देश में हुई 2016 की जनगणना में लड़कों की तुलना में लड़कियों की घटती संख्या के आंकडे़ चैंकाते ही नहीं बल्कि दुखी भी करते हैं। जिस तरह से लड़के-लड़कियों का अनुपात असंतुलित हो रहा है, उससे ऐसी चिन्ता भी जतायी जाने लगी है कि यही स्थिति बनी रही तो लड़कियां कहां से लाएंगे? हालत यह है कि आंध्र प्रदेश में 2016 में प्रति एक हजार लड़कों के मुकाबले महज आठ सौ छह लड़कियों का जन्म दर्ज किया गया। यह आंकड़ा सबसे निम्न स्तर पर मौजूद राजस्थान के बराबर है। तमिलनाडु, कर्नाटक जैसे राज्यों में भी तस्वीर बहुत बेहतर नहीं है। बालिकाओं की घटती संख्या एक गंभीर चिन्ता का विषय है।
देश में स्त्री-पुरुष अनुपात को लेकर लंबे समय से चिंता जताई जाती रही है। अब तक इस मसले पर अमूमन उत्तर भारत के राज्यों को कठघरे में खड़ा पाया जाता रहा है। दक्षिण भारत के राज्यों में स्त्री-पुरुष अनुपात का आंकड़ा काफी अच्छी स्थिति में रहा है। पर एक नए आंकड़ें के मुताबिक कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों में उभरी तस्वीर चिंताजनक है। केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों ने स्थिति की गंभीरता को देखते कड़े कदम उठाये, लेकिन समस्या कम होने की बजाय आज भी खड़ी है। देश में 6 साल तक के बच्चों में लड़के-लड़कियों का अनुपात सबसे बुरी हालत में है। जनगणना महापंजीयक कार्यालय की ओर से जारी 2016 की नागरिक पंजीकरण प्रणाली के मुताबिक पिछले कुछ सालों के दौरान इन राज्यों में पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है। इस बढ़ते असंतुलन को दूर करने के लिये ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ जैसे अभियान चलाये गये है। लेकिन इसके बावजूद अगर पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की संख्या में संतोषजनक संतुलन नहीं बन पा रहा है तो इसकी जवाबदेही किसकी है? इस गहराती समस्या पर बात करते हुए उत्तर भारत के राज्यों को दक्षिण भारत के राज्यों से सीख लेने की बात कुछ ज्यादा से ही जोर-शोर से होती रही है, लेकिन आज उन राज्यों में लड़के-लड़कियों के बीच बढ़ते असंतुलन ने एक बार फिर समस्या की गहराई को ही उजागर किया हैं।
सवाल है कि पिछले कुछ सालों के दौरान आखिर क्या और किस तरह का बदलाव आया है, जिसमें अकेले केरल को छोड़ कर दक्षिण भारत के राज्यों में भी लड़कियों को जन्म देने और उनके संरक्षण के प्रति समाज का रूख इस कदर नकारात्मक हो गया? इस मसले पर सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि पिछले कुछ सालों के दौरान दक्षिण के राज्यों में भी जिस तरह गर्भावस्था में लिंग जांच कराने की प्रवृत्ति बढ़ी है, वह चिंताजनक है। इसके लिए मुख्य रूप से इस तरह की जांच को आसान बनाने वाली आधुनिक मशीनों की उपलब्धता जिम्मेदार है। लेकिन आखिर क्या वजह है कि जो समाज बेटियों के जीवन और अस्तित्व को लेकर जागरूक रहा है। वह मशीनों की आसान उपलब्धता के बाद सोच के स्तर पर इतना प्रतिगामी हो रहा है, एकदम से बदल गया।
जहां पांव में पायल, हाथ में कंगन, हो माथे पे बिंदिया… इट हैपन्स ओनली इन इंडिया- जब भी कानों में इस गीत के बोल पड़ते है, गर्व से सीना चैड़ा होता है। जब नवरात्र के दिनों में कन्याओं को पूजित होने के स्वर सुनते हैं तब भी शकुन मिलता है लेकिन जब उन्हीं कानों में यह पड़ता है कि इन पायल, कंगन और बिंदिया पहनने वाली कन्याओं के साथ इंडिया क्या करता है, तब सिर शर्म से झुकता है। क्या सरकार और प्रशासन का तंत्र इस कदर कमजोर है कि वह गर्भावस्था के लिंग जांच करने वाले क्लिनकों या अस्पताल पर लगाम में सक्षम नहीं है? जाहिर है, समाज में लैंगिक समानता की चेतना का विकास करने के साथ-साथ गर्भ में भू्रण की जांच करने वालों के खिलाफ अगर तुरंत सख्ती नहीं की गई, तो आने वाले समय में शायद तस्वीर और ज्यादा चिंता करने लायक हो जाए।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने देश में बढ़ रही इस असमानता पर गहरी चिंता जताई है। इस पर आधारित खबरों को गंभीरता से लेते हुए आयोग ने केंद्रीय महिला और बाल कल्याण विभाग के सचिव और सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को कारण बताओ नोटिस जारी किया है। आयोग का यह सवाल सही है कि अगर दक्षिण के विकसित राज्यों में भी स्त्रियों की तादाद में तेजी से कमी आ रही है तो फिर महिलाओं के कल्याण के लिए जारी योजनाओं पर अमल की क्या स्थिति है? क्यों नहीं ये योजनाएं प्रभावी होकर मनुष्य की सोच को बदल पा रही है?
जिस देश में हर साल पांच लाख से अधिक कन्या भ्रूण मार दिए जाते हों वहां लड़कियों की सामाजिक हैसियत सुधरने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? सरकार की तमाम कोशिशों एवं सख्त कानूनों के बावजूद भू्रण परीक्षण का प्रचलन बढ़ रहा है। क्या कारण है भ्रूण परीक्षण के बढ़ते प्रचलन का? क्या ऐसा इसलिए किया गया कि भू्रण को कोई असामान्य परेशानी थी, मां का शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं था या गर्भ निरोधक नाकाम रहा था। नहीं। एक्सपर्ट कहते हैं 80 फीसदी मेडिकल अबॉर्शन कन्याभ्रूण के ही होते हैं। किस मेडिकल ग्राउंड पर इसकी इजाजत दी जाती है, कोई नहीं जानता। इस मामले में डॉक्टर एवं भ्रूण परीक्षण कराने वाला परिवार दोनों ही दोषी होते हैं। जिन परिवारों में देवी की पूजा अर्चना की जाती है, उन परिवारों में जन्म से पहले ही कन्याओं को मार देने की स्थितियां हमारी धार्मिक आस्था पर भी प्रश्नचिन्ह खड़े करती है। क्या सरकार और प्रशासन का तंत्र इस कदर कमजोर है कि वह गर्भावस्था के लिंग जांच करने वाले क्लिनकों या अस्पताल पर लगाम में सक्षम नहीं है? जाहिर है, समाज में लैंगिक समानता की चेतना का विकास करने के साथ-साथ गर्भ में भू्रण की जांच करने वालों के खिलाफ अगर तुरंत सख्ती नहीं की गई तो आने वाले समय में शायद तस्वीर और ज्यादा चिंता करने लायक हो जाए।
लड़कियों की कम होती संख्या चिंता का विषय है जिसका असर समाज और आगे आने वाली पीढ़ी पर पड़ेगा। लिंग अनुपात चर्चा से साफ पता चलता है कि महिलाओं की संख्या लगातार घट रही है। विश्व स्वास्थ संगठन के अनुसार, पहले के मुकाबले अब संतान पैदा करने की क्षमता, तेजी से घट रही है। मानव जनसंख्या के सही संतुलन बनाए रखने के लिए महिलाओं की संख्या अहम है। कुछ माता-पिता गर्भ में पलने वाली बेटियों को मार देते हैं, जरा सोचिए क्या वह इंसान नहीं है? मानव जाति पर दुनिया का सबसे बड़ा खतरा है महिलाओं की कमी, क्योंकि उसके बिना मानव जाति आगे नहीं बढ़ सकता है। हमारे देश में किस तरह कन्याओं एवं महिलाओं के साथ गलत हथकंडों में दुरुपयोग किया जाता है, शोषण किया जाता है, भ्रूण में ही हत्या कर दी जाती है, इज्जत लूटी जाती है और जन्म के बाद हत्या कर दी जाती है। सुनने में अजीब लगता है कि देश में अधिकांश लोग पढ़े-लिखे और संपन्न होने के बावजूद घर में कन्या के जन्म लेने पर शोक मनाते हैं। जन्म से पहले ही पता चल जाए कि बच्ची पैदा होगी तो ये उसकी जान लेने से भी नहीं कतराते। पिछली सदी में समाज के एक बड़े वर्ग में यह एक विभीषिका ही थी कि परिवार की धुरी होते हुए भी नारी को वह स्थान प्राप्त नहीं था जिसकी वह अधिकारिणी थी। उसका मुख्य कारण था सदियों से चली आ रही कुरीतियाँ, अंधविश्वास व बालिका शिक्षा के प्रति संकीर्णता। कितनी विडम्बना है कि देश में हम ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा बुलन्द करते हुए एक जोरदार मुहिम चला रहे हैं उस देश में लगातार बालिकाओं की संख्या घटने का दाग लग रहा है। यह दाग ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के संकल्प पर भी लगा है और यह दाग हमारे द्वारा नारी को पूजने की परम्परा पर भी लगा है। लेकिन प्रश्न है कि हम कब बेदाग होंगे?
–ललित गर्ग
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