” शंख में समंदर ” कोरोना – काल का उपन्यासकार का दूसरा उपन्यास है और उनकी उपन्यास – शृंखला का 15 वां | यह रचना कोरोना – काल के एकांतवास की ख़ासकर मानसिक पीड़ा को रचनात्मकता में कैसे बदला जाए , उसका मदावा है | उस समय का सबसे बड़ा जटिल प्रश्न यह था कि टाइम कैसे बीते उनका जो अपने – अपने घरों में क़ैद हैं ! नौकरीपेशा तो ऑनलाइन होकर ड्यूटी कर लेते थे और अपने जीवन को बेपटरी पर जाने से यथासामर्थ्य बचा रहे थे | छात्र भी ऑनलाइन होकर पढ़ाई करते और ऑनलाइन के ही मनोरंजन में अधिकतर व्यस्त थे |
मगर वे लोग जो अपने कैरियर को बनाने के प्रयास में और ” सेवानिवृत्ति ” का जीवन व्यतीत कर रहे थे, उनके लिए सहज सवाल सामने था कि इस आपद स्थिति को कैसे पार किया जाए ? कोरोना से डर का आलम सर्वत्र था और सब पर तारी था | इसमें उम्र , कैरियर और अभिरुचि आदि का कोई अवरोध नहीं | इन संक्रमणकालीन परिस्थितियों से जन सामान्य के जूझने और उबरने की राह तलाशता एवं उपाय बताता यह उपन्यास डॉ. अजय शर्मा की विशिष्ट प्रतिभा को भी दर्शाता है |
इस काल में समाज में अतिरिक्त अभिरुचि – गतिविधियों का बढ़ जाना स्वाभाविक था , वह भी ऑनलाइन ! इस उपन्यास का प्रथम अध्याय कुछ इसी तरह की परिस्थितियों की चर्चा करता है , जिसमें आत्मकथ्यात्मकता पर अधिक ज़ोर रहता है | इस शैली में डॉ. केशव अपनी बात को औपन्यासिक गति देता है |
वह ऑनलाइन क्लासेज में से एक्टिंग का क्लास ज्वाइन करने का इरादा कर लेता है – ” मुझे लगा , मुझे एक्टिंग क्लास ज्वाइन कर लेनी चाहिए | हालांकि , अच्छी तरह जानता हूं , मेरे अंदर का कलाकार कहीं न कहीं दम तोड़ चुका है | मेरे हाव – भाव में , मेरे साथ एक लेखक हर वक़्त किसी न किसी रूप में चलता है | “
फिर एक्टिंग के गुर सीखने के साथ – साथ उपन्यास विस्तार पाता है , जो नीरस विषय को भी आसानी के साथ निरूपित करने में सक्षम और सफल है | भावाव्यक्ति की तमाम विधाएं किसी न किसी बहाने इसमें समाहित हो जाती हैं, यहां तक कि भाषा शास्त्र जैसे जटिल विषय पर भी चर्चा होने लगती है | रस और भाव का चित्रण होने लगता है | विशेष कर हिंदी साहित्य के उपन्यासों के साथ कहानी और नाटक के स्फुट उदाहरण दिए जाने लगते हैं , जो पाठक को पुस्तक के अंतिम पृष्ठ तक बांधे रखते हैं | इतना सब जानने के बाद पाठक एक्टर चाहे न बन पाता हो , उसकी साहित्यिक अभिरुचि अवश्य विकसित और बलवती हो उठती है | अभिनय की यह सरसरी सीख ज़रूर मिल जाती है कि एक्टर बनने अपेक्षा हीरो बनने की उत्कंठा अधिक पालने से अधिक गहराई में नहीं उतरा जा सकता , क्योंकि अब सुंदरता का ऐतिबार नहीं रहा |
उपन्यास में अभिनय का चाहे वह फिल्म हो या रंगमंच एक टीम वर्क के सहारे ही अंजाम पाता है | टीम वर्क भी पूर्ण ऊर्जा के साथ करना है | और ऊर्जा भी केवल शारीरिक नहीं मानसिक भी होनी चाहिए | उपन्यास में है –
” यह ठीक वैसे ही है जैसे शांत समंदर में आप ज़हाज भी चला सकते हैं , लेकिन नदिया के खौलते पानी में नाव चलानी भी मुश्किल हो जाती है। शब्दों का चयन, पात्रों के मुताबिक़ होना बहुत ज़रूरी है। अगर एक राजा है, वह राजा दिखना चाहिए। उसका चलना राजा जैसा होना चाहिए, उसका बोलना राजा जैसा होना चाहिए और उसकी हरकतों में राजा दिखना चाहिए। इसे ही कहते हैं, पात्र को जीना। सीधी-सी बात यही है, जब आप पात्र में डूब जाएंगे, जब आप में और पात्र में कोई अंतर नहीं बचेगा, तब आप एक बेहतर एक्टर साबित होंगे। मैं यह भी जानता हूं, इस क्लास में एक्टर बनने के लिए कम और हीरो बनने के लिए ज़्यादा लोग हैं। स्टेज पर मंचन करना मतलब, मुंह से लोहे के चबाना जैसा है। “
पुस्तक में अधिक चित्रण से बचा गया है | सपाटबयानी अधिक है , जो उपन्यास का एक प्रकार हो सकता है , लेकिन विवरणात्मक अधिक है , जिससे बचा जा सकता था | पुस्तक के संवाद चुटीले होने के साथ शिक्षाप्रद भी हैं , हालांकि यह पटकथा लेखन का भी महत्वपूर्ण हिस्सा है | इस उपन्यास को पढ़ने के बाद मैं इस नतीजे पर भी पहुंचा हूं कि यदि इस पर फिल्म बने , तो निश्चय ही इसे दर्शकों का समुचित समादर और प्यार मिले | पंजाबी पुट लिए इस उपन्यास की छपाई अति सुंदर है | बोधि प्रकाशन , जयपुर से प्रकाशित इस पुस्तक में प्रूफ की मुझे कुछ ग़लतियां मिलीं , जिन्हें लेकर मुझे भ्रम भी रहा | मैं यहां उर्दू के शब्दों की बात नहीं कर रहा हूं, जो अपने उच्चारण को छोड़े नुक़्तारहित बौने नज़र आ रहे हैं , बल्कि हिंदी के शब्दों में प्रूफ शोधन की आवश्यकता है | डॉ. शर्मा साहित्य जगत में नित नई ऊँचाइयां छुएं, मेरी मंगलकामनाएं उनके साथ हैं…..