मैं सूखा पत्ता हूं
मेरा व्यवहार इसी के सदृश है!
मैं वह पत्ता हूं ज्ञानलोक का
जो हवाओं के संग चलता है
या शायद मजबूर है चलने को
जहां चाहें
वे ले जाएं
यही खोज है मेरे सत्य की
यथार्थ है मेरे जीवन का
इसके आगे हर कोशिश व्यर्थ है
सत्य की खोज की
आशा के तंतुजाल की ।
मेरा भविष्य फैलता है
सिर्फ़ पत्ता बनकर !
हवाओं के संग डोलता हूं
खेलता हूं जी भर
जीवन रस पीता हूं
उम्र भर जीता हूं…
यही सत्य जीवन है…
पत्ता जो ठहरा लोक – परलोक का
इसीलिए
इन हवाओं से जन्म – जन्मांतर की दोस्ती कर रखी है
अब नहीं चाहत किसी और की
मैं चलता जा रहा
लाओत्सु भी चल रहे हैं
आप भी
चलते जाइए
जहां ले जाएं ये हवाएं
जानता हूं…
ये हवाएं परमार्थ की ओर ले जाती हैं
परम सत्य को बताती हैं।
– राम पाल श्रीवास्तव ” अनथक “

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