ये हैं दुलरू … अब साढ़े तीन साल के हो गए हैं। अब रह रहे हैं भारत – नेपाल सीमा के पास हिमालय की शैवालिक पर्वत मालाओं के लगभग अथ स्थान पर , उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में खैरमान डैम के पास। इनकी दास्तान बड़ी हृदय विदारक है! लेकिन हैं बड़े क़िस्मत वाले … जब ये मुश्किल से एक माह के थे। ग्रेटर नोएडा के गामा सेक्टर में उन मज़दूरों की झुग्गी – झोपड़ी के बाशिंदे थे, जो बिल्डरों ने अपने फ्लैट्स बनाने के लिए अन्य प्रदेशों से बुला रखे थे। ये लोग कई वर्षों से वहां रह रहे थे और इनके बीच कई नर – मादा डॉगी भी पल बढ़ रहे थे।
दुलरू की मां ने चार बच्चे दिए थे, जिनमें से तीन वाहनों से कुचल कर मर चुके थे। दुलरू बचे। इनकी ज़िंदगी रोज़ अफजूं बढ़ रही थी कि एक दिन इनके ऊपर किसी ने मोटर साइकिल चढ़ा दी। इनका पेट फट गया और कमर की हड्डी टूट गई। आज भी पेट पर ज़ख्म के गंभीर निशान हैं और वहां रोएं नहीं आ सके हैं। और थोड़ा लचककर चलते हैं। दुर्घटना के वक्त ये सड़क पर थे। किसी भले मानुष ने इन्हें खींचकर साइड कर दिया था। पेट से खून निकल रहा था। ऐसा लगता था, ये भी चल बसेंगे। इसी बीच मेरा बेटा रवि मॉर्निंग वॉक के लिए निकला था, जहां दुलरू जहां पड़े थे, उनकी तरफ़ चला गया। जबकि यह रवि का दैनिक रूट नहीं था। उसने बताया कि इच्छा हुई कि आज उधर जाएं।
रवि ने दुलरू को कराहते हुए सुना। दुलरू की दुर्दशा देखकर वह आहत हुआ और उसे गोदी में उठाकर अपने टावर किंग्स पार्क आ गया। मैंने इस दारुण दशा को देखकर इनके डाक्टर के पास ले जाने को कहा। इनके डाक्टर परी चौक पर थे, जहां ले जाने पर इन्हें इंजेक्शन दिया गया और घाव को स्टिच करके मरहम पट्टी की गई। फिर तीसरे दिन इंजेक्शन पड़ा और ड्रेसिंग हुई। इस प्रकार लगभग एक माह में ये काफ़ी हद तक ठीक हुए, परंतु चलने में परेशानी थी। दवा की मालिश जारी थी। चलने में फर्श परेशानी का बड़ा सबब बन रहा था। इन्हें रखने की अन्य कोई जगह मेरे पास थी नहीं, फिर भी परी चौक के पास के फ्लैट में लगभग आठ माह रहे।
दुलरू के डाक्टर ने कच्ची ज़मीन पर इन्हें रखने का परामर्श दिया, तो इन्हें कार में बैठकर लगभग साढ़े सात सौ किमी. दूर यहां हिमालय पर्वत मालाओं की सुदूर तलहटी में लाया गया। मुझे याद है । ये लगभग दस बजे रात को यहां पहुंचे। कार से इन्हें उतारा गया। अंधेरा था। ठंड का मौसम था। दिसंबर लगने वाला था। यहां पहाड़ के किनारे ठंड जल्दी आ जाती है और कड़क होती है। इसी बीच उतरते ही दुलरू लापता हो गए। बहुत तलाश की गई। गांव के पांच लोगों ने झाड़ी – झाड़ी इन्हें तलाश किया दो से ढाई घंटे तक,मगर ये नहीं मिले। इसी बीच तेंदुए की दहाड़ सुनाई दी। उसकी दहाड़ तीव्र थी। ऐसा लगा कि वह निकट ही है। हम लोग निराश हो गए। तेंदुए द्वारा इन्हें मार डालने की आशंका प्रबल हो गई। हम लोग थक हारकर लेट गए। कोई खाना नहीं खाया, न ही खाना बना। ईश – स्मरण करते रहे…
 जैसे – तैसे सुबह हुई … साढ़े सात के लगभग हुए होंगे। तभी गांव के एक सज्जन सवा वर्षीय दुलरू को गोद में उठाए नज़र आए। हम लोगों को खुशी का ठिकाना न रहा। गांव के रिश्ते के भतीजे ने बताया कि चाचा, इसे मैंने सुबह एक झुरमुट में छिपा पाया। किसी ने बताया कि आपका है। सो आपके पास ले आया। मैंने उनका शुक्रिया अदा किया और चाय पिलाकर भेजा। भतीजे ने कहा कि इतनी कड़क ठंड में यह कैसे बच गया। हैरत होती है। मैंने कहा कि जाको राखे साइयां … . अब दुलरू लगभग साढ़े तीन साल के हैं। पूर्णतः स्वस्थ हैं। फर्राटेदार दौड़ लगाते हैं। किसी के आने पर आगंतुक के काफ़ी दूर रहने पर ही भौंकने लगते हैं। मेरे आवास की सीमा में किसी को प्रवेश नहीं करने देते, चाहे वह गाय, बैल और अन्य जानवर ही क्यों न हो?
– Dr RP Srivastava

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