कहानियों का कारवाँ (उर्दू एवं अरबी की चयनित कहानियाँ)
अनुवाद एवं संपादन – राम पाल श्रीवास्तव
प्रकाशक – समदर्शी प्रकाशन, साहिबाबाद
प्रथम संस्करण – 2024
मूल्य – 200 रुपए
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उर्दू “कहानियों का कारवाँ” वजही (1635) की प्रतीकात्मक कथा “सबरस” से शुरू होकर सैयद सज्जाद हैदर की कहानी “नाश्ते की पहली तरंग”, प्रेमचंद की “दुनिया का सबसे अनमोल रतन” से होता हुआ आधुनिक रचनाकारों इकबाल अंसारी, बानो सरताज, रशीद फारूकी, राम पाल श्रीवास्तव तक चला आ रहा है। जिसका बहुत विस्तृत वर्णन और शोधात्मक विश्लेषण राम पाल श्रीवास्तव जी ने अपनी अनुवादित एवं संपादित पुस्तक “कहानियों का कारवाँ” के प्राक्कथन “अफ़सानानामा” में किया है। जो हम जैसे पाठकों को उर्दू कहानियों के साथ-साथ अरबी कहानी व कहानीकारों की कहानी यात्रा, विभिन्न पड़ावों व विकास की जानकारी उपलब्ध कराता है।
कहानियाँ चाहे किसी भी भाषा में लिखी गई हों उन पर समकालीन समाज का प्रभाव रहता ही है। पाठक जब अपने आस-पास के पात्रों, घटनाक्रमों को कहानियों में पाता है तो उससे उसका साम्य सहजता से स्थापित होता चला जाता है और कहानी पाठक के मन-मस्तिष्क में अमिट छाप छोड़ती चली जाती है। जब यही कहानी पाठक की जुबान, भाषा व शब्दों में होती है तो पाठक “कहानियों के कारवाँ” में मानसिक रूप से शामिल होकर पात्रों के सुख-दुःख, राग-द्वेष, आमोद-प्रमोद, तृष्णा-वितृष्णा में डूबने-उतराने लगता है। जिससे कहानी शब्दों का मात्र लिखित दस्तावेज न रहकर जिंदगी का कड़वा-मीठा अपना स्वयं का ही अफसाना बन जाती है। ऐसी कहानियाँ सदियों तक पीढ़ी दर पीढ़ी कही-सुनी-पढ़ी जाती है। संग्रह की सभी कहानियाँ इसी श्रेणी में रखी जा सकती हैं। उर्दू की बेहतरीन व कालजयी कहानियों को हिंदी के पाठकों के लिए राम पाल जी ने उनका हिंदी में अनुवाद कर “कहानियों के कारवाँ” में संकलन किया है। इन कहानियों के अनुवाद व संपादन में राम पाल जी ने उनकी मौलिकता को यथासंभव बरकरार रखा है।
संग्रह में सम्मिलित राम लाल जी की कहानी “कब्र” तथा राम पाल श्रीवास्तव जी की कहानी “विचार यात्रा” मानव के गूढ़ मनोविज्ञान, मनोभाव व संवेदनाओं के अदृश्य तारों के ताने-बाने पर खूबसूरती से बुनी गई हैं।
इंसान अपने जन्म स्थान से समूल उखड़ कर कहीं भी पल्लवित-पुष्पित होकर भले ही बस जाए पर उसे उसकी जड़ें हमेशा बुलाती रहती हैं। वहाँ की मिट्टी में बिताए गए बचपन के दिनों की धींगा-मस्ती, गिरने-पड़ने से लगी चोटों की कसक व गलियों-कूचों की नादान आवारगी हमेशा दिलो-दिमाग में बसी रहती है। जब भी वो दृश्य सामने आता है अंदर से एक हूक उठने लगती है। बिलकीस के साथ यात्रा के दौरान ट्रेन के एक छोटे से स्टेशन पर रुक जाने पर स्टेशन का नाम “निगोहां” पढ़कर-सुनकर खालिद के अचेतन में बसी यादें उसे उद्वेलित करने लगती हैं। बचपन के दोस्त राम दास के मिल जाने पर तो वह बचपन की भागदौड़, खेलकूद वाली गलियों व पप्पी की कब्र देखने के लिए पगला ही जाता है। बच्चों को जगाकर वह वहीं उतर जाता है और बचपन के एक-एक लम्हें को बच्चों के साथ बाँटने लगता है। इकबालपुर के लिए अपने अंदर उठती हुई हूक से भली-भाँति परिचित बिलकीस निगोहां के प्रति खालिद की हूक को महसूस कर कहती है – “क्या आप चाहते हैं, हम लोग कुछ दिन यहाँ रहें?” (कब्र, पेज 31)
मनुष्य की विचार यात्रा भी ट्रेन यात्रा ही तो है, एक ट्रैक पर चलते-चलते ट्रैक-मैन के लीवर बदलते से ही ट्रेन दूसरे ट्रैक पर चली जाती है। लीवर सही बदला तो सही ट्रैक, लीवर गलत हुआ तो गलत ट्रैक। मनुष्य के विचार भी हूबहू इसी तरह उसके यार-दोस्त तथा आसपास के वातावरण से प्रभावित होते हैं। दहेज की फरमाइशें पूरी न होने पर अपनी पत्नी को तलाक देने पर आमादा सोहन का वैचारिक परिवर्तन इरफान के अब्बा से कुरआन की आयतों व हदीसों की व्याख्या से हो जाता है –
“इस्लाम की ये शिक्षाएँ जानकर सोहन में वैचारिक परिवर्तन आ गया। अब वह वास्तविकता से परिचित हो गया था। उसने राधा को तलाक देने की बात त्याग दी। उसे अपने पहले के कदमों पर पछतावा हो रहा था। उसने यह भी फैसला किया कि अब वह राधा के साथ अनाचार-अत्याचार नहीं करेगा।” (विचार यात्रा, पेज 113)
यह वास्तविकता है कि धर्म चाहे कोई सा भी हो, उसमें व उसके ग्रंथों में सन्मार्ग तथा प्राणियों के कल्याण की भावना ही होती है। मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए उनकी मनचाही व्याख्या कर लेता है।
शब्दों का प्रभाव बहुत दूरगामी होता है। लेखक के द्वारा लिखे गए शब्द पाठकों की मानसिकता को परिवर्तित करने की ताकत रखते हैं। ये शब्दों की ही ताकत थी जिसने आदमी के अंदर जज्बा और हौसला भरकर कई आंदोलनों को सफल बनाया है। स्वतंत्रता संग्राम में विजय दिलाई है। पर जब इन शब्दों का नकारात्मक प्रभाव पड़ता है तो मनुष्य व समाज अधोगत होने लगता है। अपनी शोहरत, प्रशंसा व सम्मान के छद्म छलावे में लेखक ऐसी कहानियाँ, उपन्यास, कविताएं रच देता है जिसके दुष्प्रभावों से सामाजिक ताने-बाने की चूलें हिलने लगती हैं। लेखक को जब तक इसका पता चलता है, देर हो चुकी होती है। फिर उसके पास पछताने के सिवा कुछ नहीं बचता है। कहानी “ये इश्क़ नहीं आसां”, तथा “ज़लज़ला (अरबी कहानी)” का मजमून यही है। बस स्टैंड के मुसाफिरखाने की हस्बे मामूल गरमागरम बहसों में अरशद की स्वच्छंदता भरी कहानियों व उपन्यासों के शब्द-जाल में फंसकर अपना सब कुछ लुटा देने वाली औरत की मार्मिक व्यथा के द्वारा शब्दों की मार द्योतक है। अपने शब्दों के नकारात्मक प्रभावों से लेखक का पछतावा है। वह औरत अपने सवालों से अरशद को आइना दिखा देती है- “मुझे अपने बाहुपाश में भींच ले, मेरे सुंदर कथाकार ! सारी दुनिया को तृप्त करने के बाद और सब कुछ लुटा देने के बाद मैं अपनी यह अंतिम उम्मीद और इच्छा लेकर तेरे विचारों की प्रतिमा हूँ, तेरे स्वप्नों की जीती-जागती तस्वीर और तेरे विचारों का फल हूँ – अब जब सारी दुनिया ने मुझे ठुकराया तो मैं तेरे पास आश्रय लेने आई।” (ये इश्क़ नहीं आसां, पेज 59)
आधुनिक व स्वच्छंद विचारों के हिमायती डॉक्टर नजम ने भले ही सामाजिक प्रतिष्ठा, धन-दौलत व शोहरत प्राप्त कर ली पर उसकी खुद की पत्नी व बेटी की स्वच्छंदता व पतन को बरदाश्त नहीं कर पाया – “समाचार यह था कि प्रख्यात साहित्यकार, कथाकार एवं सामाजिक चिंतक डॉक्टर नजम ने स्कंदरिया के समुद्र तट पर पानी में छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली। पिछले कुछ दिनों से वे बीमार थे। सख्त शारीरिक तनाव के शिकार थे।” (ज़लज़ला, पेज 128)
उधर अब्दुल क़ादिर ने सामाजिक परिवेश व विचारों, जिसे डॉक्टर नजम दकियानूसी सोच कहते हैं, के साथ बच्चों की परवरिश कर उन्हें पारिवारिक व सामाजिक जीवन में सफल बनाया। पारिवारिक स्नेह, संस्कार व विचार से ही बच्चों व समाज का सकारात्मक विकास होता है।
एक लड़की हमेशा किसी दूसरे के साए में रहती है। मायका हो या ससुराल लड़की के पास अपना कुछ नहीं होता है। इसी मार्मिक मनोदशा की कहानी है “गृह स्वामिनी” – “मैं बाहर से मुस्कराती रही, मगर अंतरात्मा खून के आँसू रोती। अल्ताफी! मुँह दिखाई में मिली लाल साटन की गंदी सी थैली बाक्स में कपड़ों की तह में छिपाकर जीवन भर इसी गुमान में रही कि मेरे पास पैसे हैं मेरे खुद के। जब चाहूँगी, खर्च कर लूँगी, जो मन कहेगा खरीद लूँगी और इसी भ्रम में पूरा जीवन काट दिया।” (गृह स्वामिनी, पेज 38)
कहानी “जब्र और इख़्तियार” में गरीब किराएदार की परेशानियां हैं, “त्याग” में प्रेमी के स्थान पर अन्य के साथ शादी तय हो जाने के अवसाद से लड़की की असमय मृत्यु हो जाने की मर्मस्पर्शी व्यथा है। “चाँद और फंदा” ने कालजयी कहानी “उसने कहा था” की याद दिला दी। “नेटवर्क प्राब्लम” में रिश्तों के कमजोर होते हुए नेटवर्क हैं। “हजारों साल लंबी रात” में भूख से नींद न आने के कारण खाने की बात करते-करते रात काटने की करुण कथा है। शेष अन्य कहानियाँ “गुमराह रहनुमा”, “गैंडे का सींग”, “इकलौता पुत्र”, “एक जख्म और सही” तथा “प्रतिरोध” भी मानव व समाज की व्यथा-कथा हैं।
आदरणीय राम पाल श्रीवास्तव जी ने उर्दू व दो अरबी कहानियों के बेहतरीन अनुवाद व संपादन के साथ लेखकों को यह राह दिखाने का प्रयास किया है कि कहानियों के कालजयी होने का प्रथम सोपान उनका मानवीय मूल्यों का पक्षधर होना है। इसके साथ ही कहानियों की भाषा की सरलता, संप्रेषणीयता व सकारात्मकता पाठकों के हृदय में पैठ बनाती है।
राम पाल श्रीवास्तव जी स्वयं उर्दू के जानकार हैं इसलिए शब्दों में नुक्ता का यथास्थान प्रयोग हुआ है। राम पाल श्रीवास्तव जी को बधाई।
मुद्रण बहुत बढ़िया है। प्रूफ की त्रुटियाँ नहीं हैं। आवरण बहुत आकर्षक है। आवरण का डार्क ब्ल्यू रंग व स्त्रियों का पृष्ठ भाग चित्र, कहानियों के भूतकालीन होने को दर्शाता है। प्रकाशक को बहुत-बहुत बधाई।
पुस्तक “कहानियों का कारवाँ” निश्चित ही पाठकों का कारवाँ बनाती चलेगी, इस आशय के साथ कि हिंदी व उर्दू के बीच श्रेष्ठता की आपसी जंग नहीं है बल्कि दोनों ही भाषाएँ अपना-अपना सर्वश्रेष्ठ देने में सक्षम हैं। दोनों भाषाओं का बहुत बड़ा कारवाँ है जो यूँ ही सतत चलता रहेगा।
मधुर कुलश्रेष्ठ
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