दो रोज़ में शबाब का आलम गुज़र गया ,

बदनाम करने आया था बरबाद कर गया |

बीमारे गम मसीह को हैरान कर गया ,
उठा , झुका , सलाम किया , गिर के मर गया |
गुज़रे हुए ज़माने का अब तज़किरा ही क्या ,
अच्छा गुज़र गया , बहुत अच्छा गुज़र गया |
देखो ये दिल्लगी कि सरे रहगुज़र हुस्न ,
इक – इक से पूछता हूँ कि मेरा दिल किधर गया |
ऐ चारागर मना मेरे तेग – आज़मा की खैर ,
अब दर्दे सर की फिक्र न कर , दर्दे सर गया |
अब मेरे रोनेवालों , ख़ुदारा जवाब दो ,
वो बार – बार पूछते हैं कि कौन मर गया ?
शायद समझ गया मेरे तूले मर्ज़ का राज़ ,
अब चारागर न जाएगा , अब चारागर गया |
अब इब्तिदा – ए इश्क़ का आलम कहाँ ‘ हफ़ीज़ ‘
कश्ती मेरी डूबी कि वो साहिल उतर गया |
= हफ़ीज़ मुहम्मद ‘ हफ़ीज़ जालंधरी ‘

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