हमारे देश में गरीबी के आंकडे बड़े भयावह हैं | यहाँ की 22 फ़ीसद आबादी गरीबी – रेखा के नीचे गुज़र – बसर कर रही है | 265 मिलियन लोग बेहद गरीब हैं | एक प्रमुख न्यूज़ चैनल द्वारा प्रसारित आंकड़ों के अनुसार , इन गरीबों में 142 मिलियन लोग एक – दूसरे से सटे पांच राज्यों – उत्तर प्रदेश , बिहार , झारखंड , मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में रहते हैं | जितने गरीब छत्तीसगढ़ [ 10 . 4 मिलियन ] में हैं , उतने ही गरीब गुजरात [ 10 . 2 मिलियन ] में हैं | बिहार में गरीबों की संख्या 35 .8 मिलियन है , जबकि कर्नाटक , आंध्रप्रदेश , तमिलनाडु और केरल में कुल 31 . 5 मिलियन लोग गरीबी की रेखा के नीचे रहनेवाले हैं | यह सच है कि गरीबी के आंकड़ों की असलियत और सच्चाई पर बार – बार उठनेवाले सवालों के बावजूद देश की गरीबी और बदहाली को छिपाया नहीं जा सका है | हाल के सर्वेक्षणों में यह बात नुमायाँ तौर पर सामने आ रही है कि 1991 में तत्कालीन कांग्रेस नीत केंद्र सरकार ने जो आर्थिक उदारीकरण प्रक्रिया शुरू की थी , उसका गरीबी बढ़ानेवाला घातक परिणाम आज ही सामने आ रहा है , क्योंकि किसी भी सरकार ने इस पर रोक नहीं लगाई है | भाजपा जब केन्द्रीय सत्ता से बाहर थी , तो उदारीकरण के विरुद्ध बोलती थी , लेकिन सत्ता पाते ही उसकी बोलती बंद ही नहीं हो गई , उसके ख़ुद के क़दम प्राथमिकता के साथ उदारीकरण की ओर ही बढ़ते जा रहे हैं !
हमारा देश ग्राम प्रधान देश है , इसलिए कहा जाता है कि देश की आत्मा गांवों में बसती है | अतः देश की गरीबी में कमीबेशी का सीधा प्रभाव ग्रामीणों पर पडता है | देश की 125 करोड़ आबादी में से गांवों में रहनेवाले 70 फीसद लोगों के लिए गरीबी जीवन का कडुवा सच है | यह बात भी सौ फीसद सच है कि ग्रामीण भारत उससे अधिक गरीब है , जितना अब तक आकलन किया गया था | झूठे सर्वेक्षणों से बार – बार ग्रामीण भारत की भी गलत तस्वीर सामने आती रही है | एक सर्वेक्षण के अनुसार , ग्रामीण क्षेत्रों में कमानेवाले लोगों में से 75 फीसद की महीने भर की अधिकतम आय पांच हज़ार रूपये से अधिक नहीं है | 51 फीसद परिवार मानव श्रम पर निर्भर हैं | यही उनकी आय का प्राथमिक स्रोत है | हमारे देश के ग्रामीण विकास के जो भी बढ़ – चढ़ कर दावे किए जा रहे हैं , उनमें अधिक सच्चाई नहीं है | सर्वेक्षण में पाया गया कि विगत वर्षों में विकास की चाहे जितनी बातें हुई हों , गांवों में गरीबी की जडें गहरी बनी हुई हैं | उल्लेखनीय है कि मुख्यधारा के अर्थशास्त्रियों और नीति – निर्धारकों ने ग्रामीण गरीबी को ढांकने – छिपाने की नाकाम कोशिश की है ! सुप्रीमकोर्ट ने कुछ ही वर्ष पहले इन्हीं आंकड़ों पर सवालिया निशान लगाया था और पूछा था कि गरीबों की संख्या निर्धारित करने के क्या आधार हैं ? इससे पहले किसी ने कृत्रिम रूप से नीचे रखी गई गरीबी रेखा कभी उँगली नहीं उठाई थी | उस समय तत्कालीन योजना आयोग उन लोगों को गरीब बता रहा था , जो शहरी इलाक़ों में रोज़ाना 17 रूपये और ग्रामीण इलाक़ों में रोज़ाना 12 रूपये खर्च कर रहे थे | शीर्ष अदालत ने कहा कि ‘ यहाँ दो भारत नहीं हो सकते | ‘ अदालत ने ये तीखी टिप्पणियां पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज की जनहित याचिका की सुनवाई करते समय कीं थीं। उसने हरेक राज्य में बीपीएल परिवारों की संख्या 36 फीसदी तय करने के पीछे योजना आयोग के तर्को को जानना चाहा था । शीर्ष कोर्ट ने जानना चाहा कि 1991 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर 2011 के लिए यह प्रतिशत कैसे तय कर लिया गया ? वास्तव में यह सवाल बार – बार खड़ा होता है कि एक ओर देश तरक्की कर रहा है , दूसरी ओर गरीबों की संख्या काबू में क्यों नहीं आ पा रही है ? – RP Srivastava

कृपया टिप्पणी करें

Categories: खासमखास