संसार में प्रेम ही ऐसा परम तत्व है, जो जीवन का तारणहार है। यही मुक्ति और बाधाओं की गांठें खोलता है और नवजीवन का मार्ग प्रशस्त करता है। यह अलभ्य एवं अप्राप्य भी नहीं, जगत भर में बिखरा पड़ा है। तात्पर्य यह कि प्रेम की पाती हर जगह मौजूद है, शर्त यह है कि उसे बांचनेवाला चाहिए। निष्णात कवि, लेखक, उपन्यासकार एवं कथाकार धर्मपाल साहिल की सद्यः प्रकाशित कृति “प्रकृति के प्रेम पत्र” पढ़कर मुझे यही लगा कि मनुष्य ही उसे कहीं अधिक सलीके से बांच सकता है, लेकिन इधर उसका ध्यान कम होता है ! यद्यपि सभी प्राणियों में इसे कमोबेश बांचने की क्षमता रखी गई है, क्योंकि इसके अभाव में जीवन ही शेष नहीं बचता, मनुष्यता खो जाती और लामुहाला मानव पशुवत हो जाता है।
“प्रकृति के प्रेम पत्र” दरअसल लघु कविताओं का संग्रह है। प्रत्येक कविता दस पंक्तियों की है। इसको साहित्य की नव विधा माना जा रहा है।
मूर्धन्य साहित्यकार प्रो. रूप देवगुण ने उक्त पुस्तक की भूमिका में माना है कि यह विधा अपना स्थान बनाती जा रही है। उनके अनुसार, “इसका आंदोलन आजकल बहुत तीव्र गति से चल रहा है। इसमें हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान के लगभग 100 लघु कविताकार जुड़ चुके हैं तथा एक सौ पचास के आसपास लघु कविता संग्रह अस्तित्व में आ चुके हैं। ऐसे में हिंदी व पंजाबी के डॉ. धर्मपाल साहिल जैसे वरिष्ठ साहित्यकार का इस आन्दोलन से जुड़ना डॉ. साहिल का नहीं बल्कि इस विधा का सौभाग्य माना जाएगा।”
निश्चय ही डॉ. साहिल ने इस विधा की अपनी इस पहली पुस्तक में बड़ी ख़ूबसूरत बानगियां पेश की हैं। कवि यह मानकर चलता है कि प्रकृति के प्रेम पत्र को पढ़ने के प्रति मनुष्य का अपेक्षित रुझान नहीं पाया जाता। वह इसे नहीं पढ़ पाता।
कवि के शब्दों में –
धरती के काग़ज़ पर
समुद्र की मसि को
बादलों ने छिड़काया
हरियाली के अक्षर उगे
फूलों की पंक्तियां सजीं
बहारों के गीत गूंजे
प्यार की महक फूटी
प्रकृति के इस प्रेम पत्र को
धूप ने चूमा, चांदनी ने हृदय से लगाया
बस एक आदमी है जो इसे पढ़ नहीं पाया।
( “प्रकृति का प्रेम पत्र”, पृ. 13 )
प्रकृति से सहज प्रेम के लिए कवि मनुष्यता को प्रेरित करता है, ताकि वह अस्तित्व बचाए रख सके। मनुष्य के लिए यह आवश्यक भी है कि प्रकृति का संरक्षण करे। कवि ने इसे ये शब्द दिए हैं –
तू हवा बन कि धड़कनें चलती रहें
तू पानी बन कि धरती की प्यास बुझती रहे
तू धूप बन कि ठिठुरते जिस्मों को तपिश मिलती रहे
तू पहाड़ बन कि इन आंखों को
सुंदर नज़ारे मिलते रहें
हवा, पानी, धूप और पहाड़ों को
सभी करते हैं कितना प्यार
प्रिय, प्यार के लिए
सोलह श्रृंगार की नहीं
किसी की ज़रूरत बनने की ज़रूरत होती है।
( “ज़रूरत”, पृ.20 )
प्रकृति और प्रेम अन्योन्याश्रित एवं हेतुभूत हैं। एक के बिना दूसरे का जीवन अधूरा है। दोनों एक दूसरे में इस प्रकार रचे बसे हुए हैं कि कवि असमंजस में पड़ जाता है। उसका शब्दोद्गार कुछ ऐसा रूप ले लेता है –
सुबह-सुबह
सूर्य की पहली किरण के साथ
कलियां फूल बन रही हैं
भंवरे गुनगुना रहे हैं
पंछी चहचहा रहे हैं
अलसाई आंखों में
उभर रही है अविस्मरणीय आकृति
समझ नहीं आता
प्रकृति में है प्रेम
या फिर प्रेम में है प्रकृति।
( “प्रकृति और प्रेम”, पृ. 97 )
प्रकृति परिवर्तनशील है। उसके भी अपने ख़ाब होते हैं, वह भी सकारात्मक। उसके भी तरंगायित अरमान हैं, तभी तो यह रचना संसार है।
उसी की उर्मि वाणी का विश्व है। उसका निःसीम अंतर्मन है। कवि इस स्थिति को अपने शब्द देता है –
समन्दर ख़ुद को
बदलना चाहता है एक नदी में
नदी एक झरने में
झरना एक धारा में
धारा एक बूंद में
बूंद फिर बनना चाहती है बर्फ़
रचना चाहती है हवा में लिखे हर्फ़
सृजित करना चाहती है इंद्रधनुषीय इतिहास
भरना चाहती है किरणों से जीवन का निवास
भोगना चाहती है परिवर्तन का संत्रास।
( “परिवर्तन”, पृ. 49 )
प्रकृति का यही भाव जब मनुष्य उससे भलीभांति सीख लेता है, तो उसके मुखारबिंदु से ये शब्द फूट पड़ते हैं –
मन में है गुबार
कुछ
कहना चाहता हूं
ठहरा हुआ
पानी हूं
बहना चाहता हूं
झील से दरिया
हो जाना चाहता हूं
दूर बहुत दूर
निकल जाना चाहता हूं।
( “दूर बहुत दूर”, पृ. 60 )
पुस्तक की सभी लघु कविताएं अर्थपूर्ण और भावोत्पादक हैं। इनका मनोहारी लालित्य रुपक- उपमा से श्रृंगारित होकर गूढार्थ और दर्शनिकता लेकर कविता को नई उड़ान देने में सक्षम है। 107 पृष्ठीय इस पुस्तक का प्रकाशन अयन प्रकाशन, नई दिल्ली से 2024 में ही हुआ है। छपाई, काग़ज़ उम्दा हैं। आवरण चित्ताकर्षक है। रचनाकार को साधुवाद !
– Dr RP Srivastava
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मनोरम कल्पना और हृदयग्राही उपमाओं से सज्जित “प्रकृति के प्रेम पत्र”
Published by भारतीय संवाद on
संसार में प्रेम ही ऐसा परम तत्व है, जो जीवन का तारणहार है। यही मुक्ति और बाधाओं की गांठें खोलता है और नवजीवन का मार्ग प्रशस्त करता है। यह अलभ्य एवं अप्राप्य भी नहीं, जगत भर में बिखरा पड़ा है। तात्पर्य यह कि प्रेम की पाती हर जगह मौजूद है, शर्त यह है कि उसे बांचनेवाला चाहिए। निष्णात कवि, लेखक, उपन्यासकार एवं कथाकार धर्मपाल साहिल की सद्यः प्रकाशित कृति “प्रकृति के प्रेम पत्र” पढ़कर मुझे यही लगा कि मनुष्य ही उसे कहीं अधिक सलीके से बांच सकता है, लेकिन इधर उसका ध्यान कम होता है ! यद्यपि सभी प्राणियों में इसे कमोबेश बांचने की क्षमता रखी गई है, क्योंकि इसके अभाव में जीवन ही शेष नहीं बचता, मनुष्यता खो जाती और लामुहाला मानव पशुवत हो जाता है।
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