसे जब भी भेंट होती , उनके जीवन की जीवटता का ही प्रदर्शन होता | यहाँ तक कि जब वे अपने जीवन के अंतिम दिनों से गुज़र रहे थे , तब भी उन्होंने बार – बार कहा , ” परेशान न होइए , ठीक हो जाऊंगा | ”

14 अक्तूबर 2012 को जब मैं उनके पास नोएडा पहुंचा , तो उनके हावभाव से साफ़ पता चल रहा था कि वे अपने भावी जीवन के प्रति किंचित भी चिंतित नहीं हैं | जबकि उन्हें कर्कट रोग था | वे यह भी बता रहे थे कि शीघ्र ही देहरादून चले जाएंगे | जबकि वास्तविकता यह थी कि वे एक मारक रोग से ग्रसित थे , जिस पर कुछ काबू पाकर अल्प जीवन – विस्तार तो सकता है , आरोग्यता नहीं आ सकती | वाल्मीकि जी के जीवन में व्यावहारिक दृष्टि से रोटी का सवाल एक बड़ा और अहम सवाल था | वे इसके लिए बराबर लड़ते रहे | इसी सवाल ने उन्हें पढ़ाई छोड़ने के लिए विवश किया | जबलपुर आयुध कारखाने में काम पा गए . तदनतर अंबरनाथ [ मुम्बई ] से तकनीकी शिक्षा प्राप्त की , जो आपकी आजीविका का साधन बनी | वे अपनी आत्मकथा ‘ जूठन ‘ [ प्रकाशित 1977 ] में जीवन की पीड़ाओं पर सविस्तार प्रकाश डाला है खतरों को मोल लेकर ! लिखते हैं –

“इन अनुभवों को लिखने में कई प्रकार के खतरे थे। एक लम्बी जद्दोजहद के बाद मैंने सिलसिलेवार लिखना शुरु किया। तमाम कष्टों, यातनाओं, उपेक्षाओं, प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा, उस दौरान गहरी मानसिक यंत्रणाएं मैंने भोगी। स्वयं को परत-दर-परत उधेड़ते हुए कई बार लगा कितना दुःखदायी है यह सब! कुछ लोगों को यह अविश्वसनीय और अतिरंजनापूर्ण लगता है।” वास्तव में ‘ जूठन ‘ दलित भाइयों के संताप और दुखों का वर्णन है | उपेक्षा , अपमान , तिरस्कार , अन्याय , अनाचार और दुर्व्यवहार का जीवंत दस्तावेज़ है | ‘ जूठन ‘ का सच नपुंसक नहीं है , अपितु दमनकारी व्यवस्था – तन्त्र की नींव हिलानेवाला एवं दलित – दमित शोषित वर्ग के अधिकारों हेतु संघर्ष की चेतना जगानेवाला है |

इस पुस्तक में उन सभी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहलुओं को गंभीरतापूर्वक परखा गया है, जिसके कारण दलित उत्पीड़न का प्रश्न एक गहन समस्या बनी हुई है। वाल्मीकि जी लिखते हैं, “दलित जीवन की पीड़ाएं असहनीय और अनुभवदग्ध हैं। ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके। एक ऐसी समाज-व्यवस्था में हमने सांसें ली हैं, जो बेहद क्रूर और अमानवीय है। दलितों के प्रति असंवेदनशील भी …”

वाल्मीकि जी से हमारी कई विषयों पर बातें हुईं | उनसे जब भी भेंट होती , वे काफ़ी प्रसन्न होते | इस अंतिम बार भी बहुत प्रसन्न हुए | कहने लगे , ‘ सोचा भी नहीं था कि कठिन समय में मेरी साहित्यिक बिरादरी इस कदर मेरे साथ खड़ी होगी …… मैं पूरे यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि यह बिरादरी निकट सम्बन्धों से बढ़कर साबित हुई है |’ वाल्मीकि जी ने कहा , ‘ मेरे जीवन में नफ़रत को कभी भी कोई जगह नहीं मिल सकी है , और न ही आगे के जीवन में मिलेगी …… इसी प्रकार मैं संकीर्णता एवं पक्षपात को बड़ी बीमारियों में शामिल करता हूँ …… इन बीमारियों से मैं सदैव अलग रहा ….. इन्हें पास नहीं फटकने दिया |’ वाल्मीकि जी ने कहा कि लोग भाषा को लेकर भी पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाते हैं , जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है | उनकी बातों में बड़ा दर्द था | उनकी कविता ‘ जूता ‘ की तरह का दर्द — नरक में जीता हूँ / पल – पल मरता हूँ /जूता मुझे काटता है / उसका दर्द भी मैं ही जानता /तुम्हारी महानता मेरे लिए स्याह है ………

अपने मोहल्ले का ज़िक्र करते हुए ‘ जूठन ‘ में वाल्मीकि जी लिखते हैं, “अस्पृश्यता का ऐसा माहौल कि कुत्ते-बिल्ली, गाय-भैंस को छूना बुरा नहीं था लेकिन यदि चूहड़े का स्पर्श हो जाए तो पाप लग जाता था। सामाजिक स्तर पर इनसानी दर्ज़ा नहीं था। वे सिर्फ़ ज़रूरत की वस्तु थे। काम पूरा होते ही उपयोग खत्म। इस्तेमाल करो, दूर फेंको।” मेहनत मज़दूरी में किसी से पीछे न हटने वाले इस समाज के लोगों को खाना खा चुके बारातियों के जूठन मिलते थे। आप लिखते हैं कि “जब मैं इन सब बातों के बारे में सोचता हूं तो मन के भीतर कांटे उगने लगते हैं, कैसा जीवन था? दिन-रात मर-खपकर भी हमारे पसीने की क़ीमत मात्र जूठन, फिर भी किसी को कोई शिकायत नहीं। कोई शर्मिंदगी नहीं, कोई पश्चाताप नहीं।” ” सदियों का संताप ” शीर्षक कविता में उनकी अभिव्यक्ति पठनीय है –

दोस्‍तो !

बिता दिए हमने हज़ारों वर्ष

इस इंतज़ार में

कि भयानक त्रासदी का युग

अधबनी इमारत के मलबे में

दबा दिया जाएगा किसी दिन

ज़हरीले पंजों समेत.

फिर हम सब

एक जगह खडे होकर

हथेलियों पर उतार सकेंगे

एक-एक सूर्य

जो हमारी रक्‍त-शिराओं में

हज़ारों परमाणु-क्षमताओं की ऊर्जा

समाहित करके

धरती को अभिशाप से मुक्‍त कराएगा !

इसीलिए, हमने अपनी समूची घृणा को

पारदर्शी पत्‍तों में लपेटकर

ठूँठे वृक्ष की नंगी टहनियों पर

टाँग दिया है

ताकि आने वाले समय में

ताज़े लहू से महकती सड़कों पर

नंगे पाँव दौड़ते

सख़्त चेहरों वाले साँवले बच्‍चे

देख सकें

कर सकें प्‍यार

दुश्‍मनों के बच्‍चों में

अतीत की गहनतम पीड़ा को भूलकर

हमने अपनी उँगलियों के किनारों पर

दुःस्‍वप्‍न की आँच को

असंख्‍य बार सहा है

ताजा चुभी फाँस की तरह

और अपने ही घरों में

संकीर्ण पतली गलियों में

कुनमुनाती गंदगी से

टखनों तक सने पाँव में

सुना है

दहाड़ती आवाज़ों को

किसी चीख़ की मानिंद

जो हमारे हृदय से

मस्तिष्‍क तक का सफ़र तय करने में

थक कर सो गई है ।.

दोस्‍तो !

इस चीख़ को जगाकर पूछो

कि अभी और कितने दिन

इसी तरह गुमसुम रहकर

सदियों का संताप सहना है ! (जनवरी, 1989)

वाल्मीकि जी अक्सर अपनी सद्य प्रकाशित पुस्तक भेंट करते थे | इस अंतिम बार भी उन्होंने मुझे अपनी उस समय प्रकाशित पुस्तक ‘ प्रतिनिधि कविताएँ ‘ मेरा नाम लिखकर अपने हस्ताक्षर के साथ उपहारस्वरूप दी | उन्हें शत – शत नमन …. हार्दिक श्रद्धांजलि |

– Dr RP Srivastava, Editor- in-Chief, ” Bharatiya Sanvad ”

 

 

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