अमृतब्रह्म प्रकाशन, प्रयागराज से सद्यः प्रकाशित वरिष्ठ लेखक एवं विविध विधाओं के साधक पवन बख़्शी जी की कृति ” स्मृतियों के झरोखों से तुलसीपुर ” कई दृष्टियों से एक बेहतरीन पुस्तक है | चल रही रिवायत से परे इस पुस्तक में कोई विषय-सूची नहीं पाई जाती ! शाहरुख़ साहिल तुलसीपुरी के कलाम ‘ प्यारा तुलसीपुर ‘ से प्रारंभ होकर इस पुस्तक का समापन 187 पृष्ठ पर लेखक की एक काव्य-रचना पर हो जाता है, जिसमें यह प्रश्न उठाया जाता है कि ‘ हे ईश्वर ! तुम हो या नहीं ? ‘
‘ मेरा शहर कहाँ है ? ‘ में यह चौंकानेवाली बात लिखी गई है कि ” जहाँ संत तुकाराम उर्फ़ संत तुलसीदास ने प्रातः स्मरणीय अपनी अमर कृति ‘ हनुमान चालीसा ‘ की रचना की, जो कि आज भारतवर्ष के जनमानस की रग-रग में व्याप्त है | “
लेखक ने संत तुकाराम का अधिवास भवनियापुर [ तुलसीपुर ] ग्राम बताया है और उनको यह कहकर कि उनको संत तुलसीदास भी कहते थे, तुलसीपुर क़स्बे का नाम तुलसीदास के नाम पर रखा जाना भी बताया है | इस बात दीगर है कि संत तुकाराम का नाम तुलसीदास भी होने और उनके द्वारा ‘ हनुमान चालीसा ‘ रचे जाने का कोई भी प्रमाण नहीं दिया गया है | केवल कल्पना और किंवदंती से काम चलाया गया है, जो सत्य हो, इसका संशय बना रहता है | फिर भी उनका शोध अति सराहनीय है |
गोस्वामी तुलसीदास के जन्म को लेकर इधर के वर्षों में बड़ी भ्रांति फैला दी गई है | वर्तमान चित्रकूट के राजपुर गांव में उनका जन्म हुआ था | अब तीन स्थानों पर उनका जन्मस्थल क़रार देने की कुचेष्टा चल रही है | बाराबंकी और गोंडा में भी तुलसीदास जी के जन्म की कहानी गढ़कर फैलाई जा रही है, जबकि किसी एक ही स्थान पर उनका जन्म संभव है |
कल्पना अलग चीज़ है | प्रमाण से ही कोई बात पुष्ट होती है, वरना इतिहास से अत्याचार हो जाता है | जहाँ तक ‘ हनुमान चालीसा ‘ की रचना का प्रश्न है, तो इसकी दूसरा वृत्तांत मैं दशकों से सुनता आ रहा हूँ | मानस मर्मज्ञ रामरंग सारंग ने भी मुझे 1991 में एक साहित्यिक गोष्ठी ने इसी वृतांत को प्रमाणिक बताया था और किसी फ़ारसी ग्रंथ का भी उल्लेख किया था, जो मुझे स्मरण नहीं रहा | इसके अनुसार, ‘ हुनमान चालीसा ‘ की रचना गोस्वामी तुलसीदास ने ही की थी, हालाँकि मैं इस वृत्तांत को भी किवदंती पर ही आधारित मानूंगा, जो
इस प्रकार है –
‘ हनुमान चालीसा ‘ उन्होंने तब लिखा जब वे फ़तेहपुर सीकरी में मुग़ल सम्राट अकबर की जेल में थे। सम्राट अकबर की क़ैद में जब वे थे, तभी उन्हें हनुमान चालीसा लिखने की प्रेरणा मिली थी। एक बार मुगल सम्राट अकबर ने गोस्वामी तुलसीदास को शाही दरबार में बुलाया। वहाँ उनकी मुलाक़ात अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना और टोडर मल से हुई। अकबर, तुलसीदास से अपनी तारीफ़ में कुछ ग्रंथ लिखवाना चाहते थे, जिसको लिखने से तुलसीदास ने मना कर दिया था, तब अकबर ने उन्हें क़ैद कर लिया था | इसी दौरान एक बार अकबर ने गोस्वामी तुलसीदास को कारागार से अपने दरबार में बुलाया और श्रीराम से मिलवाने की बात कही। इस पर तुलसीदास ने जवाब दिया कि भगवान श्री राम केवल भक्तों को ही दर्शन देते हैं। यह सुनते ही अकबर क्रोधित हो गए और उन्होंने पुनः तुलसीदास को कारागार में डलवा दिया था। तब तुलसीदास ने कारागार में ही हनुमान चालीसा अवधी भाषा में लिखी। इसी दौरान एक और घटना घटी जिसे देखकर अकबर को तुलसीदास जी को मुक्त करना पड़ा। जब तुलसीदास जी हनुमान चालीसा की रचना कर रहे थे, तभी फ़तेहपुर सीकरी के कारागार के आसपास काफ़ी सारे बंदर आ गए और उन्होंने वहां बहुत उत्पात मचाया। यह देखकर मंत्रियों की सलाह मानकर तुलसीदास जी को बादशाह अकबर ने कारागार से मुक्त कर दिया।
अब पवन बख़्शी जी ने इस मत के विपरीत जो मत-स्थापन किया है, वह स्वागत योग्य है | इसका सबसे बड़ा कारण तुलसीदास की रचनाओं में ‘ हुनमान चालीसा ‘ का न होना है | इतिहास पर भी गहरी दृष्टि रखनेवाले पवन बख़शी जी ने बताया कि ” गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं में ‘ हनुमान चालीसा ‘ का उल्लेख नहीं मिलता | फिर ‘ हनुमान चालीसा ‘ का वजूद उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में ही मिलना शुरू होता है, जब जम्मू में इसकी प्रति प्राप्त हुई | यह सच है कि इस प्रति पर किसी रचयिता का नाम नहीं है, तथापि ‘ तुलसीदास सदा हरि चेरा ‘ पाठ के अंतिम भाग में आया है |”
जब गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं में ‘ हनुमान चालीसा ‘ है, तो इसे तुलसीपुर के तुलसीदास का माना जाना न्यायसंगत और बुद्धिसम्मत है | समीक्ष्य पुस्तक में तुलसीपुर का ऐतिहासिक वर्णन काफ़ी प्रशंसनीय है | निश्चय ही यह श्रमसाध्य कार्य है, जिसके लिए विद्वान लेखक को साधुवाद !
तुलसीपुर रियासत और 1857 के ग़दर में तुलसीपुर की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, ख़ासकर रानी ईश्वरी देवी [ राजेश्वरी देवी ] की | पुस्तक में इस विषय का तफ़्सीली विवरण है |
पिछले वर्ष मैंने तुलसीपुर की रानी ऐश्वर्य राज राजेश्वरी देवी, जिन्हें तुलसीपुर / बलरामपुर और कभी गोंडा की रानी लक्ष्मीबाई कहा जाता है, के जीवन पर कुछ लिखा भी था | उन्होंने 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेज़ों के छक्के छुड़ाए। लोक प्रसिद्ध उपन्यासकार अमृत लाल नागर ने 1857 के ग़दर पर आधारित अपने ऐतिहासिक उपन्यास में लिखा है कि यद्यपि वे तुलसीपुर नहीं जा सके,फिर भी गोंडा पहुंच कर तथ्य संकलित किए। राजा देवी बख़्श सिंह के बारे में कुछ विस्तार से बताने के बाद तुलसीपुर की रानी के बारे में भी संक्षेप में लिखा। सत्तर के दशक में गोंडा के वरीय साहित्यकार जी पी श्रीवास्तव जो हिन्दी के हास्य साहित्य में उच्च स्थान रखते हैं से भी भेंट की और जानकारियां इकट्ठी कीं। उनके छोटे भाई वी पी सिन्हा से भी मिले, जो पत्रकार थे। तुलसीपुर की रानी के विषय में नागर जी अपनी मशहूर पुस्तक ” ग़दर के फूल “में पृष्ठ 104 पर लिखते हैं –
” श्री वी पी सिन्हा के शब्दों में ‘ तुलसीपुर की रानी हमारे यहां की लक्ष्मीबाई थीं।’ लक्ष्मीबाई भारतीय नारी का प्रतीक थीं। ग़दर की प्रत्येक लक्ष्मीबाई भारतीय इतिहास का अमर गौरव हैं। इस नाम में अब वह शक्ति आ गई है, जो सदियों तक भारतीय नारी को प्रेरणा प्रदान करती रहेगी।”
हमारा दुर्भाग्य है कि इस महान वीरांगना की याद में हमारे पास कोई भी स्मारक नहीं है ! अंग्रेज़ों ने उनका सब कुछ नेस्तनाबूद कर दिया। किला, महल सब ध्वस्त कर दिया और मलबा समेत अन्य सामग्रियां उठवा ले गए। तुलसीपुर की रानी की मृत्यु 1865 में पचास वर्ष की अवस्था में दक्षिण नेपाल में हुई।
कई दशक पहले “दैनिक जागरण ” में किन्हीं गुप्ता जी एक रिपोर्ट तुलसीपुर की रानी पर सबसे पहले छपी देखी थी। इस रिपोर्ट के बाद मेरे परम मित्र जगदेव सिंह जी, जो गोंडा स्थित ” स्वतंत्र भारत ” के संवाददाता थे और एम एल के कालेज , बलरामपुर में हिंदी के प्रवक्ता भी, ने ” गोंडा – अतीत और वर्तमान ” नामक अपनी पुस्तक मुझे भेंट की थी, जिसमें इस महान वीरांगना का बहुत ही संक्षिप्त परिचय था।
बाद में इस दिशा में क्या प्रयास हुए, मुझे बाहर रहने के कारण कोई जानकारी नहीं मिल पाई थी। आदरणीय पवन बख़्शी ने उनके जीवन के नए पहलू समीक्ष्य पुस्तक में उजागर किए हैं, जो गवेषणात्मक होने साथ रानी ईश्वरी देवी की महानता को पूरी तरह स्पष्ट करते हैं |
इस महान वीरांगना को शत-शत नमन ! इनकी और तुलसीदास की याद में तुलसीपुर में स्मारक अवश्य बनना चाहिए, ताकि ख़ासकर नई पीढ़ी इनसे प्रेरणा प्राप्त कर सके | अतः प्रशासन को इस पर तत्काल संज्ञान लेना चाहिए और इनके भव्य स्मारक बनवाकर आज़ादी के अमृत काल को याद करना चाहिए |
समीक्ष्य पुस्तक की एक बड़ी उपादेयता यह भी है कि इसमें तुलसीपुर और आसपास के उन पहले और वर्तमान के दर्जनों विशिष्टजनों पर संस्मरणात्मक आलेख हैं, जिनसे लेखक का सरोकार रहा है | इस प्रकार यह पुस्तक अति संग्रहणीय और पठनीय बन गई है | अति सौम्य, भाव-रिद्ध, अहंकाररहित, प्रखर मेधावी और श्लाघनीय गुणों से आरास्ता लेखक की जितनी सराहना की जाए, कम है | ऐसी पुस्तक लिए लेखक हार्दिक बधाई, शुभकामनाएं !
– Dr RP Srivastava
Editor-in-Chief, Bharatiya Sanvad