मानव का मौलिक स्वभाव मानव – जीवन की बड़ी सच्चाई है , जिसकी प्रेरणा हमें धर्मग्रंथों में मिलती है | मूल स्वभाव और प्रकृति पर जीने से मनुष्य बुराइयों एवं विकारों से बहुत ही सुरक्षित रहता है | वह अपने को उत्कर्षगामी बनाये रखता है | वह सामने के हर बंधन को काटता है और आगे बढ़ता जाता है | इसके लिए उसे मन , बुद्धि और इन्द्रिय – संयम की आवश्यकता पड़ती है , अन्यथा समाज की भेड़चाल उसे पतन की ओर ही ले जाती है | आज का भौतिकवादी समाज कुछ ऐसा ही है .मनुष्य के मूल स्वभाव पर न जीने से समस्याओं का अंबार लगा हुआ है . हम सचेष्ठ और सावधान नहीं रहे , तो दानव बनने में कितनी देर है ? ! अतः नकारात्मक बाह्य प्रभावों से अपने को अपने को बचाने अर्थात मूल स्वभाव पर बने रहने की बहुत ज़रूरत है |
परमात्मा ने मनुष्य को भी एक मूल स्वभाव दिया है-वह है दया का, करुणा का, क्षमा का, शील का, आपसी प्रेम व भाईचारे का . परंतु अफ़सोस, अधिकांश लोग अपने मूल स्वभाव से कटकर रह गए हैं | उन्होंने समाज में अशांति फैला रखी है | वे अपने ऊपर एक झूठा आवरण चढ़ा चुके हैं | भौतिकता का ऐसा रंग चढ़ा हुआ है कि मनेच्छाएं ही प्रमुख हो गई हैं, जिसके कारण भी प्रेम एवं सहिष्णुता घट गई है | दूसरे के रंग के प्रभावाधीन होकर स्वयं को भूल जाना, भला व्यक्ति का मूल स्वभाव कैसे हो सकता है ?
हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का एक शेअर है –
यक लहज़ा ज़शहूते कि दारी बरख़ेज़
ताबनशीनद हज़ार शाहिद पेश्त |
अर्थात , पल भर के लिए ही अपनी इच्छाओं का त्याग करो , ताकि हज़ारों प्रियतम तुम्हारे सामने बैठ जाएँ |
आज हमारी हर गतिविधि दिखावे में बदल गई है
हमारा हर क्रिया-कलाप हमें स्वयं से दूर ले जा रहा है | कारण साफ है, हम जो कर रहे हैं ऊपर से कर रहे हैं . प्राणों से नहीं, हृदय से नहीं, मन से नहीं | एक स्वभाव संत का भी है, भले इंसान का भी है | मूल स्वभाव पर बने रहने के लिए मन , बुद्धि और इन्द्रियों के संयम की अतीव आवश्यकता है | श्रीमद भगवद गीता में है –
यततो ह्यीय कौन्तेय पुरुषस्य विपश्यितः ,
इन्द्रियाणि प्रमथिनि हरन्ति प्रसभं मनः | [ 2 : 60 ]
अर्थात , हे अर्जुन , जिससे कि यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के भी मन को ये प्रमथन करनेवाली इन्द्रियां बलात्कार से हर लेती हैं |
अतः यह बड़ा कठिन कार्य हुआ | इसलिए भी नकारात्मक प्रभावों को हटाने और मूल स्वभाव बहाल की नितांत आवश्यकता है | गीता में उपाय भी बताए गए हैं | कहा गया है कि मूल स्वभाव पर आने के लिए प्रथम वाणी आदि इन्द्रियों का , फिर मन का संयम करना चाहिए [ गीता 3 : 41 – 43 , 2:93 , 2: 99, मनुस्मृति 2:93 , 2: 99, 2 : 88 , 2 : 94 , 2 :100 ] अन्य धर्मग्रंथों में भी इसी प्रकार की बातें हैं और मनुष्य को मूल स्वभाव पर जमे रहने का उपदेश दिया गया है | पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब ने फ़रमाया है कि हर मनुष्य अपने मूल स्वभाव पर पैदा होता है , लेकिन उसके माता – पिता उसे यहूदी , ईसाई या अग्निपूजक बना देते हैं |
– Dr RP Srivastava, Editor – in – Chief , ”Bharatiya Sanvad”