मनुष्य की मातृ भाषा उतनी ही महत्व रखती है , जितनी कि उसकी माता और मातृ भूमि रखती है | एक माता जन्म देती है , दूसरी खेलने – कूदने , विचरण करने और सांसारिक जीवन – निर्वाह के लिए स्थान देती है , और तीसरी मनोविचारों और मनोगत भावों को दूसरों पर प्रकट करने की शक्ति देकर मनुष्य जीवन को सुखमय बनाती है |
– आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी [ मार्च 1923 में कानपुर में आयोजित तेरहवें साहित्य सम्मेलन की स्वागतकारिणी समिति में सभापति की हैसियत से व्यक्त लिखित वक्तव्य का एक अंश ]