नज़ीर बनारसी साहब [ 25 नवंबर 1909-23 मार्च 1996 ] किसी परिचय के मुहताज नहीं | उन्हें सांप्रदायिक सौहार्द्र के प्रखर शायर के तौर पर जाना – पहचाना जाता था | वाराणसी में लगभग 34 वर्ष पूर्व उनसे मेरी भेंट हुई थी , जब मैं पूर्व केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री राजनारायण जी के हिंदी सांध्य दैनिक ‘ जनमुख ‘ में क्राइम बीट संभालने के साथ उसके साप्ताहिक साहित्यिक पृष्ठ का भी प्रभारी था | मेरे प्रयासों से नज़ीर साहब ने कई रचनाएं प्रकाशनार्थ दीं , जो ‘ जनमुख ‘ में छपती रहीं | मदनपुरा में उनके आवास पर मैं उनसे मिलने जाया करता था | मेरा आफिस भी पास में भेलूपुरा में था, इसलिए उनसे मिलने के लिए विशेष प्रयोजन नहीं करना पड़ता | वे हकीम भी थे, इसलिए कभी मरीज़ों से घिरे रहते थे | इस स्थिति में बहुत कम बात हो पाती थी, लेकिन अक्सर कहते कि ”नई रचनाएं जल्द भेज दूंगा |”
इसी बीच वाराणसी एक बार फिर सांप्रदायिक तत्वों के निशाने पर आ गया | इस बार दंगे का घातक घनत्व कुछ अधिक बढ़ा हुआ था | नज़ीर साहब के मदनपुरा स्थित आवास में भी उपद्रवियों ने आग लगा दी , जिसके कारण एक भाग जलकर राख हो गया था | मैं उनसे मिलने और कुशल – क्षेम जानने उनके घर पहुंचा | नज़ीर साहब बहुत उदास और चिंतामग्न दिखे , जो स्वाभाविक बात थी | मुझे देखते ही कहने लगे , ‘ कमबख्तों ने मुझे भी नहीं बख्शा ‘….. ‘ कभी सोचा भी न था कि आग मेरे घर को पकड़ेगी ‘!!! …. ‘ कितनी अजीब बात है कि साम्प्रदायिकता के ‘ देव ‘ ने मुझे भी निगल लिया … और भी कुछ बातें कहते रहे | उनके उदास दिनों में यह दिन किसी स्याह रात से कम नहीं था | बहुत कम लोग जानते होंगे कि इस घटना के बाद नज़ीर साहब कुछ बदल ज़रूर गये थे , लेकिन उनकी उर्दू शायरी पुराने ढर्रे पर ही चलती रही | रही बात उनकी भोजपुरी – रचनाओं की , तो बहुत कम लोगों को पता है कि भोजपुरी में भी उनकी कई स्तरीय कवितायेँ हैं | उनकी हास्य रचनायें बहुत कम हैं | स्मारान्जलि के रूप में उनकी एक ऐसी भोजपुरी रचना पेश है , जिसमें हास्य और श्रृंगार का मधुर – मिलन है , जिसे भोजपुरी न जाननेवाले भी बहुत सुगमता के साथ समझेंगे –
सुतले प तोरे नैना कअ किस्मत जगायिला
गिर – गिरके तोरी शाख के ऊँचा उठाईला ,
हम दावं हार – हारके तोहके जिताईला .
ज़ुल्फी तोहार चूमे बदे रोज़ आईला ,
निस दिन हम अपने मुंह पे नागिन डसाइला .
मुस्काईला उहाँ प , जहाँ चोट खाईला ,
दिन रात हम शरीर कअ बोझा उठाईला ,
ढो- ढो के रोज़ जिनगी कअ कर्जा चुकाईला .
संसार से हमार अब उबिया गयल हौ जी ,
साथी हमार जा चुकलन , हम भी जाईला .
जे दिन तू चाहअ घाटे प आवअ मिलै बदे ,
हम रोज़ उठके भोर में गंगा नहाईला .
फूलन कअ डाली -डाली में हेरै बदे तोहें ,
मधुमास आवअला तअ बैगैचन में जाईला .
जगले पे तोहे देखै कअ साहस नाहीं पड़त ,
सुतले प तोरे नैना कअ किस्मत जगाईला |
नज़ीर के अशआर भी कमाल के होते थे | दीपावली के उनके शेयर तो बड़े बेजोड़ हैं –
सभी के दीप सुंदर हैं हमारे क्या तुम्हारे क्या
उजाला हर तरफ़ है इस किनारे उस किनारे क्या
गगन की जगमगाहट पड़ गई है आज मद्धम क्यूँ
मुंडेरों और छज्जों पर उतर आए हैं तारे क्या
हज़ारों साल गुज़रे फिर भी जब आती है दीवाली
महल हो चाहे कुटिया सब पे छा जाती है दीवाली
इसी दिन द्रौपदी ने कृष्ण को भाई बनाया था
वचन के देने वाले ने वचन अपना निभाया था
जनम दिन लक्ष्मी का है भला इस दिन का क्या कहना
यही वो दिन है जिस ने राम को राजा बनाया था |
– Dr RP Srivastava , Editor – in – Chief, ” Bharatiya Sanvad ”