– डॉ. चन्द्रेश्वर [ एम एल के कालेज , हिंदी विभाग, एसोशिएट प्रोफेसर /कवि-आलोचक , बलरामपुर , उ. प्र. ]

मशहूर है बलरामपुर का लेबर अड्डा | यह शहर के बड़ा पुल चौराहा पर है | यहीं पर आकर इकट्ठा होते हैं, दूर-दराज गाँव -देहात से आने वाले दिहाड़ी लेबर और राजमिस्त्री | इसमें हर उम्र के लोग होते हैं | हर जाति, धर्म और मज़हब के लोग होते हैं | वैसे इनमें पिछड़ी और दलित जातियों के लोगों का प्रतिशत 99% से भी ज़्यादा रहता है| ऊँची जातियों में अपवाद स्वरूप एकाध ब्राह्मण मिल जाते हैं | यह भी एक निर्मम सच्चाई ही है कि ब्राह्मण होकर लेबर का काम पाना पिछड़ी और छोटी जगहों में एक क़िस्म का अभिशाप भी है |लोगबाग आसानी से एक पंडी जी को यानी विप्र को टहलुआ बनाने में हिचकते भी हैं| यह मान लिया जाता है कि ब्राह्मण है तो देह से काम करने में कोताही करेगा| बहरहाल, किसी को लेबर या राजमिस्त्री की ज़रूरत है तो यहाँ पर आकर संपर्क कर सकता है | इस रास्ते अगर आप गुज़रेंगे तो इनकी नज़रें आपमें उम्मीद और संभावना तलाशने या टटोलने लगती हैं |

कोई ज़रूरी नहीं कि इनमें से हर किसी को रोज़ाना रोज़गार मिल ही जाये ! इन लोगों में से कई अपनी -अपनी साइकिलों पर शहर आते हैं तो कई पैदल चलकर आते हैं | इस लेबर अड्डा पर इन लोगों को देखकर मध्यकालीन गुलामों की याद बरबस आने लगती है | इनमें जिस लेबर को काम मिल जाता है, उसकी ख़ुशी देखते बनती है | जो लोग काम नहीं पाते हैं और गाँव लौट जाते हैं, उनके उदास चेहरे मुझे बहुत परेशान करते हैं | क्या सत्तर साल की आज़ादी ने हमें यही सब दिया है कि हर हाथ को माँगने या तलाशने पर भी रोज़गार नहीं मिलता ?

मुझे लगता है कि हर क़स्बाई शहर की यही स्थिति है | हर ऐसे शहर में लेबर अड्डे ज़रूर होंगे | हर शहर में रोज़ी की तलाश में आए कुछ गाँव -देहात के ऐसे लोग निराश होकर लौटने पर विवश होते होंगे | आख़िर ऐसा क्योंकर हुआ कि हमारे गाँव इस क़दर रोज़ी -रोज़गार और ज़िंदगी की ज़रूरी चीज़ों के लिए शहरों पर निर्भर होते गए ? जैसे -जैसे हमारा लोकतंत्र पुराना होता जा रहा है, हमारे देश के ग़रीब और कमज़ोर और मामूली लोगों की ज़िन्दगी की दुश्वारियाँ या मुश्किलें बढ़ती ही जा रही हैं | दो जून की रोटी और नमक -प्याज पर भी घोर आफ़त है ! इस लेबर अड्डे की भीड़ देश के लोकतंत्र की सच्ची कहानी को ही दर्शाती या बयां करती है |

मुझे ऐसे में बरबस आज़ादी से मोहभंग और आक्रोश के हिन्दी कवि धूमिल की एक कविता पतझड़की कुछ आख़िरी पंक्तियाँ याद आ रही हैं — ” इस देश की मिट्टी में /अपने जाँगर का सुख तलाशना/अंधी लड़की की आँखों में /उससे सहवास का सुख तलाशना है ! “
अब शहर के पत्रकार भी लेबर अड्डे की ओर रूख नहीं करते हैं | उनकी लेबरों की भीड़ में कोई दिलचस्पी नहीं रह गयी है | इससे वे सनसनीखेज ख़बरें नहीं बना सकते हैं | वे ऐसी भीड़ को तलाशना चाहते हैं जो लिंचिंग से जुड़ी हो या फिर कोई सियासत का या किसी इलाक़े का सेलिब्रिटी हो; सत्तापुरुष हो ; या फिर किसी हादसे या विनाश की ख़बर हो ! मामूली लोग उनकी ख़बरों में हाशिए पर ही रहते हैं | यह है हमारे बदलते भारत अर्थात् न्यू इंडिया की तस्वीर, जिसमें मामूली और ग़रीब की कोई औकात या जगह नहीं होगी |

 

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