आज जब पुस्तकों की समीक्षाएं प्रायोजित होने लगी हैं। पत्र-पत्रिकाएँ पैसे लेकर पुस्तकों पर समीक्षाएं करने/कराने लगी हैं, ऐसे में जित देखूँ तित लाल का प्रकाशन सुखद ही कहा जा सकता है। इस पुस्तक में इक्कीस पुस्तकों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं लेखक ने। रामपाल श्रीवास्तव वरिष्ठ पत्रकार हैं, उर्दू से फ़ाज़िल हैं और कई भाषाओं के ज्ञाता हैं इसीलिए समीक्षित पुस्तकों में वर्णित प्रसंगों के श्रोत, उत्पत्ति और विद्वानों – पुस्तकों के उद्धरण से समीक्षक ने उन तथ्यों की प्रमाणिकता को रेखांकित किया है जो समीक्षित पुस्तकों में वर्णित है ।
इस पुस्तक में जिन पुस्तकों पर समीक्षक ने कलम चलाई है उसमें–कल्पान्त (महाकाव्य), पिंजर, राग दरबारी, कितने गांधी, लालटेनगंज, नीम अब सूख रहा है, जेबकतरा, हाशिमपुरा 22 मई, हमारा बलरामपुर, हरकारा, मेले में लड़की सहित हिन्दी-उर्दू-अंग्रेजी की 21 पुस्तकें शामिल हैं। अनुक्रम से पहले पूर्व पीठिका दिया गया है जिसमें लेखक ने आलोचना, समालोचना और समीक्षा को विस्तार से परिभाषित करते हुए भारतेन्दु युग से लेकर उत्तर आधुनिक के समालोचकों का ज़िक्र करते हुए उस पर विहंगम दृष्टि डाली है। यह मात्र पुस्तक समीक्षा का संकलन नहीं है बल्कि समीक्षित पुस्तकों को समझने और उसमें वर्णित प्रसंगों को जानने-समझने का ज़रिया है–
“भारतीय साहित्यशास्त्र में पहले किसी एक रचना या रचनाकार पर विधिवत विचार की कोई प्रणाली विकसित नहीं थी। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में समीक्षा का अविर्भाव पाश्चात्य समीक्षा से प्रभावित होकर हुआ। भारतेन्दु युग, साहित्य की अन्य विधाओं की भाँति समीक्षा के भी अविर्भाव का काल है। यद्यपि भारतेन्दु ने अधिक समीक्षाएं नहीं लिखीं, किन्तु उनके निबंधों और उनकी पत्रिकाओं में छपी टिप्पणी यों का स्वर अवश्य समीक्षात्मक है। कुछ अध्येता भारतेन्दु के 1883 में प्रकाशित ‘नाटक’ को हिन्दी आलोचना की पहली पुस्तक मानते हैं। इसमें उन्होंने नाटक का शास्त्रीय विवेचन किया है। ‘हरिश्चंद्र पत्रिका’, ‘कवि वचन सुधा’ और ‘हिन्दी प्रदीप’ में भारतेन्दु के संपादकत्व में कवि और पुस्तक के गुण-दोषों का भी विवेचन किया गया है। ऐसा ही विवेचन प्रताप नारायण मिश्र के संपादकत्व की पत्रिका ‘ब्राह्मण’, पंडित हरमुकुंद शास्त्री के संपादन में ‘भारत मित्र’ और बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ के संपादकत्व वाली पत्रिका ‘आनन्द कादम्बिनी’ में पाया जाता है। ‘प्रेमघन’ के ज़रिए ही हिन्दी साहित्य में वास्तविक समीक्षा की शुरुआत हुई। उन्होंने ‘आनन्द कादम्बिनी’ में लाला श्रीनिवास दास के ‘संयोगिता स्वयंवर’ नाटक की आलोचना की। यही समीक्षा आधुनिक समीक्षा का आरम्भिक रूप है। इससे लगभग सभी साहित्य मनीषी सहमत हैं। यद्यपि यह समीक्षा परिचयात्मक है, फिर भी इसमें समीक्षा के आवश्यक तत्व शामिल हैं। बाद में इस नाटक की समीक्षा बालकृष्ण भट्ट ने ‘सच्ची समालोचना’ शीर्षक से की। उन्होंने ‘हिन्दी प्रदीप’ में जो आलेख और टिप्पणियाँ लिखीं, उनमें से कुछ में तुलनात्मक समीक्षा की प्रवृत्ति मिलती है।
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जित देखूँ तित लाल में आपको वह भी पढ़ने को मिलेगा जो पुस्तक में नहीं है और वह वर्तमान में अदृश्य है। कल्पान्त (लेखक डॉ. रामप्रसाद मिश्र) पुस्तक महाकाव्य है जो महाभारत पर आधारित है। समीक्षक ने केवल ‘कल्पान्त’ पर विचार व्यक्त नहीं किया है बल्कि महाभारत और महाभारत पर लिखी गयी उन तमाम ग्रंथों का उल्लेख विस्तार से किया है जो समीक्षक की विद्वता का परिचायक है।
“महाभारत जय, भारत और महाभारत तीनों का समन्वित रूप है। ‘जय’ के लेखक वैशंपायन को बताया जाता है, जबकि ‘भारत’ के रचनाकार के तौर पर सूत का नाम आता है। फिर भी ‘महाभारत’ के लेखक व्यास ही माने जाते हैं। रैपसन ने लिखा है कि – ‘महाभारत को एक व्यक्ति की रचना मानना मज़ाक़ की बात होगी’ (कैंब्रिज हिस्ट्री आॅफ इण्डिया)
रामपाल श्रीवास्तव ने प्रकाशक और लेखक दोनों को उर्दू लफ़्ज़ों पर नुक़्ता लगाने के सम्बन्ध में सचेत किया है और ज़ोर देकर कहा है कि यदि नुक़्ते का ज्ञान ना हो तो नुक़्ता लगाकर अर्थ का अनर्थ ना करें। उदाहरण के लिए गरज़, सज़ा जैसे शब्दों पर नुक़्ता लगाने अथवा ना लगाने पर अलग-अलग अर्थ ध्वनित होता है जिसे प्रयोग के समय ध्यान दिया जाना चाहिए। वैसे 99% पत्रिकाएं नुक़्ते का इस्तेमाल नहीं करती हैं। बिना नुक़्ते के शब्दों को वाक्य में प्रयोग के आधार पर पाठक उसका अर्थ निकालता है पर रामपाल श्रीवास्तव का तर्क है कि पत्र-पत्रिकाओं में और पुस्तक में अन्तर है इसलिए ज़रूरी नहीं कि आप उर्दू के शब्दों का ही इस्तेमाल करें। हिन्दी भी एक समृद्ध भाषा है।
कितने गांधी (लेखक डॉ. अजय शर्मा) यह एक नाट्य पुस्तक है। समीक्षक का मानना है कि –यह नाटक ना ऐतिहासिक है और ना यथार्थवादी, अपितु यह एक माॅडर्न एलिगेरी ( Modern allegery-आधुनिक अन्योक्ति) का मंचीय रूप है रामपाल श्रीवास्तव का मानना है कि– “गांधी नाम ही है विशेष कहने का। चाहे वह गोडसे कहें या पाकिस्तानी रहबर, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। क्या जे. एल. कपूर को भुलाया जा सका, जिनकी अध्यक्षता में 1966 में गांधी की हत्या की जांच के लिए वर्षों बाद आयोग बना था। इस आयोग की बातें क्या बिसरा दी गयीं? इस आयोग ने साफ़ कहा था कि गांधी हत्या के प्रयास 1934 से अनेक बार किए गए और यह बात भी साफ़ की कि हत्या का कारण स्वाधीनता आन्दोलन का उनका अंतिम प्रयास था। फिर यह बार-बार क्यों पेश की जाती है कि उनकी हत्या का कारण देश का बंटवारा और पाकिस्तान को 55 करोड़ दिलवाना था? यही सब तो बताया है मराठी के प्रसिद्ध पत्रकार जमन फडनीस ने अपनी पुस्तक ‘महात्म्याची अखेर’ में। ये देश के एकमात्र पत्रकार थे, जिन्होंने कपूर आयोग की सभी कार्यवाहियों को कवर किया था। उनकी जैसी बात जेम्स डगलस भी नहीं लिख पाए। “
रामपाल श्रीवास्तव ने इतिहास के पन्नों को खंगालते हुए साबित किया है कि भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव इन क्रांतिकारियों को सज़ा से बचाने के लिए गांधी ने पूरी आत्मा से बार-बार प्रयास किए, लेकिन उनकी सारी कोशिशें बेकार रहीं। नाटक के इस संवाद कि– ‘बेटा, जब भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी हुई, तो महात्मा गांधी ने सबकी जुबान पर ताले लगा दिए। विरोध फिर भी नहीं हुआ।’ के जवाब में समीक्षक लिखता है कि सच्चाई यह है कि खुद क्रांतिकारी फांसी की सज़ा का विरोध नहीं कर रहे थे।
लालटेनगंज (लेखक अख़लाक़ अहमद ज़ई) कहानी संग्रह की कहानी ‘ इब्लीस की प्रार्थना सभा ‘ पर टिप्पणी करते हुए रामपाल श्रीवास्तव लिखते हैं – दरअसल इब्लीस को शैतान प्रतीक / उपनाम माना जा सकता है। शैतान से बचने के लिए क़ुरआन उपाय बताता है। शराब, जुआ आदि बुराईयों को शैतानी काम करार देता है। इबलीस भी शैतानी काम करता है और अपने काम का मुखिया है। यह अरबी नाम नहीं है बल्कि एक यूनानी शब्द है, जो ‘दियाबूलिस’ से बना है, जिसका यूनानी में अर्थ- शत्रु, शैतान और चुगली करने वाला होता है। जब यह शब्द अरबी में आया तो इबलीस हो गया। सबसे पहले यह शब्द बाइबल के अरबी अनुवाद में आया और अरबी में प्रचलित हो गया। अरबी के कुछ विद्वानों का विचार है कि यह ‘बलस’ से बना है, जिसका अर्थ ‘निराश होना’ है। क़ुरआन में भी ‘बलस’ आया है(30:12,6:14)।इससे इबलीस बनने का जवालीक़ी(अरबी के शीर्ष विद्वान) ने खंडन किया है। कहा है–अरबी मात्राएं इसे इबलीस नहीं बना सकतीं। इब्ने जरीर तबरी आदि ने अपनी क़ुरआन की तफ़्सीर(भाष्य) में इब्ने अब्बास के एक कथन के हवाले से इसका नाम ‘अज़ाज़ील’ बताया है, जिसे आदम के सजदे से इंकार के बाद इबलीस कहा जाने लगा।
हाशिमपुरा 22 मई विभूति नारायण राय की चर्चित पुस्तक है जो एक जघन्य सामूहिक हत्याकांड पर आधारित कथेतर साहित्य है। समीक्षक स्वयंम् एक पत्रकार रहे हैं और इस कांड के घटनाक्रम से लम्बे समय तक जुड़े रहे हैं। हाशिमपुरा कांड से जुड़े उन तमाम घटनाओं, सरकारी, राजनीतिक उथल-पुथल के साथ-साथ अदालती कार्यवाही का विस्तार से ज़िक्र किया है जो विभूति नारायण राय से छूट गया है और हाशिमपुरा 22 मई में नहीं आ पाया है। रामपाल श्रीवास्तव लिखते हैं –” पी.ए.सी. को वहाँ बुलाया गया। उसने आते ही मुसलमानों को पकड़ना और सताना शुरू कर दिया मगर इतने से उसकी तबियत ना भरी तो मुसलमानों की सामूहिक हत्या का जघन्य प्लान बना डाला गया। भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी के आरोपों के मुताबिक, इस सामूहिक हत्या में कांग्रेसी नेता पी. चिदंबरम की भूमिका थी, जो उस वक़्त गृह मंत्रालय में अतिरिक्त सुरक्षा राज्यमंत्री थे। स्वामी ने जून 2012 में पत्रकारों से कहा था कि इस सिलसिले में उनके पास पर्याप्त सबूत हैं। उन्होंने कहा कि –’चिदंबरम ने मेरठ जाकर एक बैठक की थी, जिसमें उन्होंने अधिकारियों से कहा था कि 200-300 ऐसे नौजवानों को गोली से उड़ा दो तो दंगे कभी नहीं होंगे। उस वक़्त सांसद रहीं मुहसिना किदवई उस बैठक की गवाह हैं लेकिन उन्हें उस बैठक में शामिल होने से जबरन रोक दिया गया था।’ लेखक (विभूति नारायण राय) ने यह सब तथ्य नहीं लिखे हैं। सुब्रह्मण्यम स्वामी ने इस मामले में अदालत में जनहित याचिका दाख़िल की थी।”
मद्य – निषेधः नशे का व्यसन (लेखक चन्द्रसेन) पुस्तक में शराब के सेवन से मनुष्य के शरीर पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को अंकित किया गया है। यह एक बेहतरीन पुस्तक है। इसमें मेडिकल साइंस और अनुसंधानों के हवाले से चर्चा की गई है लेकिन रामपाल श्रीवास्तव के अनुसार धार्मिक पुस्तकों में आये वृतांतों और शिक्षाओं पर पुस्तक में केवल बौद्ध धर्म की एक कथा मात्र से काम चलाया गया है। इसके इतर समीक्षक ने विभिन्न धर्म ग्रंथों के हवाले से बताया कि सुरा लगभग सभी धर्मों में निषेध किया गया है।
जित देखूँ तित लाल शुभदा बुक्स साहिबाबाद से प्रकाशित है। कवर पेज से लेकर पेपर, प्रिंटिंग, पेज सेटिंग सभी बेहतरीन है। इस पुस्तक की समीक्षित पुस्तकें जिन लोगों ने नहीं पढ़ी हैं, उन्हें पहले इस पुस्तक को पढ़ना चाहिए और जिन्होंने पढ़ी है उन्हें इस पुस्तक को अवश्य पढ़ना चाहिए ताकि मालूम हो सके कि समीक्षित पुस्तकों के लेखकों की पकड़ से कौन-कौन से मुद्दे छूट गये हैं। पाठकों की जानकारी में इज़ाफ़ा होगा। रामपाल श्रीवास्तव ने किसी पुस्तक पर सतही तौर पर चर्चा नहीं की है ,बल्कि विस्तृत और तथ्यात्मक व्याख्या की है। एक तरह से प्रत्येक पुस्तक पर शोध प्रपत्र प्रस्तुत किया गया है अपने पाठकों के समक्ष, जो स्वागत योग्य है।
– अख़लाक़ अहमद ज़ई
[ मुंबई ]