केन्द्र एवं राज्य सरकारों के द्वारा समय-समय पर अनेक जटिल समस्याओं के समाधान एवं त्वरित विकास के लिये प्रभावी राशि के फण्ड की व्यवस्था की जाती रही है, लेकिन दुर्भाग्य से इन फण्डों का उपयोग नहीं हो रहा है। सांसद निधि हो या स्टार्टअप के लिये बनाये गये फण्ड की बात या ऐसे ही अनेक फण्ड हैं जिनका उपयोग न होना सरकार की विफलता को उजागर करता है। केंद्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की रिपोर्ट दिखाती है कि फरवरी 2018 तक उत्तर प्रदेश का स्थान सांसदों द्वारा फंड नहीं खर्च करने के मामले में पहला है। उसके बाद महाराष्ट्र, बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदेश का स्थान आता है। गंभीर स्थिति तो निर्भया गैंगरेप के बाद महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर बनाए गए निर्भया फंड को लेकर है। हर वर्ष इस फण्ड में राशि तो बढ़ाई गई लेकिन इस राशि का अधिकतर हिस्सा खर्च ही नहीं किया गया। दिल्ली में दिसंबर 2012 में हुए जघन्य गैंगरेप कांड के बाद इस फंड को वर्ष 2013 में एक हजार करोड़ रुपये की राशि से बनाया गया था। मौजूदा वित्तीय वर्ष में इस फंड के तहत आने वाली राशि को बढ़ाकर तीन हजार करोड़ रुपये कर दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस फंड की राशि के खर्च न होने को लेकर केंद्र समेत सभी राज्य सरकारों को नोटिस भेजकर इस बारे में सवाल पूछा है। कोर्ट ने जानना चाहा है कि मई 2016 तक कितनी राशि खर्च की गई और कितनी शेष रही।
इतने बड़ा फंड होने के बाद भी पिछले चार वर्षों में महज 400 करोड़ रुपये की राशि ही अब तक खर्च हो सकी है। हालांकि महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी का कहना है कि करीब 2100 करोड़ रुपये की राशि के प्रोजेक्ट अगले कुछ माह के अंदर शुरू होने हैं। राष्ट्रीय अपराध रेकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) बताता है कि 18 साल से कम उम्र की लड़कियों के साथ रेप के मामलों में मध्य प्रदेश अव्वल है। इस राज्य की सरकार ने इसी साल सुप्रीम कोर्ट को बताया कि रेप होने पर वह पीड़िता को छह से साढ़े छह हजार रुपये निर्भया कोष से देता है। निर्भया कोष के साथ ऐसा सलूक करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश सरकार को जमकर फटकार लगाई, लेकिन यह कोष लड़कियों की सुरक्षा और पीड़िताओं की सहायता में काम आना शुरू हो, इसकी गारंटी अबतक नहीं हो पाई है। आज जब इस फंड को संसद की संस्तुति मिलने के पांच साल पूरे हो चुके हैं तब हमारा यह जानना जरूरी है कि इस फंड के जरिए सरकार पीड़ितों को कितना लाभ दे पाई है। इस फंड के तहत पीड़ित को दी जाने वाली मुआवजा राशि की बात करें तो इसकी हालत और दयनीय है। इसके लिए सरकार ने करीब 200 करोड़ रुपये की राशि का प्रावधान रखा है। साथ ही केंद्र ने एसिड अटैक की शिकार महिला या युवती को तीन लाख की मुआवजा राशि देने की बात कही है। इसकी नोडल एजेंसी बनी राज्य सरकारों को भी इसमें 50 फीसद की राशि अदा करनी है। लेकिन आज तक भी राज्य सरकारों ने ऐसा नहीं किया है। पीड़ित महिलाओं को मुआवजा राशि दिये जाने में बरती जा रही कोताही चिन्ताजनक एवं सरकार की विफलता का परिचायक है। गंभीर प्रश्न तो यह भी है कि सरकार केवल फण्ड बनाने की घोषणाएं करके ही वाह-वाही क्यों लूटना चाहती है? क्यों नहीं इस तरह के जनकल्याणकारी फण्ड का उपयोग तत्परता से किया जाता है?
निर्भया फंड का बड़ा हिस्सा केंद्र सरकार अब वुमन सेफ सिटी प्रॉजेक्ट में लगाने जा रही है, जिसके तहत दिल्ली, लखनऊ, चेन्नई, बेंगलुरु, हैदराबाद, अहमदाबाद, कोलकाता और मुंबई में जगह-जगह पैनिक बटन लगाए जाएंगे। इन शहरों में स्मार्ट एलईडी स्ट्रीट लाइट, फरेंसिक व साइबर क्राइम सेल और ट्रांजिट बोर्डिंग हाउस तो बनाए ही जाएंगे, गश्त के लिए शी-पुलिस की व्यवस्था भी की जाएगी। सबसे ज्यादा पैसे बेंगलुरु को मिले हैं, दिल्ली दूसरे नंबर पर है। इन सब व्यवस्थाओं के लिए प्रावधान फण्ड बनाते समय ही शामिल किये थे। लेकिन प्रश्न है कि सरकार ने इतना विलम्ब क्यों किया इनके लिए व्यवस्था करने का प्रॉजेक्ट तैयार में? आखिर यह गति कैसे वास्तविक उद्देश्य तक पहुंचने में सहायक होगी? सरकारी योजनाओं एवं फण्ड के उपयोग की दृष्टि से नौ दिन चले ढाई कोस वाली कहावत को चरितार्थ होते हुए देखना दुर्भाग्यपूर्ण है। यह हमारे विकास की मन्द गति का भी द्योतक है। निर्भया फंड के तहत पूरे देश में दुष्कर्म संबंधी शिकायतों और मुआवजे के निस्तारण के लिए 660 एकीकृत वन स्टॉप सेंटर बनने थे। जिससे पीड़िताओं को कानूनी और आर्थिक मदद भी मिले और उनकी पहचान भी छिपी रहे। साथ ही सार्वजनिक स्थानों और परिवहन में सीसीटीवी कैमरे लगने थे, जिससे अपराधी की पहचान की जा सके। क्या हुआ इन कार्यों का? क्यों विफल रहीं सरकारें? निर्भया कोष से इसी साल लगभग सौ करोड़ रुपये फरेंसिक साइंस लैब के लिये दिये गये थे, जिससे चार राज्यों- पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में डीएनए जांच की सुविधा शुरू होनी थी। इस पैसे का कोई उपयोग अबतक नहीं हुआ है और एम्स की फरेंसिक साइंस लैब में देश भर से आए सन 2013 तक के नमूने अभी जांच का इंतजार ही कर रहे हैं। पैनिक बटन भी इसी साल लगभग सभी सार्वजनिक परिवहन सेवाओं में लग जाना था, जो कि नहीं लगा। इसकी आखिरी तारीख अब अगले साल के लिए खिसका दी गई है। कब तक हम तय की गयी समय सीमाओं को आगे बढ़ाते रहेंगे। कब तक हम इन बड़ी योजनाओं को आकार देने के नाम पर खानापूर्ति एवं लीपापोती करते रहेंगे? हालांकि केंद्र सरकार इस फंड में धन मुहैया करा रही है, लेकिन राज्य सरकारों को यौन हिंसा संबंधी मुआवजा कब और किस चरण में देना है इसे लेकर कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं हैं। विडम्बनापूर्ण स्थिति तो यह भी है कि इस फंड से तीन मंत्रालय जुड़े हैं, गृह मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और महिला एवं विकास मंत्रालय-इन तीनों में भ्रम है कि किसे क्या करना है? केंद्र सरकार इस फंड में धन दे रही है लेकिन राज्यों में यौन हिंसा संबंधी मुआवजा कब और कितना देना है इसे लेकर भी कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। इस कोष में भी हर राज्य में एक जैसा प्रावधान नहीं है जैसे गोवा में इसके तहत 10 लाख रुपये के मुआवजे का प्रावधान है जबकि बहुत से राज्यों में 1 लाख का प्रावधान है। इन विसंगतियों को दूर करते हुए सरकार को चाहिए कि वह किसी भी फण्ड का प्रावधान करें तो उसके त्वरित उपयोग की रूपरेखा एवं समय सीमा भी बनाये। बनाये गये फण्ड का उपयोग हो रहा है या नहीं, इसकी समीक्षा एवं विवेचना भी समय-समय पर हो। फंड का प्रभावी उपयोग करने के लिए संबंधित पक्षों के बीच समन्वय भी जरूरी है। फंड का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित होना जरूरी है, जिससे गरीब और जरुरतमंद का उत्थान हो सके। कार्य करने की शैली कार्य करने से कम महत्वपूर्ण नहीं होती। देश का चरित्र बनाना है, समस्याओं से मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ना है, आदर्श राष्ट्र की रचना करनी है तो हमें ऐसी आचार संहिता को स्वीकार करना होगा जो राष्ट्रीय जीवन को पवित्रता दें, कार्य को गति दे। स्वस्थ समाज एवं आदर्श शासन की रचना की दृष्टि दें। कदाचार एवं लापरवाही के इस अंधेरे कुएं से निकाले। बिना इसके देश का विकास एवं योजनाओं की उपलब्धियां बेमानी है।
– ललित गर्ग , दिल्ली