स्वनामधन्य मूर्धन्य पत्रकार एवं सम्पादकाचार्य आदरणीय अखिलेश मिश्र जी के बारे में अब मैं कोई चर्चा तक नहीं सुनता | क्या हो गया है लोगों को ? जिस विभूति ने अपना सारा जीवन पत्रकारिता के हवाले कर दिया हो , वह भी जनपक्षधर पत्रकारिता के हवाले , उसे याद तक न किया जाना बहुत दुखद है ! आदरणीय अखिलेश मिश्र जी के साथ मुझे कई बार यात्रा करने का अवसर मिला | बात 1979 की है , जब मैं IFWJ [ इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट ] की गोंडा [ उत्तर प्रदेश ] इकाई का प्रांतीय पर्यवेक्षक था | इस निमित्त अथवा पत्रकारी उपक्रम से लखनऊ का ‘ भ्रमण ‘ हो जाया करता था | आदरणीय अखिलेश जी वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ ट्रेड यूनियनों के बड़े नेता भी थे | यह हक़ीक़त मेरे लिए एक बड़ी सीख से कम न थी | वे कर्मचारी – हित के बड़े समर्थक और शोषण के घोर विरोधी थे | उनकी ख़ासियत यह थी, जब भी कोई आंदोलन छेड़ते तो ज़ोर की टक्कर देते | उनकी इस विशेषता से मेरा व्यक्तिगत जीवन अप्रभावित न रहा | मैंने जब भी पत्रकार और ग़ैर पत्रकारकर्मियों की अगुआई की है, कुछ न कुछ अखिलेश जी की तर्ज़ पर आगे बढ़ाया है | ख़ैर, इस विषय पर फिर कभी …..
एक बार जब मैं लखनऊ गया हुआ था, तो मिश्र जी कहा कि जब बलरामपुर लौटना तो बताना , मैं भी चलूँगा | मिश्रजी बलरामपुर में स्व. लाल बहादुर सिंह कलहंस जी [ एडवोकेट ] के यहाँ जाना चाहते थे | बस और जीप की सवारी की गयी | विविध विषयों पर चर्चा रही | मैं तो सम्मानवश बस उनकी बातें ही सुनता रहा | बहुत कम प्रतिक्रिया दी | वे प्रभावित हुए और यह कहते हुए महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक रचना अंग्रेजी में लिखकर मुझे दी कि यह अप्रकाशित है | उस रचना को मैंने कालेज मैगजीन में छपने के लिये दे दिया और वह प्रकाशित भी हुई | उस समय मैं बारहवीं कक्षा का छात्र था | वह रचना मेरे पास सुरक्षित नहीं रह सकी , किन्तु इसके भाव का पद्यानुवाद मैंने कुछ इस प्रकार किया है —
बाधाएं अनगिनत हैं , यदि मैं उन्हें छुड़ाना चाहूं
पीर- वेदना बहुत पहुँचती उन्हें छुड़ाने में,पर
मुक्ति मांगने पास तुम्हारे कैसे आऊं
अंतर मांगते लज्जा से जाता मर |
ऐसे ही एक मुलाक़ात में उन्होंने मेरे ऑटोग्राफ बुक पर टैगोर जी की कविता की अंग्रेज़ी में कुछ पंक्तियाँ लिखीं और फिर कहा कि ये भी अभी अप्रकाशित हैं | उस समय मेरे साथ पत्रकार जगदेव सिंह [ अब स्वर्गीय ] भी थे | उन्होंने मेरे ऑटोग्राफ बुक से वे पंक्तियाँ एक काग़ज़ पर नक़ल कीं, यह कहते हुए कि इन्हें एम एल के कालेज, बलरामपुर की वार्षिक पत्रिका ‘ अरुणाभा ‘ में प्रकाशित करूंगा | जगदेव जी इस कालेज में हिंदी पढ़ाते थे प्रवक्ता की हैसियत से | टैगोर जी की अप्रकाशित पंक्तियाँ ये थीं –
Reject a lie
When that is most gainful
Embrace a truth
When that is most harmful
Thus success will be difficult
And failure easy
Otherwise success will be
As easy as mean
Man has grown by failures
But never through mean success .
— Robindra Nath Tagore
पद्यानुवाद —-
परम लाभकारी हो जिस क्षण
तब असत्य को ठुकराना ,प्रबल आपदाएं संभावित हों
तब वह सच अपनाना .
इससे विजय बनेगी दुर्लभ
सुलभ आपदाएं होंगी,पौरुषहीन सफलता का
जीवन में क्या आना – जाना ? तुच्छ सफलताओं से मानव
कब ऊँचा उठ पाता है ? संघर्षों से जूझ मनुज
जग का इतिहास बनाता है |
मैं यह कहने में कतई संकोच नहीं करूंगा कि आदरणीय अखिलेश मिश्र जी हिंदी पत्रकारिता के अनुपम स्तम्भ थे | शुरू से ही मिश्र जी की प्रखर मेधा थी | जब वे बारह – तेरह वर्ष के थे , अख़बार बढ़ने गंगाप्रसाद मेमोरियल लाइब्रेरी [ अमीनाबाद , लखनऊ ] जाया करते थे | वहीं अमीनाबाद पार्क में एक पेड़ के नीचे ‘ माधुरी ‘ के सम्पादक रूप नारायण पाण्डेय , निराला जैसे दिग्गजों की बैठक हुआ करती थी | अखिलेश जी अपने मित्रों के इस गोष्ठी में श्रोता की हैसियत से पहुंच जाते | एक दिन बैठक में बिहारी के इस दोहे का ज़िक्र आया – ‘ पावस घन अंधियार मंहि भेदु नहि आनि , रात ह्योंस जान्यौ परत , लखि चकई चकवान | ‘ अखिलेश जी तपाक से बोल पड़े , बिहारी ने यह गलत लिखा है | पावस ऋतु में चकवा – चकवी प्रवास कर जाते हैं , तो दिखेंगे कैसे ? उनकी बात के सभी क़ायल हुए | रूप नारायण जी ने अखिलेश जी से कहा कि इस पर एक निबंध लिख दो | अखिलेश जी ने लिखा और ‘ माधुरी ‘ में छपा |
वे पहले पत्रकार थे , जिन्हें कई नामचीन हिंदी दैनिकों का प्रथम सम्पादक बनने का श्रेय प्राप्त हुआ | इनमें दैनिक गणेश , दैनिक स्वतंत्र चेतना , दैनिक जागरण [ गोरखपुर ] और दैनिक स्वतंत्र मत आदि शामिल हैं | मिश्र जी बड़े ही उसूल पसंद थे | सत्ता से , किसी पुरस्कार से सदैव दूर रहे | हर सम्मान / पुरस्कार को ठुकराते रहे | १1988 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी उन्हें भी पुरस्कार देनेवाले थे | उनके नाम का ऐलान हो चुका था | मिश्र जी पुरस्कार ठुकराते हुए आयोजकों को लिख भेजा कि ” सत्ता तन्त्र से जुड़े लोग क़लम घिसने वालों का सम्मान करने के पचड़े में क्यों पड़ें ? पत्रकार और शासक एक दूसरे को निजी तौर पर न जानें , इसी में दोनों की भलाई है |” इसी प्रकार जबलपुर में दैनिक ”स्वतन्त्र मत” के सम्पादक की हैसियत से तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का स्वागत करने के लिए अख़बार मालिकों की ओर से कहा गया , जिन्होंने अखबार का विमोचन किया था | मिश्रजी ने सहज भाव से इनकार कर दिया और कहा , ” यह सम्पादक का काम नहीं है |” मुख्यमंत्री जी ख़ुद चलकर मिश्र जी के कमरे में आए और आपसे मिले | कहाँ गया वह स्वाभिमान और मूल्य … क्या आज के पत्रकार अपना यह सब कुछ गवां नहीं बैठे हैं ?
– Dr RP Srivastava, Editor-in-Chief,”Bharatiya Sanvad”