इधर दानव पक्षियों के झुंड
उड़ते आ रहे हैं क्षुब्ध अम्बर में ,
विकट वैतरणिका के अपार तट से
यंत्र पक्षों के विकट हुँकार से करते 
अपावन गगन तल को ,
मनुजशोणितमांस के ये क्षुधित दुर्दम गिद्ध .
कि महाकाल के सिंहासन स्थित हे विचारक 
शक्ति दो मुझको .
निरंतर शक्ति दो , दो कंठ में मेरे
विकट वज्रवाणी का कठिन प्रहार 
इस विभीत्सता पर ,
बालघाती , नारीघाती इस परम कुत्सित अल्प को 
कर सकूं धिक्कारजर्जर .
शक्ति दो ऐसी कि यह वाणी सदा स्पंदित रहे 
लज्जातुरित इतिहास के उद्देश्य में ,
उस समय भी जब रुद्ध कंठ होगा यह 
श्रृंखलित युग चुपचाप हो प्रछन्न अपने चिताभस्म स्तूप में . 

– रबीन्द्रनाथ टैगोर  

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