कविता क्या है ? यही ना, मनुष्य की असीम उत्कंठा की पूर्ति। गहन अभाव ही इसका बीज-तत्व है। निश्चय ही जब यह अभाव लोकोत्तर रूप ग्रहण कर लेता है, तब कवि अपनी अबोधपूर्वा स्मृति में डूबकर नए मोती तलाश कर काव्य रूप में प्रस्तुत कर पाता है। उसके डूबने की जितनी गहराई होती है, उतनी ही मूल्यवान उसकी कृति बन जाती है।

डॉक्टर ज्ञान सिंह मान ऐसे ही कवि हैं, जो अंतरतर तक उतार कविता रूपी मोती चुन लाते हैं और उसे सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। इस प्रकार उनकी प्रतीति यथार्थ बन जाती है एवं अनुभूत सत्य में परिवर्तित हो जाता है।
यद्यपि कवि ने कविताएं बहुत अधिक नहीं हैं। फिर भी जितनी लिखी हैं, उत्कृष्ट हैं। मान जी मूलतः उपन्यासकार हैं। उन्होंने लगभग दो दर्जन उपन्यास हिंदी साहित्य जगत को प्रदान किए हैं, जिनमें मृगतृष्णा ( पुरस्कृत ), सूना अंबर ( पुरस्कृत ), एक रथ छह पहिए ( पुरस्कृत ), खुलते बंद सीप, सूखी रेत के घरौंदे आदि। उन्होंने हिंदी, पंजाबी, और उर्दू में लगभग सत्तर पुस्तकें लिखीं।
उन्होंने 16 अक्तूबर 2002 को जब मुझ नाचीज़ को अपना काव्य संग्रह “एक सागर अंजलि में” प्रदान किया, तब तक उनके तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके थे। इनके नाम हैं – “अर्चन : नानक अर्चन” ( पुरस्कृत ), “एक वार्ता सूरज से” और “तुम वसंत हम पतझड़”।
उन्होंने मेरे काव्य संग्रह “यथाशा” की भूमिका लिखने की अनुकंपा की थी। उस समय आदरणीय मान जी गवर्नमेंट कालेज, लुधियाना के प्राचार्य थे। वे भारत सरकार की हिंदी सलाहकार समिति के सदस्य भी रहे। उनके जैसा सादा, सरल स्वभाव का हिंदी साहित्यकार मेरे जीवन में कोई और नहीं दिखा ! वे  27 जुलाई 2014 ई. को इस दुनिया से कूच कर गए। ऐसे सदपुरुष – सज्जन-यशस्वी- मनस्वी को शत शत नमन !
“एक सागर अंजलि में” कुल 36 कविताओं का संग्रह है। इनमें नए प्रतीक और अलंकार प्रयुक्त हुए हैं। यूं कहें तो अधिक उचित होगा कि इनका अर्वाचीन प्रयोग किया गया है। इस प्रकार कवि की अनुचेतना ने शैलीगत नवीन आयामों को प्राणवान किया है। यह प्रयोग पुस्तक की पहली कविता से लेकर अंतिम कविता तक मिलता है। पहली कविता के शीर्षक पर ही पुस्तक का नामकरण किया गया है। “एक सागर अंजलि में” में कवि की सुमधुर एवं कोमल कल्पना कुछ यों प्रत्यक्षीभूत हुई
है –
सूखे पत्तों
पर
जब जब कभी
कोई
पराग झरता है
मेरी अंजलि में
सहसा
एक सागर
उमड़ आता है।
दूर कहीं, जब
देव कन्याएं
मेघमालाओं पर
इंद्रधनुष रचती
हैं –
मेरी सूनी
अंजलि में
मेंहदी-सा रंग
उभर आता है।
( पृ. 11 )
राजनीति बड़ी बेढब और विद्रूप होती है। अगर यह भारत की हो तो क्या कहने ! सब अव्यवस्थाएं पलती रहती हैं, एक दूसरे को चाहने के चक्कर में। देखिए कवि के इस प्रतीक-अनुप्रयोग को –
हे राम
हाय राम
के नारों बीच
संसद भंग हुई –
एक बार
फिर से
चुनौती
नए दावे
फसली वादे
कौन किससे कहे
कौन किसकी सुने
क्योंकि
बात सिर्फ़
इतनी सी थी
मैंने
तुम्हें चाहा
तुमने
मुझे चाहा।
( “बात सिर्फ़ इतनी-सी थी”, पृ. 16 )
जब स्थिति यह है तो कवि का सहज रूप से यह प्रश्न करना वाजिब है कि “क्या हम स्वतंत्र हैं ?” कवि चिंतित है देशवासियों की स्वतंत्रता पर। उसका कहना है कि हम स्वतंत्र तो हो गए, लेकिन जो हमारा अमल है, वह स्वतंत्र नहीं होने देता, मानसिकता नहीं बदलने देता। कवि के शब्दों में –
दासता का
ज़हरीला सांप
फिर से भूखी
हड्डियों को
न नोच ले
कुछ लोगों को
रंगीन टी. वी. पर
मीठी बीन सुनवाते हैं
मोटा दरोगा
जेल की
तंग
सलाखों को
हर रोज़
बड़ी लगन से
साफ़ करता है
ताकि
भूले भटके
जय के
किसी प्रकाश को
अपने नारायण तक
पहुंचने में
दिक्कत न रहे
असुविधा न हो,
क्योंकि
हम सब स्वतंत्र हैं
आज़ाद हैं।
( पृ. 56, 57 )
कहते हैं, लोकतंत्र का विकृत रूप भीड़तंत्र हो जाता है, जिसमें जनता दलन का शिकार हो जाती है। शासन के नाम पर सब उलटा-पुलटा वजूद पा लेता है। कवि का यह चित्रण द्रष्टव्य है –
अब कोई भेद नहीं
रखते हैं,
सबके सब
एक ही
मार्ग के
एक ही नारे के
अनुगामी हैं
कहते हैं
सुनते हैं
बस यही
राष्ट्रगीत –
“हमें सिमेंट दो
प्याज़ दो
केरोसीन दो”
गीता ज्ञानी
कर्म कांडी,
सुबह से
दोपहर तक
लंबी कतारों में
गलते हैं
सड़ते हैं
सांझ ढले
लौटते हैं
फिर
ख़ाली हाथ।
( “कृष्ण के देश में”, पृ. 93 )
कवि ने देश की अन्यान्य समस्याओं में देशवासियों के बीच सद्भावना के सवाल को माना है। वह इसको शुद्ध घी के उन दो कनस्तरों की उपमा दी है, जो खचाखच भरी ट्रेन बिना टिकट खड़कते सफ़र करते हैं। ट्रेन अयोध्या की ओर जा रही है। ऐसा प्रतिभान होता है कि कवि का संकेत हिंदू-मुस्लिम सद्भाव की ओर है।
 “शुद्ध घी” शीर्षक कविता की इसी केंद्रीय तत्व पर आधारित कुछ पंक्तियां देखिए –
“भाइयो –
शुद्ध घी
रणनीति में
तो ज़रूर
उबलेगा
परन्तु
तुलसी दर्शन में
यह घी
क्या गुल खिलाएगा ?
इसके प्रति
जिज्ञासा है -“
बात सुनकर
दोनों कनस्तर
एक बार
पुनः खड़के
यात्रियों ने
धक्का खाया
और –
भारतीय सद्भावना रेल
एक ही
पटरी पर
दो भिन्न
दिशाओं को
समेटने के
प्रयास में
रेंगती जा
रही थी।
( पृ. 51,52 )
दिनमान प्रकाशन, दिल्ली से 2002 ई. में छपी यह पुस्तक 94 पृष्ठों की है, जिसमें प्रूफ की समस्या नगण्य है। बेहतरीन काग़ज़ पर यह सजिल्द छपी है। मूल्य सौ रुपए उस समय के लिहाज़ से अधिक लगता है।
– Dr RP Srivastava
Editor-in- Chief “Bharatiya Sanvad”

कृपया टिप्पणी करें