– अरुण अपेक्षित , इंदौर [ मध्य प्रदेश ]
उपनाम किसी कवि अथवा रचनाकार के नाम का वह हिस्सा है जो सामान्यतः किसी कवि या रचनाकार के द्वारा अपनेआप को कवि प्रदर्शित करने के लिये स्वंय रख लिया जाता है। यह उपनाम कवि या रचनाकार के परिचय में एक प्रतीक की तरह जुड़ जाता है। उपनाम सुनते ही सुनने वाले को लग जाता है कि सामने वाला व्यक्ति निश्चित ही कोई कवि या रचनाकार है- पुष्प, सुमन, प्रसून, राही, पथिक, मधुप, शलभ, अश्क, सरल, मयंक, चन्द्र, रवि, दिनकर, दीपक, विद्रोही, निर्धन, आलोक, प्रकाश, गगन, आकाश, विशाल ना जाने कितने उपनाम हैं जो रचनाकारों के संसार में प्रचलित है। हिन्दी में जिसे उपनाम कहते है उर्दू में उसे तख़ल्लुस और अंग्रेजी में पेननेम कहा जाता है। यह उपनाम कवियों और रचनाकारों के मूल नाम के साथ अंत में चिपका हुआ पाया जाता है। जैसे गोपालदास नीरज, उपेन्द्रनाथ अश्क, शिशुपालसिंह निर्धन, मनमोहन तमन्ना, इन्द्रा इन्दु, महेन्द्र मधुर, दिनेश हंसमुख आदि कवियों में उपनाम रखने की यह परम्परा कहां से प्रारम्भ हुई? यह खोज का विषय हो सकता है। मुझे ज्ञात नहीं है कि आदिकवि वाल्मीकी का असली नाम क्या था? किन्तु तपस्या-रत ऋषि की देह पर दीमकों के द्वारा वामी बना लेने के कारण उनका नाम वाल्मीक पड़ा। संस्कृत में दीमक के घर को वाल्मीक कहते हैं। इस तरह वाल्मीक उनका मूलनाम नहीं उपनाम हुआ। कवि अपनी भावनाओं, विचारों, मनोवृत्ति, प्रवृत्ति, परिस्थितियों के अनुसार अपनेआप उपनाम रखता है। कवि की प्रतिभा, योग्यता, कर्मठता, काव्यकर्म-कुशलता के अनुसार उसका उपनाम मूलनाम से आगे निकल जाता है या फिर पीछे छूट जाता है।
संस्कृत कवियों के उपनामों की चर्चा में संस्कृत के विद्वानों तथा आर्चायों पर छोड़ते हुये सीधे हिन्दी के कवियों की उपनाम परम्परा पर आता हूं।
डाॅ.परशुराम शुक्ल विरही ने हिन्दी का पहला कवि (सन 770) पुंड या पुष्य को माना है। सम्भवतः यह उसका उपनाम ही था। इसकी कोई रचना प्राप्त नहीं हैं इस लिये डाॅ नगेन्द्र हिन्दी का पहला कवि सरहपाद को मानते है। अपभ्रंशकाल काल के सरहपा या सरहपाद ने अपना विवाह एक शर (तीर) बनाने वली भिक्षुणी-कन्या से कर लिया था। वे ब्राह्मण थे किन्तु सर बनाने वाली भिक्षुणी कन्या से विवाह करने व उसके साथ रहने के कारण उनका नाम सरहपाद पड़ा। वे विद्वानों की नगरी नालंदा के निवासी थे।
अपभ्रंशकाल के ही सिद्धकवियों में एक कवि शबरपा हुये हैं। आपका यह नाम शवरों (आदिवासीं) की तरह जीवनयापन करने के कारण पड़ा। इसी काल के एक तीसरे सिद्ध कणहपा थे आप कर्नाटक से नालंदा में आकर बस गये थे। कर्नाटक के मूल निवासी होने के कारण वे कणहपा कहलाये। तिलोपा सन.1007 के लगभग के सिद्धकवि है। सिद्धाचार में तिल कूटने के कारण ही इनका नाम तिलोपा पड़ा। इनका निवास स्थान भृगुनगर (बिहार) था।
नाथ सम्प्रदाय के प्रथम गुरु आदिनाथ को माना जाता है जो साक्षत भगवान भोलेनाथ के अवतार माने जाते हैं। इस सम्प्रदाय के दूसरे गुरु मत्स्येन्द्रनाथ है। जनश्रुति के अनुसार मत्स्येन्द्रनाथ ने मछली के रूप में भगवान भोलेनाथ चोरी से तब ज्ञान प्राप्त किया था जब वे माता पार्वती को धर्म की शिक्षा प्रदान कर रहे थे। मछली के रूप में ज्ञान प्राप्ति के कारण आपका नाम मत्स्येन्द्रनाथ पड़ा। आप गुरुगोरखनाथ के गुरु थे।
हिन्दू साधुओं को वैराग्य धारण करने के पूर्व अपना सांसारिक नाम को त्यागना होता है। संतों कवियों में अपने मूलनाम के स्थान पर एक वैकल्पिक नाम रखने की परम्परा जैन धर्म में भी रही है और सिक्ख धर्म में भी मिल जाती है। गुरुअंगद का मूल नाम लहणाजी था और गुरु तेगबहादुर का मूल नाम त्यागमल था। निम्बार्क सम्प्रदाय के संस्थापक संत नियमानंद का प्रारम्भ का नाम आरुणि था। इसी प्रकार चैतन्य महाप्रभु जो चैतन्य (गोड़ीय) सम्प्रदाय के संस्थापक थे के घर का नाम विश्म्भर था। घर में निमाई, गोर और गौरांग के नाम से भी पुकारे जाते थे। चैतन्य महाप्रभु का समय 1486 से 1533 के मध्य माना जाता है।
अबदुल रहीम खनाखान को केवल रहीम के नाम से पहचान मिली है जबकि मलिकमोहम्मद जायसी उनके गृह-नगर जायस के आधार पर उपनाम जायसी से ही लोकप्रियता प्राप्त हुई। महाकवि भूषण वीर और ओज रस केे कवि का जन्म सन 1613 में कानपुर जिले के तिकवापुर ग्राम में हुआ था। कुछ विद्वानों का मत है कि भूषण का मूल नाम घनश्याम था। अपनी कुंडलियों के कारण विख्यात गिरधरकविराय का मूल नाम गोपालचन्द्र था। आप अपना उपनाम गिरधरदास, गिरधर, गिरिधारन रखते थे। ये सारे कवि अपने उपनाम के नाम से ही विख्यात हुये।
रीतिकालीन कवि रसलीन का पूरा नाम सैयद गुलामनबी रसलीन था। आपका लिखा यह दोहा भ्रमवस बिहारी का मान लिया जाता है-
अमिय हलाहल मदभरे, श्वेत,श्याम रतनार,
जियत मरत झुक-झुक परत, जेहि चितवत इकबार।
सन 1548 में जन्मे रस की खान रसखान का मूल नाम सय्यद इब्राहीम था। एक अन्य कवि रसनिधि का नाम पृथ्वीसिंह था और वे दतिया के बरौनी क्षेत्र के जागीदार थे। बीकानेर निवासी वृंद कवि सन 1643 के थे आपका पूरा नाम वृंदावन वृंद था। राजापुर जिला बांदा के कवि बोधा सरयूपारी ब्राह्मण थे। पन्ना के महाराजा बुद्धिसेन महाराज आपको प्यार से बोधा पुकारते है और उनका यही नाम साहित्य में चल निकला। संत नागरीदास का जन्म 1699 में हुआ था। आप कृष्णगढ़ के राजा थे। संत होने के पूर्व आपका नाम सावन्तसिंह था। गृहकलह के कारण आपने राज-पाठ और घरवार सब छोड़ दिया।
महाकवि तुलसीदास से भिन्न एक अन्य कवि तुलसीसाहब का जीवन काल सं.1820 से सं. 1899 के मध्य पूना में हुआ था। आप महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण थे। पूर्व में गृहस्थ थे बाद में वे विरक्त हो गये। जनश्रुति के अनुसार आप बाजीराव के बड़े भाई थे-नाम श्यामराव था। एक तुलसीदास नाम के कवि दतिया के आसपास के भी थे। उनका यह दोहा संयोग से महाकवि तुलसीदास का मान लिया जाता है-
होंसे-होंसे हम फिरें, होत हमारो बिहाव,
तुलसी गाय-बजाय कें, देत काठ में पांव।
महाकवि सूरदास से भिन्न सन 1513 के आसपास एक अन्य कवि सूरदास मदनमोहन नाम से विख्यात हुये हैं। आप अकबर के दरबारी और संडिले के दीवान थे। आपने सरकारी खजाने से 13 लाख रुपए साधुओं पर खर्च कर दिये और वृन्दावन भाग आये। सरकारी खजाने में सेंध लगाने का उनका कबूलनामा इस प्रकार है-
तेरह लाख संडिले उपजे, सब साधुन मिल गटके,
सूरदास मनमोहन ले उनको, वृंदावन को सटके।
हिन्दी साहित्य में महाकवि केशवदास से भिन्न एक अन्य केशवदास भी हुये हैं। इनका जीवनवृत अज्ञातं है। जाति के वणिक थे और यारी साहब के शिश्य, बुल्लासाहब के गुरुभाई थे। इन केशवदास का समय सं. 1750 के आसपास ही माना जाता है। हिन्दी साहित्य में ठाकुर नाम के तीन कवि हुये हैं, लालकवि भी एक से अधिक हैं। उपनाम प्रत्येक एक जैसे नामधारी कवियों को एक अलग पहचान प्रदान करता है।
रहीम के साथी, अकबर के दरबारी एक गंग कवि हुये हैं। इनके बारे में कहा जाता है- तुलसी गंग दुऔ भये, सुकविन के सरदार। आपका पूरा नाम गंगाप्रसाद था। आप बीरबल के बाल सखा थे। आपने शहजादा खुर्रम की प्रशंसा में छन्द लिखा जिससे कुपित होकर नूरजहां ने उन्हें हाथी के पांव के नीचे कुचलवा दिया था। मरने से पूर्व गंग ने यह दोहा लिखा था-
कबहुॅ न भडुंआ रण चढ़े, कबहुॅ न बाजी बंब,
सरस सभाहि प्रनाम करि, विदा होत कवि गंग।
बख्शी हंसराज श्रीवास्तब प्रेमसखी का जन्म सन 1732 में पन्ना में हुआ था। आप सखी सम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे। सम्भवतः इस लिये आपने अपना उपनाम प्रेमसखी रखा। पूर्वकाल में राजाओं और महाराजाओं के द्वारा दी गई उपाधियां कवि, कलाकारों के उपनाम के रूप में प्रचलित हो जाती थी। संगीतकार तानसेन का मूलनाम त्रिलोचन, तनसुख अथवा रामतनु था। तानसेन उपनाम उन्हें उपाधि के रूप में बांधवगढ़ के महाराज रामचंद्र ने प्रदान किया था। किसी स्त्री के प्रेम में पागल गायक बैजू को लोग बाबरा कहने लगे थे तो वह बैजू बाबरा के नाम से विख्यात हो गया।
अन्य भक्त कवियों में एक कवि नाभादास भी हुये हैं इनका वास्तविक नाम नारायण दास था। ये जाति के डोम थे। इनका अविर्भाव काल सं. 1657 माना जाता है। तुलसीदास के समकालीन कवियों में आपका नाम प्रतिष्ठित है।
भारतेंदू हरिश्चन्द्र काल के अनेक कवियों ने अपने उपनाम रख लिये थे। भले ही उन्हें ये उपनाम किसी उपाधी के रूप में प्राप्त नहीं हुये थे। इस काल के कुछ कवियों के नाम और उपनाम इस प्रकार हैं-बद्रीनारायण चैधरी प्रेमघन, पं.अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध, जगन्नाथदास रत्नाकर, रायदेवीप्रसाद पूर्ण, वियोगी हरी।
हम सब जानते हैं कि कथाकार प्रेमचन्द्र का यह नाम असली नहीं था। उन्होंने अपनी पुस्तक सोजे वतन धनपतराय के नाम से प्रकाशित की थी। उसे जप्त कर लिये जाने के बाद अंग्रेजों से अपने आप को छिपाने के लिये प्रेमचन्द्र यह छद्म नाम रखा था धनपतराय ने और इसी छद्मनाम से वे विख्यात हो गये।
महावीरप्रसाद द्विवेदी काल के कवियों में उपनामधारी कवि-नाथूराम शर्मा शंकर, गयाप्रसाद शुक्ल सनेही। छायावादी कवियों में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला-निराला इस लिये थे कि उनका व्यक्तित्व निराला था।
अपना उपनाम अपने नगर के आधार पर रखने की परम्परा सम्भवतः उर्दू से हिन्दी में आई-हसरत जयपुरी, शकील बदायुनी के नाम की तरह अपने नगर के आधार पर काका हाथरसे और निर्भय हाथरसी, साजन ग्वालियरी हास्य कवियों ने अपने नाम हिन्दी में रख लिए ।
आधुनिक युग में अनेक उपनाम धारी कवि हैं। सबका नाम लिख पाना भी सम्भव नहीं है पर उदाहरण के तोर पर कुछ नाम तो लिये ही जा सकते हैं-बालकृष्ण शर्मा नवीन, हीरानंद सच्चानंद वात्सायन अज्ञेय, हुल्लड़ मुरादावादी, हृदय नारायण हृदयेष, बाबा नागार्जुन, शिवमंगलसिंह सुमन, गजानंद माधव मुक्तिबोध, डाॅ.धर्मवीर भारती, चन्द्रसेन विराट, प्रेमकिशोर पटाखा,डाॅ.देवेन्द्र दीपक, अशोक निर्मल। मेरे गृहनगर के रचनाकारों में उपनामधारी कवि स्व.रामकुमार चतूर्वेदी चंचल, डाॅ.परशुराम शुक्ल विरही, प्रो.विद्यानंदन राजीव, डाॅ.हरिप्रकाश जैन हरि, विनयप्रकाश जैन नीरव, गोविंद अनुज, डाॅ.मुकेश अनुरागी, राम पंडित, राजकुमार भारतीय, आशुतोश आशू, विकास प्रचंड आदि लिये जा सकते हैं।आज तो हिन्दी साहित्य में हजारों उपनाम धारी कवि और रचनाकार हैं। सबके नाम लिख पाना सम्भव भी नहीं हैं। मेरा यह लेख उपनामों की परम्परा की खोज का एक छोटासा प्रयास मात्रभर है।