कविता जीवन का स्पंदन है . इसकी ठीक – ठीक अनुभूति – अभिव्यक्ति कविता को जीवंत बनाती है , जो कवि ऐसा नहीं कर पाते , वे कविता की सार्थकता को नहीं सिद्ध कर सकते . यह भी एक बात है कि जो लोग काव्य को जीवन से बाक़ायदा नही जोड़ पाते , वे आज की हिंदी कविता पर यह आरोप लगाकर अपनी इतिकर्तव्यता समझ लेते हैं कि उसमें काव्यानुभूति की प्रमाणिकता के अभाव के साथ ही अवास्तविकता का एक संसार बसा हुआ है . रचना त्यागी ‘ आभा ‘ का रचना – संसार जीवंत कविता का संसार है , जहाँ सर्वत्र यथार्थबोध है . रचना जी के पहले काव्य – संग्रह ‘ पहली दूब में संग्रहीत सभी छत्तीसों कविताएँ हमारे अन्तस् को जगाती एवं जीवन की वास्तविकताओं से साक्षात्कार कराती हैं . साथ ही इन्सान के चेहरे पर चढ़ी हुई नक़ाब को धीरे – धीरे किन्तु साहस के साथ उघाड़ने का दावा भी करती हैं . आस्वादन कीजिए ‘ कलम ‘ शीर्षक एक ऐसी ही कविता की कुछ पंक्तियों का –

ईमान की स्याही सूख गयी

खुद्दारी की निब टूट गयी

इसकी बोली अब लगती है

जैसे सत्ता व्यापारों में . [ पृष्ठ ३१ ]

यह एक प्रायः सर्वमान्य हकीक़त है कि आज भी हिंदी कविता के सिरमौर पहले के सम्मान्य कवि गण ही हैं . आज भी प्रतिनिधि कवि सूरदास, तुलसीदास, कबीर, मीरा, रसखान,रहीम, निराला, बच्चन, प्रसाद, महादेवी, दिनकर , जय शंकर प्रसाद और मैथिलीशरण ही हैं.

नई कविता अपनी पहचान इसलिए नहीं बना पाई , क्योंकि वह जमीन से नहीं जुड़ सकी . रचना ‘ आभा ‘ जी की प्रत्येक कविता मानव – जीवन बहुत गहरे जुड़ती है .द्रष्टव्य हैं ‘ पड़ोसी ‘ शीर्षक रचना की ये पंक्तियाँ –

” न उलझ हमसे पड़ोसी

तू भी अपना हिस्सा है .

नक्शे जुदा कैसे हुए

अब ये पुराना क़िस्सा है ”. [ पृष्ठ २५ ]

अब तक आधुनिक हिंदी कविता अपने दुराग्रहों के कारण पाठकों से किसी भी प्रकार का संबंध बनाने में असफल रही है . दूसरे शब्दों में इसमें कवियों की भी असफलता निहित है . इस विषम स्थिति को तोड़ने का सफल प्रयास किया है रचना जी ने ” पहली दूब ” के माध्यम से . इसमेँ जीवन के विविध रंग दिखाई पड़ते हैं . नारी – व्यथा पर कवयित्री का यह कथन बहुत सार्थक है कि इस आधी आबादी के लिए अभी आज़ादी का दिन नहीं आया . उस पर ज़ुल्म के पहाड़ अनवरत तोड़े जा रहे हैं . प्रस्तुत हैं चंद पंक्तियाँ –

” क्या अब भी ये कहते हो

आज़ादी का दिन आया ?

नहीं , तब तलक नहीं

जब तलक है उस पर काला साया ” . [ पृष्ठ ४० ]

निश्चय ही ” पहली दूब ” जीवन का स्पंदन है . इसे मैं पहला स्पंदन कह सकता हूँ , क्योंकि इसकी कई अनुभूतियाँ और संवेदनाएं प्रवाह एवं आघात से उत्पन्न नवीन मनः स्थितियों का परत – दर – परत अंकन करने में सक्षम हैं . देखिए कुछ और पंक्तियाँ –

” रोज़गार दुश्वार हुआ अब

धरी रह गयी शिक्षा

या अपना व्यापार जमाओ

या फिर मांगो भिक्षा ” . [ पृष्ठ २८ ]

” घर में हैं पैवंद लगे

बाहर करता दान .

ऐसी भी क्या तृष्णा है

जो दर झूठा सम्मान ” . [ पृष्ठ ४८ ]

गगन स्वर बुक्स द्वारा प्रकाशित ” पहली दूब ” का आवरण बहुत सुंदर है . छपाई दोषमुक्त है , पर कहीं – कहीं प्रूफ की त्रुटियाँ खटकती हैं।

समीक्षक – राम पाल श्रीवास्तव ‘अनथक’

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