घटा सावन की भीगी रात बारह बजनेवाला था
अँधेरा भी भरी बरसात पाकर आज सोया था
समन्दर अपनी बाँहों में समेटे सुआंव ठहरा था
मैं पुल पर या किसी जलयान पर मह्वे तमाशा था

जवां सरबार मौजें खेलती थीं खिलखिलाती थीं
ख़ामोशी में रह – रहके झांझें बज – सी जाती थीं
अँधेरा चौंकता था झाड़ियां जब खरखराती थीं
सड़क पर बत्तियां भी रफ़्ता – रफ़्ता बुझती जाती थीं

फ़ज़ा सरमस्त थी बाज़ार वाले सो गए होंगे
शटर ऊँची दुकानों के तो कब के गिर चुके होंगे
बज़्ज़ाज़े और सरीके में पहरे हो रहे होंगे
अनाजों के गोदामों में भी पहरे हो रहे होंगे
पर उनके चोर दरवाज़े तो शायद खुल गए होंगे
वहां तो काले बाज़ारों के ग्राहक आ रहे होंगे

सुकूं -ए – आईना – ए दिल इन मनाज़िर से न बदलेगा
स्याही की तहों से जाने कब तक चाँद निकलेगा
चलो सीमेंट लेकर कोई ठेला आ रहा होगा
कोई झंडे नगर का माल दाबे ला रहा होगा

गिरानी , चोरबाज़ारी दुखों की रात लंबी है
सियह सिक्कों का सैलाब , यह बरसात लंबी है |
– पी. पयाम
[ परोपकार सिंह ‘पयाम ‘]
[ ”परिवेश”, हिंदी मासिक, जुलाई 1983, पृष्ठ 18, प्रधान संपादक / प्रकाशक – राम पाल श्रीवास्तव, बलरामपुर, उत्तर प्रदेश ]
मह्वे तमाशा – तमाशा देखने में तल्लीन , सरबार – सिर का बोझ, सरमस्त – मदोन्मत्त , बज़्ज़ाज़े और सरीके- कपड़े व अन्य चीज़ों की दुकानें , सुकूं -ए – आईना – ए दिल – हृदय – दर्पण की शांति , मनाज़िर – दृश्यों , गिरानी – महंगाई , सियह सिक्कों- काला धन |

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