[ 1 ]
आज फिर उसी तिराहे पर खड़ा हूँ
जहाँ से जीवन शरू हुआ
जहाँ पला – बढ़ा 
धूप की प्रचंडता देखी
शीतल समीर के साथ
छांव में लिपटी
कुहासे की चादर ओढ़े
सोयी रहती थी वह
मेरा जीवन , मेरी लय , मेरी गति थी …. . …
वह जीवनदायिनी !
एक नदी थी
जो नवगजवा से बहती थी
अभी तो अर्द्ध शती
भी नहीं बीती !!
कहाँ है वह ?
कहाँ है उसकी निर्मल धारा
जो थी सबका सहारा
जानता हूँ
अब तू नहीं बहती
तेरा पानी जम चुका है
ऊपर से सड़ांध
नाले में तब्दील होकर भी
तेरा यह हाल है !?
और तेरी भवितव्य
संतति का ???वह नदी थी जो
सुखद
स्मृति – बोध कराती है
कहाँ है वह
अपनी थाती ?
जिस पर सवार होता था मैं
बालमन के सपने बुनता था !
…………..क्या य़े गीली लकड़ियाँ हैं
नाले का परवर्ती रूप ?
आज कुछ ऐसी ही
कल्पना के सहारे खड़ा हूँ !
और य़े लकड़ियाँ …..
सुलगती हुई
मेरे विचारों की तरह ,
बौनी पड़ती .
शायद इनका भी पानी मरने वाला है ? !
———–
इन घनेरे वृक्षों की छांव
जहाँ अब पथिक नहीं
रेतीले भहराए तट हैं …..
दूर -दूर तक …
नदी के कंकाल को
मैं साफ़- साफ़ देख रहा हूँ
नीर नहीं …. समीर नहीं
दोनों काले / ज़र्द पड़ गए हैं !
अस्थि भी ऐसी नही कि
अंतिम संस्कार हो !
बस त्राहिमाम , बस त्राहिमाम
औपचारिकता निभा लेता हूँ
उसके साथ …
जो समय के साथ सूख गयी ….
उन विचारों की तरह
जो सदक्रांति लाते थे .

[ 2 ]

सूखी नदी का यह दूर तक फैला गवाक्ष
कभी यहाँ होते थे
फरेंद के हरे – भरे पंक्तिबद्ध वृक्ष !
अपनी सन्तति से लदे हुए
चन्द्रकान्ता सदृश
इतने कि पत्ते कम ही दीखते थे /
मैं एक डाल से दूसरी डाल पर जाता
चुटकी बजाते /
कपि सदृश
कुछ खाता – कुछ फेंकता
कुछ नदी के प्रवाह को देता
जिसे लेकर वह चला जाता
मैं देर तक / उच्छिष्ट को निहारता रहता
फरेंद को कदंब समझते हुए ……
सखियों और सखाओं के साथ
पूरा दिन यूँ बीत जाता /
जैसे समय पंख लगाकर उड़ गया हो
——-
वैसा आनन्द अब कहाँ ?
‘ सेखुली ‘ जैसा ….
नज़र लग गयी इस पर
वन माफ़िया की —
नहीं बची ‘ सेखुली ‘
‘ दामिनी ‘ की तरह !
नदी सूखने के साथ
यह भी सूख गई
वृक्षों की यह प्रजाति ही चली गई
गूलर पुष्प बनकर …..
प्रकृति के दोहन – हनन से रो रही है
‘ सेखुली ‘ की मिट्टी /
उसके जीवन पर जीवन
बीतते जा रहे हर पल /
इस थिर विश्वास के साथ कि
वह आएगा … वह आएगा
ज़रूर आएगा !

लाएगा वही दिन ….
यह जानते हुए कि
हर दिन नया होता है
गुज़रा कल , कल ही होता है
दोबारा आने के लिए नहीं होता …
पर क्या करें इस विश्वास का ?
जो पर्वत – सा सामने खड़ा है /
साक्षात पर्वत है !
हिमालय की शैवालिक वल्लरियों से घिरा हुआ …
यह अप्रतिम शान है
इसकी थाती पर मेरे जैसों के
अरमानों के नित नए पुष्प खिलते हैं …..
और खिलते रहेंगे !
…….
हों कितने ही संहार
कितनी बार आए प्रलय !
कितने हों विनाश !
संहार ही संहार हो
‘ सेखुली ‘ नष्ट होकर भी
मेरे सामने आ खड़ी है …
विनष्टता उसकी प्रकृति कहाँ
वह भारत की ‘ दामिनी ‘ है
मनुष्य – संहार पर
वह मनुष्यता की स्वामिनी है ….
कहने लगी —
तुम लोग मुझे मृत मत समझो !
यह ज़रूर है कि
फरेंद की जिस डाल पर तुम्हारा बसेरा था
उस पर ही बैठकर तुम कालीदास बन गए !
मगर यह वृक्ष तो अजर – अमर है /
भारत है
बार – बार कटकर भी नहीं कटता !
नहीं सूखता ..
अपने रूप को खोकर भी जीवंत रहता है !
अखंड , अक्षुण्ण रहता है
और रहेगा
नदी सूखती ही रहती है …..
उसकी जड़ों तक पहुंचने के लिए
उसे अजस्र ऊर्जा देने के लिए !
……..
आज क्या है मेरे पास ?
न वह डाल है , न पात
किन्तु फल की आस है
सुदृढ़ विश्वास है …
जो कभी धराशाई नहीं होता
क्षण – भंगुरता इस पर छाती नहीं !
मेरे स्थिर – भाव कभी नहीं सूखते
न कभी सूखेंगे …..
हर क्षरण के बाद सृजन होता है …
अनवरत …. अनन्तकाल
एक नदी सूखती है
दूसरी प्रवाहित होती है …..
जीवन / प्रकृति का यही दस्तूर है /
यही उसके सयानेशान है !!!
[ 3 ]
कितना सुखद
आह्लादकारी काल !
सूखी नदी से …
जलधारा का पुनर्प्रस्फुटन
वह भी
वर्षों / दशकों नहीं
शताब्दियों बाद
पुनर्जन्म
शस्य सलिला का
शस्य श्यामला पर !
स्वागत है आपका
अभिनंदन है आपका
अहो भाग्य !!
आपका पुनरागमन !!!
क़ायल हो गए हम
आपकी कल्याण – भावना का
धन्य हैं आप
कृतज्ञ हैं , हम सब आपके
आप महाउपकारक हैं
हमने तो अपराध ही किए
प्रदूषण फैलाए
आपमें गंदगियाँ डालीं
किन्तु आपका यह उपकार
महान उपकार !
” कृते प्रत्युप्कारे यो वणिग् धर्मो न साधुता ”
से बहुत परे
” सर्वे भवन्तु सुखिनः ”
की प्रबल इच्छा
” सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ”
की सतत साक्षी बनकर
नव क्षितिजों की चाह में
सबको संतृप्त करने की
तीव्र उत्कंठा लेकर
बारम्बार स्वागत है आपका
शुभागमन , सुस्वागतम !!
लोकवासियों की ओर से
तेरे देशवासियों की ओर से
जो हैं तेरे परमप्रिय देश के
एक सुप्रिय भू – भाग के
एक शासन – प्रशासन के
एक ‘ दरीचे ‘ के
एक धरती के
एक शैवालिनी के
जो हम सबमें बहती हैं
शताब्दियों से
लुप्त होकर भी
जो प्रवहमान थी
तभी हम ज़िन्दा थे
आगे भी ज़िन्दा रहेंगे
अहो महाभाग्य हमारा !!!

– राम पाल श्रीवास्तव ‘ अनथक ‘

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