इंसानियत वह फूल है, जिसकी ख़ुशबू पूरी दुनिया में फैलती है। यह एक नायाब तोहफ़ा है, बहुत ख़ूबसूरत बेमिसाल अज़ीम जज़्बा है। इंसानियत की कोई नस्ल, ज़ुबान और जाति नहीं होती। इसका रिश्ता इंसान की निजी ज़िन्दगी और किरदार की तामीर से है।
अफ़सोस, आज इंसानियत दम तोड़ती नज़र आ रही है। उसका जज़्बा बहुत छोटा और कमज़ोर हो गया है… यह लालच के दायरे में क़ैद हो गई है और शराफत नीलाम होती जा रही है… लगता है , कोई किसी का नहीं ! घर – परिवार टूटते – बिखरते जा रहे हैं | आदम की औलाद हैवान बनती जा रही है और तहज़ीब व तमद्दुन की डालें कटती जा रही है।
इंसानियत की छाँव में प्यार की बारिश से ही देश, समाज और घर के चमन शादाब होंगे। एक दूसरे के साथ लगाव, हमदर्दी व भाईचारे के ज़रिए ही इंसानियत के वजूद को बचाया जा सकता है। इस संगीन सूरतेहाल में हमें ख़ुदग़र्ज़ी, स्वार्थ, नफ़रत, लालच वग़ैरह की दीवारों को तोड़कर क़ुरबानी, बलिदान, उख़ूवत, मुहब्बत और ईसार का शहर अपने दिलों में अबाद करना होगा, तभी हम भर सकेंगे इंसानियत की चौड़ी होती दरारों को।
– Dr RP Srivastava