– अनुपम मिश्र
” अगर साध्य ऊँचा हो और उसके पीछे साधना हो, तो सब साधन जुट सकते हैं ”
. यह शीर्षक न तो अलंकार के लिये है, न अहंकार के लिये। सचमुच ऐसा लगता है कि समाज में काम कर रही छोटी-बड़ी संस्थाओं को, उनके कुशल संचालकों को, हम कार्यकर्ताओं को और इस सारे काम को ठीक से चलाने के लिये पैसा जुटाने वाली उदारमना, देशी-विदेशी अनुदान संस्थाओं को आगे-पीछे इन तीन शब्दों पर सोचना तो चाहिए ही। ये शब्द हैं साध्य , साधन और साधना |साध्य और साधन पर तो कुछ बातचीत होती है, लेकिन इसमें साधना भी जुड़ना चाहिए। साधन उसी गाँव, मोहल्ले, शहर में जुटाए जाएँ या कि सात समुंदर पार से आएँ, इसे लेकर पर्याप्त मतभेद हो सकते हैं। पर कम से कम साध्य तो हमारे हों। कुछ अपवाद छोड़ दें तो प्रायः होता यही है कि साधनों की बात तो दूर, हम साध्य भी अपने नहीं देख पाते। यहाँ साध्य शब्द अपने सम्पूर्ण अर्थ में भी है और काम चलाऊ, हल्के अर्थ में भी। यानी काम, लक्ष्य, कार्यक्रम आदि। पर्यावरण विषय के सीमित अनुभव से मैं कुछ कह सकता हूँ कि इस क्षेत्र में काम कर रही बहुत-सी संस्थाएं साध्य, लक्ष्य के मामले में लगातार थपेड़े खाती रही हैं। लोग भूले नहीं होंगे जब पर्यावरण के शेयर बाजार में सबसे ऊँचा दाम था सामाजिक वानिकी का। हम सब उसमें जुट गए, बिना यह बहस किए कि असामाजिक वानिकी क्या हो सकती है।

फिर एक दौर आया बंजर भूमि विकास का। अंग्रेजी में वेस्टलैण्ड डवलपमेंट। तब भी बहस नहीं हो पाई कि वेस्टलैण्ड है क्या। खूब साधन और समय इसी साध्य में वेस्ट यानि बर्बाद हो गया। बंजर जमीन के विकास का सारा उत्साह अचानक अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसके बदले हम सब फिलहाल वाटरशेड डवलपमेंट में रम गए हैं।
इस नए कार्यक्रम के हिंदी से सिंधी तक अनुवाद हो गए। जलग्रहण क्षेत्र शब्द भी चल रहा है, जलागम क्षेत्र भी। थोड़े देसी हो गए तो मराठी वालों ने पानलोट विकास नाम रख लिया है पर मूल में इस सबके पीछे एक विचित्र वाटरशेड की कल्पना ही है। ज्वाइंट फॉरेस्ट मैनेजमेंट दूसरा नया झंडा है। इसमें भी हमारी हिंदी प्रतिभा पीछे नहीं हैः संयुक्त वन प्रबंध कार्यक्रम फल-फूल रहा है। यदि हम अपनी संस्था को जमीन से जुड़ा मानते हैं तो हो सकता है हमें संयुक्त शब्द पर आपत्ति हो। तब हम इसे साझा शब्द से पटकी खिला देते हैं। नाम कुछ भी रखें, काम-यानी साध्य-वर्ल्ड बैंक का तय किया होता है। हिंदी में कहें तो विश्व बैंक। साधन भी उसी तरह की संस्थाओं से आ रहे हैं।
यह विवरण मजाक या व्यंग्य का विषय नहीं है। सचमुच दुख होना चाहिए हमें। इस नए काम की इतनी जरूरत यदि आ भी पड़े तो ‘जे.एफ.एम.’ यानी ज्वाइंट फॉरेस्ट मैनेजमेंट का काम उठाते हुए हमें यह तो सोचना ही चाहिए कि इस ज्वाइंट से पहले सोलो मैनेजमेंट किसका था। कितने समय से था। वन विभाग ने अपने कंधों पर पूरे देश के वन प्रबंध का बोझ कैसे उठाया, उस बोझ को लेकर वह कैसे लड़खड़ाया और उसकी उस लड़खड़ाहट की कितनी बड़ी कीमत पूरे देश के पर्यावरण ने चुकाई? ये वन समाज के किस हिस्से से, कितनी निर्ममता से छीने गए? और जब वनों का वह गर्वीला एकल वन प्रबंध सारे विदेशी अनुदानों के सहजे, संभाले नहीं संभला, तो अचानक संयुक्त प्रबंध की याद कैसे आई? पल भर के लिये, झूठा ही सही, एकल वन प्रबंधकों को सार्वजनिक रूप से कुछ पश्चाताप तो करना ही चाहिए था। क्षमा माँगनी चाहिए थी, और तब विनती करनी चाहिए थी कि: अरे भाई यह तो बड़ा भारी बोझा है, हमारे अकेले के बस का नहीं, पिछली गलती माफ करो, जरा हाथ तो बँटाओ।
साधन और साध्य का यह विचित्र दौर पूरी तरह उधारीकरण कर रहा है। जो हालत पर्यावरण के सीमित विषय में रही है, वही समाज के अन्य महत्त्वपूर्ण विस्तृत क्षेत्रों में भी मिलेगी। महिला विकास, बाल विकास, महिला सशक्तीकरण, बंधुआ मुक्ति, महाजन मुक्ति, बाल श्रमिक, लघु या अल्प बचत, प्रजनन स्वास्थ्य, गर्ल चाइल्ड… सब तरह के कामों में शर्मनाक रूप दिखते हैं। पर हम तो आँख मूँद कर इनको जपते जा रहे हैं। बुन्देलखण्ड में एक कहावत हैः चुटकी भर जीरे से ब्रह्मभोज। सिर्फ जीरा है, वह भी चुटकी भर। न सब्जी है, न दाल, न आटा। पर ब्रह्मभोज हो सकता है। साध्य ऊँचा हो, साधना हो, तो सब साधन जुट सकते हैं। हाँ चुटकी भर जीरे से ‘पार्टी’ नहीं हो सकेगी। यूरोप, अमेरिका की सामाजिक टकसाल से जो भी शब्द-सिक्का ढलता है, वहाँ वह चले या न चले, हमारे यहाँ वह दौड़ता है। यह भी संभव है कि इनमें से कुछ काम ऐसे महत्त्वपूर्ण हों जो करने ही चाहिए। तो भी इतना तो सोचना चाहिए कि हम सबका ध्यान इन कामों पर पहले क्यों नहीं जाता? सामाजिक कामों के इस शेयर बाजार में सामाजिक संस्थाओं के साथ-साथ सरकारों की भी गजब की भागीदारी है।

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