हां, सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ की इस व्यवस्था के बाद इस बात के मद्देनजर नयी असंगति उभरने का अंदेशा है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आरक्षण की व्यवस्था संविधान निर्माण के समय ही स्वीकार की गई थी और इसके लिए 10 वर्ष का समय भी निर्धारित किया गया था, जो बाद में संसद द्वारा, जिसे संविधान में संशोधन के अधिकार प्राप्त है, निरंतर बढ़ाया जाता रहा है। फिर पिछड़ी जातियों के आरक्षण के सिद्धान्त को भी केन्द्र सरकार ने ही 1989 में विन्देश्वरीप्रसाद मण्डल आयोग की संस्तुतियों को लागू कर स्वीकार किया था। अब सर्वोच्च न्यायालय की एक नयी व्यवस्था यह भी है कि कोई अनन्तकाल तक पिछड़े वर्ग में नहीं रह सकता।

सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सर्वसम्मत फैसले में व्यवस्था दी है कि अनुसूचित जाति जनजाति का एक राज्य में रहने वाला व्यक्ति उसे मिल रहे आरक्षण का दूसरे ऐसे राज्य में लाभ नहीं उठा सकता, जहां उसकी जाति अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के रूप में अधिसूचित नहीं है। क्योंकि वहां वह साधारण नागरिक है और इस रूप में उसे भी वही सुविधाएं और अधिकार हैं, जो अन्य नागरिकों को।

संविधान के  अनुच्छेद-341 और 342 में इन जातियों के आरक्षण को लेकर जो व्यवस्थाएं हैं, उनमें इसके क्षेत्र निर्धारण के सम्बन्ध में कहा गया है कि राष्ट्रपति सम्बन्धित राज्य के राज्यपाल से परामर्श के पश्चात लोक अधिसूचना द्वारा उन जातियों, जनजातियों या उनके समुदायों के भागों और उनके यूथों को विर्निदिष्ट कर सकेगा, जिन्हें उस राज्य क्षेत्र में अनुसूचित जातियां या अनुसूचित जनजातियां समझा जायेगा। इस प्रयोजन के लिए की गई व्यवस्था को 1956 में संविधान के सातवें संशोधन की धारा-29 और अनुसूची द्वारा अन्त:स्थापित किया गया है, जिसके फलस्वरूप यह आरक्षण केन्द्रीय नहीं बल्कि राज्य और स्थानीयता की आवश्यकताओं पर आधारित हो गया है।

इस सम्बन्ध में संसद को अधिकार है कि किसी अनुसूचित जाति या जनजाति के समुदाय के भाग या उसके यूथ को खण्ड-ए के अधीन निकाली गयी सूचना में विर्निदिष्ट अनुसूचित जातियों/जनजातियों की सूची में शामिल कर सके। इसी के साथ संसद को इसमें परिवर्तन के भी अधिकार हैं, जबकि अनुच्छेद-16 में, जो लोक नियोजन से सम्बन्धित है, समता के अधिकार की भी व्यवस्था है। किस वर्ग को किस प्रकार कितना आरक्षण दिया जाये, यह संविधान के अनुच्छेद-16 (4) में व्याख्यायित है, जिसमें कहा गया है कि वह नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों एवं पदों के आरक्षण के लिए उपबन्ध कर सकती है। जाहिर है कि मूल प्रश्न समता के अधिकारों का है और बाकी सब इस पर निर्भर है कि इसके लिए कब और किन स्थितियों में क्या व्यवस्थाएं की जा सकती हैं?

संविधान पीठ के निर्णय के समय सर्वोच्च न्यायालय के इस सम्बन्धी विविध निर्णयों पर भी विचार किया गया क्योंकि कई राज्यों ने इसकी आवश्यकता अनुभव करते हुए याचना की थी कि संविधान पीठ द्वारा इसकी विवेचना की जाए। इसमें विचार का खास तत्व यह था कि राष्ट्रपति द्वारा इस सम्बन्ध में अपने अधिकारों का प्रयोग सम्बन्धित राज्य की आवश्यकताओं के सम्बन्ध में राज्यपाल से परामर्श पर ही आधारित होगा। ऐसे में जाहिर है कि आरक्षण की सुविधाएं देश के सभी राज्यों में समान रूप से यानी एक जैसी लागू नहीं हो सकतीं और सम्बद्ध व्यक्ति किसी राज्य में निवास के कारण उसे मिले आरक्षण के अधिकार के दूसरे राज्यों में उपयोग का अधिकारी नहीं बन सकता।

तथ्यों पर जायें तो जातियों के अधिसूचित किये जाने को लेकर अलग-अलग राज्यों में कई विरूपताएं हैं और आवश्यक नहीं है कि किसी एक राज्य में जो जाति अनुसूचित जाति जनजाति, पिछड़े वर्ग या सामान्य में अधिसूचित है, दूसरे राज्य में भी उसकी वही स्थिति हो। उदाहरण के लिए गुजरात में पटेल अनारक्षित जाति है, लेकिन उत्तर प्रदेश में उसे पिछड़े वर्ग में गिना जाता है और तदनुसार लाभान्वित किया जाता है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में जो क्षत्रिय उच्च या सामान्य जाति का है, वह गुजरात में पिछड़े वर्ग में अधिसूचित है और उसके मुताबिक लाभ का अधिकारी है। दक्षिण के राज्यों में भी अलग अलग राज्यों में जातियों के आरक्षण की परिकल्पनाएं भिन्न-भिन्न हैं। इस लिहाज से पूर्वोत्तर क्षेत्र और पर्वतीय क्षेत्र भी एकरूपताएं नहीं है।

स्पष्ट है कि संविधान पीठ के इस निर्णय के बाद आरक्षण की पात्रता राज्यवार हो गयी है। अब यह मुमकिन नहीं कि कोई जाति एक राज्य में आरक्षित वर्ग में होने के नाते आरक्षण की सुविधाओं की अधिकारी है तो उसकी यह सुविधा देश के विभिन्न राज्यों की सुविधाओं से भी जुड़ जाये। क्योंकि राज्यों में जातियों के स्वरूप निर्धारण सम्बन्धी राष्ट्रपति को प्राप्त अधिकारों में सम्बन्धित राज्य के संवैधानिक प्रमुख यानी राज्यपाल के परामर्श की भी शर्त है।

राज्यपाल वैसे तो अपने राज्य की मंत्रिपरिषद के परामर्श से ही अपने दायित्वों का निर्वहन करता है, लेकिन उसे कुछ अतिरिक्त अधिकार भी प्राप्त हैं। संवैधानिक प्रमुख के रूप में निर्णय लेते समय कुछ मामलों में उसे मंत्रिपरिषद के परामर्श की आवश्यकता नहीं रहती। उदाहरण के लिए राज्य में मुख्यमंत्री का मनोनयन कैसे किया जाये, इसे लेकर उसको मंत्रिपरिषद के किसी परामर्श की आवश्यकता नहीं पड़ती। क्योंकि उस समय तक तो मंत्रिपरिषद का गठन ही नहीं हुआ रहता।

अतीत में जायें तो सबसे पहले पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ने दावा किया था कि विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होने के नाते की जाने वाली कुलपतियों की नियुक्तियों में उन्हें मंत्रिपरिषद या मुख्यमंत्री के परामर्श की आवश्यकता या बाध्यता नहीं है। राज्य की सरकार इसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय चली गयी थी, जहां कुलाधिपति और राज्यपाल के अधिकारों को अलग-अलग माना गया था। हम जानते हैं कि जब राज्य में कोई सरकार नहीं होती और अनुच्छेद-356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू होता है, तब राज्यपाल ही राज्य के समस्त दायित्वों का निर्वहन करता है। लेकिन जो दायित्व राज्य की विधायिका को निभाना है, उसे संसद निभाती है।

हां, सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ की इस व्यवस्था के बाद इस बात के मद्देनजर नयी असंगति उभरने का अंदेशा है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आरक्षण की व्यवस्था संविधान निर्माण के समय ही स्वीकार की गयी थी और इसके लिए 10 वर्ष का समय भी निर्धारित किया गया था, जो बाद में संसद द्वारा, जिसे संविधान में संशोधन के अधिकार प्राप्त है, निरंतर बढ़ाया जाता रहा है। फिर पिछड़ी जातियों के आरक्षण के सिद्धान्त को भी केन्द्र सरकार ने ही 1989 में विन्देश्वरीप्रसाद मण्डल आयोग की संस्तुतियों को लागू कर स्वीकार किया था। अब सर्वोच्च न्यायालय की एक नयी व्यवस्था यह भी है कि कोई अनन्तकाल तक पिछड़े वर्ग में नहीं रह सकता। आरक्षण को भी समाज में एकरूपता स्थापित करने के माध्यम के रूप में अवधि विशेष के लिए स्वीकार किया गया है। यह अनन्तकालिक होता तो फिर इसकी अवधि के निर्धारण की आवश्यकता ही नहीं थी।

यह बात दूसरी है कि जिन उद्देश्यों के लिए इन आरक्षणों की व्यवस्था की गयी, वे आज भी पूरे नहीं हो पाये हैं। इसके अपने कारण हो सकते हैं और निर्वाचित सांसदों व सम्बन्धित संस्थाओं की भूमिका, लागू करने की इच्छा, कार्यान्वयन विधि और उसकी विसंगतियों को इसका जिम्मेदार माना जा सकता है। लेकिन कारण जो भी हों, इसी कारण आज भी आरक्षण का प्रश्न आरक्षित जातियों व वर्गों में नयी उत्तेजना और असंतोष पैदा करने का कारण बन जाता है। चूंकि निर्वाचित सरकारें बहुमत पर ही आधारित होती हैं, इसलिए वे मतदाताओं के असन्तोष की उपेक्षा नहीं कर सकतीं। लेकिन मूल प्रश्न तो समता के अधिकारों की पूर्ति है,  जो हमारे संविधान के मूल गुणों में शामिल है और जो राज्य का दायित्व भी है।

– शीतला सिंह                                              

वरिष्ठ पत्रकार ,पूर्व संपादक , ”जनमोर्चा” [ हिंदी दैनिक ]

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