194 वर्ष पहले 30 मई 1826 को पंडित जुगल किशोर सुकुल ने हिंदी का पहला समाचारपत्र ” उदंत मार्तड ” का प्रकाशन शुरू किया गया । यह साप्ताहिक पत्र था , लेकिन अर्थाभाव के चलते इसके मात्र 79 अंक ही निकल पाए थे | पहले की मिशनरी पत्रकारिता आज उद्योग बन चुकी है | इसके पास धन तो आ गया है , परन्तु आत्मा रुखसत हो चुकी है | नैतिक स्तर अधोगति को प्राप्त हो चुका है | पत्रकार और पत्रकारिता दोनों अनैतिकता के वाहक बने हुए हैं | पत्र – पत्रिकाओं की अश्लीलता कोई छिपी चीज़ नहीं | अश्लील विज्ञापनों ने नारी का भारी मान – मर्दन किया है और कर रहे हैं | दूसरी ओर अख़बारों के धंधेबाज हर अनैतिक धंधे / कृत्य का विज्ञापन छापकर एडमंड बर्क की चतुर्थ सत्ता को रसातल में ले जा रहे हैं | धन कमाने की ऐसी होड़ लगी हुई है कि ‘ पेड न्यूज़’ जैसा खुला भ्रष्टाचार सामने है ! आज न कोई मर्यादा है और न ही कोई आदर्श … मिशन तो कब का फुर्र हो गया | बस धन आए …. चाहे जो करना पड़े , सब ठीक !! पत्रकारों की यह स्थिति एक दिन में ही नहीं बन गयी , अपितु भौतिकवाद ने धीरे – धीरे उन्हें सभी मूल्यों से हटा दिया |
स्थितियां कितनी ही जटिल क्यों न हों , नैतिकता को खोना सचमुच बहुत चिंताजनक है | धनाभाव के कारण कोई सभ्य जीव भला अपनी नैतिकता क्यों खोएगा ? क्या हमारे पूर्वज धनवान थे? क्या उनका जीवन अर्थहीनता का शिकार न था ? आने – पाई के हिसाब वाली उनकी डायरियां देखिए … उनके जीवन वृतान्त पढ़िए …… क्या उनके सामने कम कठिनाइयां और चुनौतियाँ थीं ? इतिहास गवाह है कि संपादकाचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की आर्थिक दशा इतनी चिंतनीय हो गयी थी कि आपने दो चलताऊ पुस्तकें लिखीं , लेकिन अंत में इसकी कमाई को हराम समझकर अपनी नैतिकता और मर्यादा पर अडिग रहते हुए पुस्तक को न प्रकाशित करवाने का फ़ैसला किया | क्या इस बार हिंदी पत्रकारिता दिवस पर हम अपने खोखलेपन को दूर करने का प्रयास करेंगे या  परम्परागत ढंग से यूँ ही रस्मी अंदाज़ से मनाकर ‘ इति श्री’ कर लेंगे ???
– Dr RP Srivastava , Editor-in Chief, ” Bharatiya Sanvad”

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