मानवता को देख डूबते , अंधकार के आलोक में
कुपित सलिला उफनाई दुःख – अशांति के शोक में !
मनुजता ही निःशेष नहीं तो मान्यता किस काम की ?
बीते कोप बिसार लगें हम नव – निर्माण के लोक में |
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पौरुष है कहता , बिखराएं किरण नव – विश्वास की
नित – नूतन आशा , अभिलाषा – अभीप्सा के प्रभास की
‘ दुःख सबको मांजता है ‘ अज्ञेय जी ने है सटीक कहा
अन्ततः सृजन की ओर मुड़ती है हर धार विनाश की |
– रामपाल श्रीवास्तव ‘ अनथक ‘