प्रतिभावान कथाकार प्रदीप मिश्र की चर्चित कहानी ‘भूख ‘ पढ़ने का लोभ – संवरण नहीं कर सका। यह कहानी समाज की सीधी अक्कासी करती है, जो हक़ीक़त पर आधारित अधिक लगती है। अगर ऐसी न होती, तो शायद ही पुरस्कृत होती। वैसे किसी भी समाज में हर जगह एक जैसी परिस्थितियां नहीं होती। कभी ये परिस्थितियां बोलियां सदृश हो जाती हैं, जो कोस दस कोस पर बदल जाती हैं। कोई। ही यह नहीं कह सकता कि अमुक समाज में व्यवहार में एक ही परिपाटी और स्थितियां होती हैं। अपवाद की बात अलग है।
‘भूख ‘ में नसरीन बी की ज़िंदगी पर आधारित व्यथा – कथा के जो आयाम हैं, वे कृत्रिम व असहज नहीं लगते। सच है कि धर्मनेताओं का समाज पर विभिन्न रूपों में दबाव रहता है। यह बात ज़रूर है कि इसमें न्यूनता – आधिकता और कद के हिसाब से वर्चस्व का अंतर भी रह सकता है। देखा गया है कि धर्मनेताओं की भृकुटी तनी, तो सभी चित हो जाते हैं। नसरीन बी में कहां इतना दम कि वे इस भारी भरकम बाहरी दबाव को झेल लें। बड़े – बड़े तो झेल ही नहीं पाते।
यहां एक सच्ची घटना का उल्लेख कर देना अधिक समीचीन होगा, जिसका मैं स्वयं साक्षी हूं। लगभग बीस बरस पहले की यह घटना नई दिल्ली की है। काल्पनिक नाम के साथ इसे मैं उद्धृत कर रहा हूं। मौलाना किफायत उल्लाह कासिमी के भाई हिदायत उल्लाह जब भाजपा में शामिल हो गए, तो एक कथित धार्मिक ठेकेदार ने उन्हें घुड़की दी। सबसे पहले स्थानीय मस्जिद के इमाम ने खुतबे में कुछ ऐसा कहा कि उन्हें मस्जिद में प्रवेश से रोक दिया गया। उस मस्जिद के मुतवल्ली पुलिस के एक रिटायर्ड दारोगा थे, जो चटक रंग के कपड़े पहनकर मस्जिद में जानेवालों की टोकाटाकी करते। फिर दूसरी मस्जिदों में भी उनका जाना वर्जित हो गया। हिदायत उल्लाह संभ्रांत भी थे और पैसेवाले भी। फिर भी उनकी एक न चली। बिना किसी अतिशयोक्ति के मैं यह कहना चाहूंगा कि वे अपने बड़े घर में कैद होकर रह गए। उस समय वहां के इलाक़े में भाजपा के प्रति विरोध नफ़रत की हद तक था।
नसरीन बी की भांति हिदायत उल्लाह लाचार नहीं थे कि सवाल करते फिरें। किसी के आगे मदद हेतु हाथ फैलाने के खिलाफ़ थे। लेकिन थे मजबूर। उनकी सुरक्षा का भी एक सवाल उनके जेहन में था। मगर इक्का – दुक्का भाजपा कार्यकर्ता उनके घर आते रहे, उनकी सुध ख़बर लेते रहे, उनके बचे हुए हौसले को बढ़ाते रहे। किसी ने प्रभुवर्ग से बातचीत भी की, मगर नाकाम रहे। हिदायत उल्लाह साहब स्थानीय लोगों की नज़रों में इतने गिर गए कि उनसे कोई बात नहीं करता था। अन्ततः एक दिन ऐसा आया , जब उन्होंने अपने निजी बड़े मकान को छोड़कर अन्यत्र मिलीजुली आबादी में बसने का फ़ैसला कर लिया। बाहरी दबाव काम कर गया ।
परिस्थितियों की मारी नसरीन बी की भूख इतनी भरी हुई थी कि ज़कात और सदकात उनके कुछ काम नहीं आ पा रहे थे। ज़कात मदरसे चट कर जाते और सदकात अपने ख़ास लोग। वह अगर आस्तानों का तबर्रूक ले लेती तो चलता, मगर दबाव वालों को प्रसाद हज़म नहीं हुआ। फिर भूखे पेट में अन्न चला गया तो कुफ़्र तो नहीं टूट पड़ा।
हदीस में है, ” ऊपर वाला हाथ ( अर्थात देनेवाला) नीचे वाले हाथ से अच्छा है( बुखारी, मुस्लिम)। मगर देता कौन है ? जिसने भी दिया उसका हाथ ऊपर हुआ, जिसकी तारीफ़ होनी चाहिए। साहिबे निसाब देते तो समाज की वह दुर्गति न होती जो नसरीन की हुई। नसरीन बिला वजह हाथ भी नहीं फैलाती, इसलिए उसकी भूख का मुबलग़ा लगाना नजायज है। ऐसे में नसरीन को जगह बदर के लिए मजबूर होना लाजिमी बात थी। हर कहानी में कुछ न कुछ उड़ान ज़रूर होती है , वरना वह कहानी ही न हो |
जिस धर्म में जान बचाने के लिए अविहित को भी खाने/ कहने की गुंजाइश हो, वहां का ऐसा वातावरण सर्वथा निन्दनीय है। यह कट्टरता की निशानी है और यह ‘मन तशब -बहा…..’ में नहीं आता । वैसे भूखे को खाना खिलाने के एवज़ में खुदा को पा जाना (हदीसे कुदसी) अच्छा है।
‘भूख ‘ को धार्मिक चश्मे से देखना गलत है। धर्म के कथित ठेकेदार जो कहते हैं, ज़रूरी नहीं कि धर्म के एकदम अनुरूप हो । इसीलिए वे ठेकेदार बन जाते हैं।
भूख के कथ्य बड़े ज़ोरदार हैं। शिल्प उत्कृष्ट कहानी के पैटर्न पर है और कथानक गजब का है। इस कहानी का यथार्थ धरातल है, जिस पर नाना प्रकार के पुष्प खिले हैं। निश्चय ही यह हमारे गौरवशाली देश का धरातल है, जहां सहिष्णुता की अविरल धारा सदियों से प्रवहमान है, जो हर संकीर्णता और कट्टरपन को तोड़ती रहती है। ऐसे प्रिय देश को बारंबार नमन । और कथाकार का अभिनंदन!
[ ‘ नीम सूख रहा है ‘ से ]
– Dr Ram Pal Srivastava
Editor-in Chief, ‘ Bharatiyasanvad ‘