दत्तात्रेय से मिली गुरु – शिष्य परंपरा
– प्रदीप कात्यायन
भारतीय_संस्कृति में गुरू की बड़ी महिमा है |गुरू शिष्य परम्परा भारतीय संस्कृति के दर्शन का मूलाधार है। गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत गुरु अपने शिष्य को शिक्षा (गुर सिखाता है) देता है, बाद में शिष्य गुरु के रूप में दूसरों को शिक्षा देता है, यह क्रम चलता जाता है। यह परम्परा सनातन धर्म की सभी धाराओं में मिलती है। गुरु-शिष्य की यह परम्परा ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में है, जैसे- राजनिति,अध्यात्म, कला आदि।
भारतभूमि पर गुरू शिष्य परम्परा के कई प्रेरक उदाहरण मिलते हैं उनमें से एक है #एकलव्य का, जिसे अप्रतिम लगन के साथ स्वयं सीखी गई धनुर्विद्या और गुरुभक्ति के लिए जाना जाता है। #महाभारत के अनुसार एकलव्य ने गुरुदक्षिणा के रूप में अपना अँगूठा काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया था। एकलव्य द्रोणाचार्य को अपना मानस गुरू मानता था, वह द्रोण की आदमकद प्रतिमा के समक्ष प्रतिदिन अभ्यास करता था। कहते हैं कि अंगूठा कट जाने के बाद एकलव्य ने तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने लगा। यहीं से तीरंदाजी करने के आधुनिक तरीके का जन्म हुआ।
आज के आधुनिक युग में अक्सर लोग कहते हैं कि हमें गुरु की जरूरत नहीं है, गुरु नहीं बनाना है, गुरु क्या होते हैं? “गुरु है – लोहार और मनुष्य है लोहा” तो इस मनुष्य रूपी लोहे को गुरु रूपी लोहार जिज्ञासा रूपी आग में डालकर गर्म करते हैं, जब वह लोहा एकदम लाल हो जाता है तो लोहार उस लोहे को ज्ञान रूपी निहाई के ऊपर रख कर, सत्संग रूपी हथौड़े से मारना शुरू करता है, वह उस लोहे को बदलना शुरू करता है लोहा भी ऐसा कि ठंडा होकर अकड़ने लगता है, इसलिए कुशल लोहार चाहिए, जो तुरंत उसे फिर आग में रखे और गरम करे।
#कुलमिलाकर कहने का तात्पर्य है कुछ बनने कर गुज़रने के लिए गुरू का होना बहुत ज़रूरी है, चाहे वो कोई भी क्षेत्र हो। “कहत कबीर सुनो भाई साधो, गुरु बिन भ्रम न जासी” गुरू के परिश्रम और ज्ञान से लोहे का टुकड़ा लोहे का टुकड़ी नहीं रह जाता उसका नाम बदल जाता है | अगर वह चाबी बना तो उसका नाम लोहे का टुकड़ा नहीं, बल्कि ‘चाबी’ कहलाता है! अगर फावड़ा बन गया है, तो अब लोहे का टुकड़ा नहीं, बल्कि ‘फावड़ा’ कहलाता है |जीवन में कुछ कर गुजरने के लिए एक गुरू का होना आवश्यक है, ऋषि दत्तात्रेय के 24 गुरू थे | उनके 24 वें गुरू एक विषधर नाग थे ।