– डॉ. चन्द्रेश्वर [ एम एल के कालेज , हिंदी विभाग, एसोशिएट प्रोफेसर /कवि-आलोचक , बलरामपुर , उ. प्र. ]
मैं पहली जुलाई 1996 से रहने लगा था बलरामपुर में | कॉलेज में मुख्य परीक्षाएँ चल रही थीं | प्राचार्य थे डॉ. बंश गोपाल साही | मुख्य नियंता थे श्री सूर्यनारायण त्रिपाठी | उन दिनों कोई 85 से 90 के आसपास स्थायी शिक्षकों की संख्या रही होगी| मैं इनमें सबसे जूनियर था | किसी ऐसी संस्था में जूनियर होने का सुख भी अतुलनीय और अकल्पनीय था| उन दिनों मेरे पास मोबाइल नहीं था | जब प्राचार्य डॉ.साही साहब को मुझसे संपर्क करना होता तो वे अपने पिउन से मेरे आवास पर पत्र भिजवाते थे| उन्होंने कभी मुझसे रौब में या गुस्से में बात नहीं की होगी|उनका स्वभाव सौम्य-मृदुल था| वे बॉटनी के प्राध्यापक थे| वे हिन्दी के कुशल वक्ता भी थे| उनको पहली बार मैंने सुना था संस्थापक समारोह के मंच से,1997 की सात जनवरी को ही| वे बीएचयू के प्रोडक्ट थे| दुबले-पतले और दरम्याना क़द के गोल सुंदर मुखाकृति वाले साहि साहब मुझसे बराबर कहते थे कि मिस्टर पांडे ,आप अपना काम लगन के साथ कीजिए|मेहनत से पढ़ाते रहिए|न पढ़ाने वाले को दिमाग़ से बाहर निकाल दीजिए| उन दिनों उनके मुख्य सलाहकार या रणनीतिकार थे डॉ.एस एन त्रिपाठी ही|श्री त्रिपाठी जी बीएड के प्राध्यापक थे|डॉ.साहि देवरिया जनपद से थे तो त्रिपाठी जी जौनपुर से|अभी दोनों सम्मानित जन रिटायरमेंट के बाद भी पारिवारिक और सामाजिक जीवन में सक्रिय हैं|त्रिपाठी जी भी मिलनसार और मृदुल स्वभाव के थे|मैं पहली जुलाई1996 को अपनी ज्वॉयनिंग के बाद सबसे पहले त्रिपाठी जी से ही मिला था|उन्होंने पहले दिन ही आश्वस्त कर दिया कि आपके सामने किसी तरह की कठिनाई नहीं आयेगी|मन लगाकर हिन्दी साहित्य का अध्यापन कार्य कीजिए|मैं अगले एक-दो रोज़ में उनके घर भी आने-जाने लगा|उनकी धर्मपत्नी को जो अब दिवंगत हैं ,मैंने चाची जी संबोधन दिया था|वे बहुत ही मिलनसार और व्यवहारकुशल महिला थीं|वे चाय-पानी या नाश्ता के लिए हमेशा तत्पर रहतीं|जब वे 1997 में ही लखनऊ में मकान बनाने के लिए कमता की ज्ञान विहार कॉलोनी में प्लॉट ले रही थीं तो उन्होंने मेरी पत्नी को भी प्रेरित किया था|यह उनके स्नेह का ही सुफल है कि आज लखनऊ में एक मुझ जैसे बेहद लापरवाह और दिन-रात कविता में ही सर खपानवालेे व्यक्ति का भी ठिकाना है|बहरहाल,जुलाई 1996 में ही मेरा संपर्क केमेस्ट्री के प्रोफेसर डॉ.सुभाष बाबू शर्मा से हुआ था|तब मैं कॉलेज के ही सामने बालार्क होटल में एक कमरा लेकर रह रहा था|शर्मा जी ने मुझे कॉलेज की मुख्य परीक्षा में कमरे में कक्ष निरीक्षक की ड्यूटी के दौरान ही इकोनॉमिक्स का फंडा समझाया और एलआइसी की पॉलिसीज के बारे में भी|मैं उनसे मिलने के पहले दिन से ही उनके साथ रहने लगा|वे अकेेले ही शिक्षक आवास में रहते थे|उनका परिवार लखनऊ में था|मैं शर्मा जी को अपने परिवार के लिए समर्पित एक दुर्धर्ष योद्धा और कर्मयोगी मानता हूँ|मेरा परिवार बलरामपुर में आया अगस्त में तबतक मैं उनके साथ रहा|उनके साथ कुछ दिनों तक रोज़ाना खिचड़ी पकाकर खाने का सौभाग्य मुझे भी मिला था|मुझे लखनऊ में बसाने की एक बड़ी प्रेरक भूमिका उनकी भी रही है|उनको मैं अपना लोक प्रशिक्षक और गुरु मानता हूँ| कॉलेज में उनके सबसे ज़्यादा अंतरंग थे केमेस्ट्री के ही प्राध्यापक डॉ. महेन्द्र कुमार सिंह|दोनों ही ख़ाली समय में साथ होते थे|डॉ.महेन्द्र सिंह पूरब में गोरखपुर के थे तो शर्मा जी पश्चिम में आगरे के पास के|उनके पड़ोस में ही रहते थे बॉटनी के लोकप्रिय और सरल-सहज प्राध्यापक डॉ.दयाशंकर शुक्ल|उन्होंने ही मुझे बाद में कॉलेज की पत्रिका ‘ अरुणाभा’ के संपादन से जोड़ा|वे उन दिनों इसके प्रधान संपादक थे| मेरे कॉलेज में 1996 की जुलाई में आने के बाद इसका प्रकाशन कई वर्षों से स्थगित था|पुन:पहली बार 2001-2002 में मेरे संपादन में इसका प्रकाशन आरंभ हुआ|तब डॉ.ओपी मिश्र नए प्राचार्य होकर आयोग से आए थे|
कॉलेज की पत्रिका ‘अरुणाभा'(2001-2002) का मेरे संपादन में प्रकाशित अंक मुख्यरूप से हिन्दी साहित्य पर केन्द्रित था|इस अंक के तीन हिस्से थे|पहले खंड में देश की नयी- पुरानी पीढ़ी के प्रसिद्ध लेखकों की अन्यत्र पत्र -पत्रिकाओं में पूर्व प्रकाशित रचनाएँ साभार शामिल की गयी थीं|जहाँ तक मुझे स्मरण है कि इसमें नामवर सिंह, विजयदान देथा, विष्णुकांत शास्त्री, शिवकुमार मिश्र, विश्वनाथ त्रिपाठी, अशोक वाजपेयी ,ज्ञानरंजन,रमेश उपाध्याय, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, असद जैदी , ,उदय प्रकाश ,विष्णु नागर, अरुण कमल, बद्रीनारायण आदि की आलोचनात्मक टिप्पणियों,कहानियों और कविताओं को शामिल किया गया था|दूसरे खंड में बलरामपुर नगर और जनपद के कवियों -शायरों की रचनाओं को शामिल किया गया था जिसमें अली सरदार जाफरी, बेकल उत्साही, हरिशंकर लाल श्रीवास्तव ‘खिज़्र’,आदित्य कुमार चतुर्वेदी, शिवनारायण शुक्ल, ईश्वर शरण ‘सरन’, उदय प्रताप सिंह ‘धीर ‘,सुरेन्द्र विमल, शांतिप्रसाद मिश्र ‘मधुकर’, अंजुम इरफानी, अकबर अहमद रिज़वी’असर’, अरुण प्रकाश पांडेय, मंसूर अहमद, अनिल गौड़, प्रकाश चंद्र गिरि के अलावा एकदम नए रचनाकार कुमार अनुपम, नीरज, अभिषेक मिश्र, ज्ञान प्रकाश चौबे, बृजेश मणि त्रिपाठी,दिव्यांशुधर द्विवेदी ,आशीष वर्मा, रविशंकर मौर्य, अनिरुद्ध मौर्य, नीरज पांडेय के साथ कुछ और नए रचनाकार थे| इनमें कई नवोदित रचनाकार कॉलेज के नियमित छात्र भी थे |इनको कहीं भी पहली बार छपने का अवसर मिला था|संभव है इनमें एकाध अपवाद हों, कह नहीं सकता! तीसरे खंड में कॉलेज के छात्रों की रचनाओं को शामिल किया गया था| यह अंक जब प्रकाशित होकर आया तो काफी चर्चाओं और विवादों में रहा|इसमें भोजपुरी के कालजयी राष्ट्रीय गीत ‘बटोहिया ‘ को भी शामिल किया गया था|तब इसका विरोध हुआ यह कहकर कि अवधी क्षेत्र में भोजपुरी ही क्यों? उस समय क्या पता था कि यह कॉलेज एक नए विश्वविद्यालय सिद्धार्थ विश्वविद्यालय से संबद्ध हो जायेगा और एमए हिन्दी,प्रथम वर्ष में एक पेपर भोजपुरी साहित्य का होगा!मैंने पूरी मेहनत के साथ यह अंक निकाला था|पर मुझे तारीफ़ कम मिली थी और विरोध का सामना ज़्यादा करना पड़ा था| उन दिनों नगर के कई पुराने और नए लेखक हर हफ़्ते शाम को मेरे कॉलेज क्वार्टर पर रचनाएँ सुनाने आते थे|बहराइच से कभी -कभी शत्रुघ्न लाल भी आ जाते थे|उन दिनों मेरी रचनाएँ कई पत्र -पत्रिकाओं में छप रही थीं| मेरी रचनाओं के प्रकाशित होने का वह सिलसिला अब भी जारी है |बलरामपुर में साहित्य की एक नयी ज़मीन निर्मित होने लगी थी|नगर के कुछ मैगज़ीन कॉर्नर्स पर’ हंस ‘ की कुछ प्रतियाँ आती थीं |मैंने अन्य कई पत्रिकाओं –‘कथन’,’तद्भव ‘,’वसुधा’, ‘उद्भावना ‘आदि को रखवाना शुरू किया|एक नया माहौल बनने लगा|उन्हीं दिनों नगर की पुरानी साहित्यिक संस्था ‘साहित्य मंडल ‘ का पुनर्गठन हुअा था| अब भी इस संस्था का मैं उपाध्यक्ष हूँ|हालाँकि इधर फिर इस संस्था की गतिविधि कमज़ोर पड़ी है और रजिस्ट्रेशन के चक्कर में इसका नाम ‘साहित्य संगम ‘हो गया है|असल में बलरामपुर मंचीय किंतु स्तरीय कवियों और शायरों की जगह रही है| इनके साथ कविता पर निरंतर बातचीत करते हुए मुझे यह एहसास हुआ कि समकालीन कविता का वर्तमान शिल्प कविता को लोकप्रिय या जनप्रिय बनाने के लिए नाकाफी है|मेरी कविता में कहन और भाषा -भाव की सादगी और सहजता बहुत कुछ इस ज़मीन की देन है|इस इलाक़े में कविता में छंद और गेयता के प्रति आग्रही कवियों की तादाद ज़्यादा है|मेरा विकास उनके साथ निरंतर संवाद से ही हुआ है|इधर लखनऊ जब से रहना शुरू किया है यह संवाद कमज़ोर पड़ा है और जो कवि जीवित हैं उनकी सोशल मीडिया पर सक्रियता बढ़ी है|उपरोक्त कवियों में आदित्य कुमार चतुर्वेदी, बेकल उत्साही, मधुकर जी, विमल जी, धीर जी, खिज़्र जी, सरन साहब, शिवनारायण शुक्ल, असर साहब ,अंजुम साहब आदि अब इस दुनिया से विदा ले चुके हैं |जब मैं बलरामपुर में आया था तो कितना भरा -भरा लगता था ये शहर|अब इन कवियों -शायरों के न होने से इक वीरानी -सी नज़र आती है मुझे| बाज़ार और सियासत को भले वो वीरानी या वो उजाड़ न दिखे पर मुझे साफ़ दिखता है|यह शहर भी देश के बाक़ी छोटे शहरों की तरह अदब के लिहाज़ से एक मरता हुआ शहर है!
बलरामपुर में एमएलके कॉलेज की विशिष्ट पहचान है|इस संस्था की इस इलाक़े के हर वर्ग के लोगों के बीच अद्भुत साख रही है|इसी नाते इसमें पढ़ाने वाले शिक्षकों को भी लोग सम्मान की नज़र से देखते रहे हैं |शहर में बाज़ार के व्यवसायी वर्ग के लोग भी बाहर से नये आए शिक्षकों को तब 1996 के आसपास अच्छा रिस्पॉन्स देते थे|मुझे अब भी अच्छी तरह से याद है कि नौकरी की ज्वॉयनिंग के दो-चार दिन बाद ही मैं एक पुराने समाजशास्त्र के लोकप्रिय शिक्षक श्री विद्यापति तिवारी के साथ शाम को टहलते हुए बाज़ार की तरफ़ गया|तिवारी जी को कुछ कपड़े लेने थे |वे मुझे गुड़मंडी से थोड़ा आगे पश्चिम की तरफ़ दायें इंद्रलोक वस्त्रालय में ले गए |इसके मालिक थे इंद्र गुलाटी|वे साँवले और कुछ स्थूलकाय थे|उनकी पारखी नज़र ने तुरंत भाँप लिया कि मैं कॉलेज का नवागंतुक शिक्षक हूँ|उन्होंने कहा कि पैंट -शर्ट के कपड़े आप भी ले लें|जब मैंने कहा कि अभी मेरे पास पैसे नहीं हैं तो गुलाटी जी ने कहा कि इसका हिसाब बाद में होता रहेगा |वे बहुत ही विनम्र और उदार व्यवसायी लगे थे मुझे |उनकी सजन्नता और व्यवहारकुशलता का बाद में मैं इतना मुरीद हुआ कि बराबर उनसे ही कपड़े लेता रहा|अब इस दुनिया में न तो विद्यापति तिवारी हैं ना ही गुलाटी जी|अब यहाँ के बाज़ार में भी जो नयी पीढ़ी आयी है वो उधारी देने में हिचकिचाहट दिखाती है|उसमें वो बात नहीं रही |इसी तरह यहाँ सिंधी की किराना की दूकान बहुत प्रसिद्ध और लोकप्रिय है|वे खाने-पीने की अच्छी सामग्री रखते हैं |इसके मालिक जयदेव सिंधी भी बहुत सज्जन, व्यवहारकुशल और सरल व्यक्तित्व के थे|उन्होंने वेतन नियमित न मिलने की स्थिति में उधारी सामान देने में कभी संकोच नहीं प्रकट किया होगा |अब वो भी इस दुनिया से विदा ले चुके हैं|उनका व्यवसाय अब उनके बेटे संभाल रहे हैं |बलरामपुर राजा का बसाया हुआ एक सुव्यवस्थित नगर रहा है|यहाँ सब्जीमंडी, गुड़मंडी से लेकर घासमंडी तक है|यहाँ अच्छे बढ़ई ,लोहार, सोनार, दरज़ी, नाई मिल जाते हैं |यहाँ मिठाई की दूकान में राम और बिहारी ज़्यादा लोकप्रिय हैं|यहाँ स्कूल और इंटर कॉलेजों की भी बहुतायत रही है|यह शहर शिक्षा के एक बड़े केन्द्र के रूप में भी जाना जाता है |यहाँ के इंटर कॉलेजों के कई योग्य शिक्षक लोक प्रसिद्ध हैं|यहाँ के डीएवी इंटर कॉलेज के श्री हरिशंकर लाल श्रीवास्तव’ खिज़्र ‘जो मशहूर कवि और शायर भी थे ,को अँग्रेज़ी पढ़ाने में अद्भुत लोकप्रियता मिली थी|वे बाद में अपने गाँव महादेवा के प्रधान भी रहे|खिज़्र साहब का अमूल्य स्नेह मुझे मिला था|वे मेरी कई कविताओं के प्रशंसक थे|वे नए विचारों और अभिव्यक्ति की नयी शैलियों के भी समर्थक थे|मेरी निगाह में उनका वो ही स्थान रहा है जो रामकथा के नायक राम की निगाह में जामवंत का रहा है |उन्होंने मुझे कई ग़लत और खलपात्रों को लेकर बार -बार आगाह भी किया था|मैं दो-तीन बार कविता पाठ के लिए उनके निमंत्रण पर उनके गाँव भी गया|वे बेहद मेहमाननवाज़ इंसान भी थे|उनके यहाँ की खाई गयी प्याज, गोभी, बैंगन की बेसन में लिपटी गर्म पकौड़ियों का स्वाद मैं अब भी भूल नहीं पाया हूँ |उनके यहाँ के सोंधे दूध की चाय का स्वाद भी लाजवाब होता था| वे काव्य पाठ के दौरान दो-तीन राउन्ड चाय पिलाते थे|ऐसे अवसरों पर जहाँ कवियों -शायरों का जमावड़ा हो तो उनकी उदारता देखते बनती थी |धन्य थे ऐसे लोग!इसी तरह अँग्रेज़ी के एक बड़े विद्वान और कवि अरुण प्रकाश पांडेय भी आदर्श इंटर कॉलेज में ही प्राचार्य रह चुके हैं और रिटायरमेंट के बाद भी लगातार लिख -पढ़ रहे हैं |वे बलरामपुर के खलवा मुहल्ले में रहते हैं|वे ही वर्तमान में ‘साहित्य मंडल’ यानी ‘साहित्य संगम’ के अध्यक्ष भी हैं|आप लगातार काव्यचर्चा में ही समय व्यतीत करते हैं और सेकुलर विचारों के व्यक्ति हैं|आपकी एक काव्य की पुस्तक अँग्रेज़ी में है–‘लक्ष्मण गोज़ टू फॉरेस्ट ‘और एक हिन्दी में काव्य कृति है ‘बिखरे पल ‘|मैंने इसकी एक छोटी -सी भूमिका भी लिखी है |अभी अरुण प्रकाश पांडेय जी बलरामपुर के एक ऐसे साहित्यकार हैं जो पुरानी और नयी पीढ़ी के कवियों और शायरों के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी की तरह हैं|आपकी स्मृति बहुत ही तीक्ष्ण है|आपके पास अनुभवों और संस्मरणों का बहुमूल्य खजाना है|आपके संपर्क में हिन्दी और उर्दू के सब रचनाकार रहते हैं |आप वास्तव में नगर में गंगा -यमुनी संस्कृति के प्रतिनिधि व्यक्ति और रचनाकार हैं|आप भी मेहमाननवाज़ी में सदैव तत्पर और आगे रहते हैं|आपके यहाँ जब भी कोई बैठक होती है बार -बार कुछ अच्छे व्यंजन खाने को मिलते हैं|चाय का कई राउन्ड आपके यहाँ भी चलता है |आपकी धर्मपत्नी, आपके सुपुत्र और पोते या पोती सब आपके प्रति बेहद आदर और सम्मान का भाव दर्शाते हैं |आप एक विवादरहित और सामाजिक व्यक्ति हैं|यहाँ के नामचीन कवियों -शायरों में स्वर्गीय सुरेन्द्र विमल भी डीएवी इंटर कॉलेज में ही हिन्दी के शिक्षक थे|वे सरापा कवि थे|उनकी एकमात्र काव्यकृति ‘ग़ज़लनुमा ‘का प्रकाशन योगेश श्रीवास्तव के सौजन्य और सहयोग से 2002 या 2003 में हुआ था|अब योगेश जी स्थायी रूप से कानपुर में रहने लगे हैं और तुलसी पार्क में स्थित उनका पैतृक मकान भी बिक चुका है|उनसे फेसबुक के ज़रिए निरंतर संवाद होता रहता है |एक बार जब मैंने विमल जी से पूछा कि अच्छी कविता कैसी होती है तो वे बोले थे कि जो भावपूर्ण और संवेदनापरक हो|बलरामपुर के कवियों और शायरों का मिज़ाज़ ज़्यादातर गैरसियासी ही रहा है|यही बात मुझसे पद्मश्री बेकल उत्साही ने भी एक इंटरव्यू के दौरान कही थी कि कविता और शायरी को सियासत से दूर रहना चाहिए|वे इसी नाते जनवादी शायर अदम गोंडवी को दिल से स्वीकार नहीं करते थे|यहाँ के कवियों और शायरों का मिज़ाज़ क्लासिकल भी रहा है|यहाँ के कवि -शायर रदीफ, काफिया और बहर या छंद को लेकर काफी सजग और श्रमशील दिख पड़ते हैं|हालाँकि अब माहौल में कुछ शिथिलता आयी है या ढीलापन आया है ,पुरानी पीढ़ी के रचनाकारों के एक-एककर गुज़रने के बाद|
काफी लंबे इंतजा़र के बाद बलरामपुर के डिग्री कॉलेज की मास्टरी मिली थी|पी-एच.डी करके वल्लभ विद्यानगर से घर वापसी के बाद चार साल से इधर-उधर भटक रहा था| मैं अपने गुरु डॉ. शिवकुमार मिश्र के आदेशानुसार हिन्दी इलाक़े में अध्यापन कार्य करना चाहता था |हिन्दी प्रदेशों में न नयी रिक्तियाँ निकल रही थीं न ही कुछ नियुक्तियाँ हो रही थीं |तबतक मैं मनमौजी तरीके से पटना के अख़बारों में लिख रहा था |रेडियो स्टेशन से भी कभी -कभार कविताएँ और वार्ताएँ प्रसारित होती रहती थीं| उन दिनों पटना के ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में नागेन्द्र जी का बेहतरीन पेज ‘कला -संस्कृति ‘आ रहा था| वे मुझे बराबर छाप रहे थे |रेडियो स्टेशन में तब आज के सुप्रसिद्ध हिन्दी कथाकार हृषिकेश सुलभ थे| हार मानकर कि अब सारी उम्मीदें निःशेष हो गयी हैं,मैं अपने दो बच्चों और पत्नी के साथ दुबारा आरा चला गया था, 1995 की होली गाँव पर मनाने के बाद |अपने सबसे कठिन और बुरे दिनों में आरा ने ही शरण दी थी मुझे|बलरामपुर मेरे लिए बिल्कुल नयी जगह थी|मेरी नियुक्ति हिन्दी के एक लोकप्रिय प्राध्यापक और लेखक डॉ. जगदेव सिंह के स्थान पर हुयी थी |वे 1993 में ही रिटायर हो चुके थे| तब अंशकालिक प्रवक्ता के रूप में डॉ. प्रकाश चंद्र गिरि पढ़ा रहे थे|मैं जब अपनी ज्वॉयनिंग के लिए बलरामपुर पहुँचा तो कॉलेज के उत्तरी गेट के ठीक सामने ही बालार्क होटल में कमरा लेकर रहना अारंभ किया|इस होटल के स्वामी कॉलेज के ही पूर्व प्राचार्य और तत्कालीन सचिव डॉ. पी पी सिंह थे|उन्होंने कहा कि तुम पैसे और किराए के बारे में मत सोचो|जब वेतन मिले तब देना|एक अन्जान और अपरिचित जगह में यह आश्वासन मेरे जैसे लंबे अरसे से बेरोज़गार रहे इंसान के लिए किसी वरदान से कम नहीं था| मैंने डॉ. पीपी सिंह को अपनी प्रकाशित थीसिस ‘भारत में जन नाट्य आंदोलन ‘की प्रति भेंट की तो वे बहुत ही प्रसन्न हुए थे|उनके मुँह से मेरी उस पुस्तक को उलटते -पलटते अनायास ही ये बात निकल गयी कि’ चलिए मेरे कॉलेज को हिन्दी में एक योग्य प्रवक्ता आयोग से मिल गया|’उन्होंने मेरी यथायोग्य मदद की ज्वॉयनिंग में|मेरी ज्वॉयनिंग की पूर्व संध्या पर ही बालार्क होटल के मेरे कमरे में मुझसे मिलने आए डॉ. प्रकाश चंद्र गिरि ने विनम्रता के साथ अनुरोध किया कि आप यहाँ ज्यॉयन न कीजिये|मेरी पार्ट टाईम की नौकरी ख़त्म हो जायेगी|किसी अन्य कॉलेज में मेरी पोस्टिंग कराने को लेकर वे पैरवी और सहयोग करने का भी आश्वासन दे रहे थे|उन्होंने उस रोज़ या अगले रोज़ अपने घर ले जाकर रात का खाना भी खिलाया था|उनके अनुरोध का मुझपर कोई असर नहीं हुआ था|मैंने एक लंबे संघर्ष के बाद नौकरी पायी थी और किसी क़िस्म का जोखिम नहीं लेना चाहता था|मैंने गिरि जी से जब ये कहा कि आपका चयन आयोग से हो जायेगा तब मैं कहीं और तबादला करा लूँगा |यह सुनकर वे बोले कि ऐसा संभव नहीं होगा |आप कुछ साल यहाँ पढ़ाने के बाद कॉलेज और शहर से प्यार करने लगिएगा| वे मुझे बलरामपुर में नहीं आने देना चाहते थे|मेरे इस कॉलेज में आने के चार साल बाद उनका चयन भी आयोग से हुआ था |तब एक और जगह रिक्त हो गयी थी डॉ. शिवनारायण शुक्ल के रिटायरमेंट के बाद |मैं बाहर नहीं निकल पाया|मैं धीरे -धीरे इसी शहर में रमता चला गया और जब तबादले के लिए प्रयत्नशील हुआ तो अनापत्ति प्रमाण पत्र देन से मना कर दिया कॉलेज प्रशासन ने|मैंने घर भी बनाया तो लखनऊ में|इस शहर में मुझे साहित्य के क्षेत्र में किसी स्पर्धा या कड़े मुक़ाबले का सामना नहीं करना पड़ा | पूरा मैदान काम करने के लिए ख़ाली पड़ा था|यहाँ मंचीय कवियों और शायरों का समाज था |मैं समकालीन साहित्य में सक्रिय था|अलबत्ता बेमतलब के कुछ विरोधों का सामना ज़रूर करना पड़ा| मैं यहाँ इशारा भर करना चाहता हूँ विरोधी के बारे में |होशियार स्वयं समझ जायेंगे |ज़िन्दगी में कई बार ऐसा होता है कि कुछ लोग और कुछ जगहें उसके साथ मुकद्दर की तरह जुड़ जाती हैं |उनसे चाहकर भी अलग नहीं हो सकते हम! मेरी ज़िंदगी में भी कुछ इस तरह की विडंबनाएँ रही हैं|मैंने विरोधी स्थितियों में रहते हुए ही अपनी पहचान बनायी है| मेरे ये विरोधी आभासी और वास्तविक संसार में भी रोज़ मित्र बनाकर अमित्र भी कर देते हैं |उनकी हालत मुझे लेकर साँप और छछूंदर वाली है | वे मेरा विरोध भी करते हैं और मुझसे अपेक्षा भी पालते हैं|
बलरामपुर में सिर्फ़ डेढ़ माह ही अकेले रहा मैं , 1996 की पूरी जुलाई और आधा अगस्त तक|इसके बाद मेरा परिवार आ गया था|मैं हॉकी फील्ड के पश्चिम में एक किराए का मकान लेकर परिवार के साथ रहना आरंभ किया|ये मकान श्रीमती संतोष शर्मा का था|उन दिनों भी बलरामपुर में किराये के मकान आसानी से नहीं मिलते थे|मुझे दो मामूली कमरों का मकान उस वक़्त 500 रुपये मासिक किराये पर मिला था|अब भी बलरामपुर में किराए का मकान ढूँढ़ना एक बेहद मुश्किल काम है|हमलोग शाम को या दोपहर बाद ख़ाली वक़्त में कई हफ़्ते तक एक बेहतर मकान को ढूँढ़ने निकलते रहे पर मन पसंद मकान नहीं मिला|उत्तर भारत के ऐसे कई छोटे और क़स्बाई शहर हैं जहाँ इस तरह की कठिनाइयाँ उनलोगों के सामने दरपेश आती हैं जो ऐसी जगहों पर बाहर से नौकरी करने जाते हैं|ये शर्मा का मकान भी मुझे मिला था डॉ. सुभाष बाबू शर्मा के सहयोग से|बलरामपुर में आनेपर सबसे पहले मैंने अपने दोनों बच्चों का दाख़िला बलरामपुर मॉडर्न स्कूल में करवाया था|मैंने अपने कॉलेज के कुछ वरिष्ठ शिक्षकों से परामर्श के बाद ही ऐसा किया था |बड़े बेटे रोहित का दाख़िला कक्षा दो में हुआ था और छोटे बेटे मोहित का लोअर केजी में|बाद में पता चला कि इस स्कूल के संस्थापक हैं आदित्य कुमार चतुर्वेदी|आदित्य कुमार चतुर्वेदी हमारे कॉलेज के ही पूर्व प्राचार्य थे|वे अँग्रेज़ी के विद्वान और हिन्दी के कवि भी थे|मॉर्डन स्कूल अँग्रेज़ी और हिन्दी माध्यम का मिलाजुला स्कूल है|मैं आरंभ से ही अपने बच्चों को अँग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाने का विरोधी रहा हूँ|मैं इस मामले में कुछ पुराने ख़्यालों का रहा हूँ |जो भी हो सबकुछ के बाद भी मॉर्डन स्कूल का अब भी इस जनपद में कोई स्वस्थ विकल्प नहीं है |इस स्कूल में उनदिनों कम फीस के बावजूद अच्छी पढ़ाई होती थी| अब भी होती ही होगी, ऐसा मेरा यक़ीन है |इसमें पढ़ाने वाले ज़्यादातर शिक्षक मेधावी रहे हैं |इसमें पढ़ाने वाले शिक्षक -शिक्षिकाओं में डॉ. शुचिता चौहान, रंजना चौहान,उषा तिवारी, नलिनी मिश्रा ,नीरूबाला मिश्रा ,सुरेन्द्र मिश्र,अशोक पांडेय,वनमाली मिश्र,हेमंत तिवारी,प्रदीप मिश्र,त्रियुगी नारायण मिश्र ,सीताराम द्विवेदी,पारसनाथ,चक्रधारी जी,इंदिरा पांडेय,सुमनबाला मिश्रा,सुमन सिंह,गीता सिंह, मंजु सिंह,विजय लक्ष्मी सिंह,उषा शुक्ला, उमेश चंद्र तिवारी,शेष नारायण शुक्ल आदि के नाम तत्काल याद आ रहे हैं|इन सबने मिलकर मेरे दोनों बच्चों का भविष्य सँवारा है|मैं इनका आजीवन कर्ज़दार रहूँगा|अब इसके प्रबंधक कृष्ण मोहन पांडेय और सचिव अशोक गुप्ता हैं|उनदिनों इसकी प्राचार्या गीता त्रिपाठी थीं|मैं स्कूल प्रशासन को लेकर हमेशा से ही उनका प्रशंसक रहा हूँ |इनदिनों इसकी प्राचार्य मंजु श्रीवास्तव हैं जो एक अति सौम्य और विनम्र महिला हैं|इस स्कूल के सांस्कृतिक समारोहों में जाने का मौका कई बार मिला है |हमेशा ही यहाँ के सांस्कृतिक समारोह स्तरीय होते रहे हैं|इस स्कूल में कईबार ऐसे कार्यक्रमों में मैं बतौर निर्णायक भी जाता रहा हूँ |इस स्कूल में एक नियमित वार्षिक पत्रिका ‘उत्कर्ष ‘भी निकलती रही है |इसमें भी मेरे दो लेख छप चुके हैं |मैंने एक लेख स्कूल के बारे में लिखा था, जिसका शीर्षक था–‘जाग तुझको दूर जाना’ और दूसरा लेख इसके आदि संस्थापक स्व. आदित्य कुमार चतुर्वेदी पर था|अपने बच्चों के चलते इस स्कूल से मेरी अारंभ से एक गहरी आत्मीयता रही है|
बलरामपुर में आने के बाद एक-दो बार ही होली में सपरिवार गाँव जा पाया|होली में कॉलेज दो-तीन दिनों के लिए ही बंद होता है|होली के तत्काल बाद विश्वविद्यालय की मुख्य परीक्षाएँ आरंभ हो जाती हैं| इतने कम समय में कहीं बाहर जाना संभव नहीं हो पाता है|हमलोग जब गाँव नहीं जा पाते तो वहाँ की होली में न शामिल हो पाने की टीस बनी रहती थी|एक दर्द का गोला दिल को मथने लगता था|आदमी के बारे में मेरी राय यही बनी है कि वह कभी भी अपने वर्तमान से संतुष्ट नहीं रहता है|उसके भीतर का असंतोष ही उसे कुछ कर गुज़रने के लिए प्रेरित करता है|जब मेरी नौकरी नहीं मिली थी और मैं बेरोज़गारी में गाँव पर था होली में तब भी मुझे उतना आनंद नहीं आ पाया था|मैं अपने भविष्य को लेकर ऊहापोह में था| मेरे भीतर के स्वप्न पर कटे पक्षी की तरह फड़फड़ा रहे थे|घर पर खाने-पीने की या कपड़े-लत्ते की कमी नहीं थी|मेरा परिवार गाँव के दो-चार सुखी परिवारों में से एक था|पर बचपन से ही मेरे भीतर एक शिक्षक बनने का स्वप्न पल रहा था ,वो भी हिंदी साहित्य का|मेरे पिता भी मिडिल स्कूल के हेडमास्टर थे और हिंदी ही पढ़ाते थे|स्कूल और कॉलेज में हिंदी पढ़ाने वाले मास्टर ही मेरे आदर्श थे|चाहे मिडिल स्कूल,सिमरी के मेरे गुरु परमार्थ दुबे हों या हाई स्कूल के गुरु शिवाधार प्रधान या जैन कॉलेज ,आरा ,बिहार के मेरे गुरु डॉ. चंद्रभूषण तिवारी,रामेश्वर नाथ तिवारी या डॉ. दीनानाथ सिंह सब मेरे आदर्श शिक्षक हिंदी के ही थे|इनमें अभी परमार्थ दुबे और दीनानाथ सिंह जीवित हैं|—तो मेरा स्वप्न दरक रहा था|मुझे गाँव पर होली में बहरवासूं लोग टोकते कि अभी आप कहाँ हैं तो मैं झेंप जाता था | जब बलरामपुर आया तो गाँव की याद सताने लगी और मैं अपने को जड़ों से कटा हुआ महसूस करने लगा | आदमी की ज़िंदगी में यही विडंबनाएँ बनी रहती हैं | उससे जो दूर होता जाता है वही ज़्यादा लुभाता और आकर्षित करता है|इस मामले में पूरबिए ज़्यादा भावुक होते हैं|बहरहाल,मैं जब 1997 की अपनी पहली होली में बलरामपुर था तो मेरा मन उदास था|मेरे पूरे परिवार में उदासी थी|हमलोग तय नहीं कर पा रहे थे कि किससे रंगों की होली खेलें तभी मेरे पड़ोसी और बॉटनी के कॉलेज के सीनियर प्रोफेसर डॉ. शैलेन्द्र विक्रम सिंह का सबसे पहले मेरे किराए वाले मकान पर आगमन हुआ,सुबह-सुबह|शैलेन्द्र साहब ने जिस आत्मीयता से मुझे गले लगाया और मेरे माथे पर लाल रंग उड़ेला बोतल का मैं अचंभित रह गया|शैलेन्द्र साहब की पहली होली ने ही मुझे उनका बना दिया |फिर तो मैं उनके साथ पीछे-पीछे चल पड़ा|वे पास के ही शिक्षक आवास में ले गए और मैं सभी शिक्षकों के साथ उनमुक्त और द्वन्द्वरहित होकर होली खेलता रहा रंगों की और एक-एक आवास पर जाकर गुझिया और विविध स्वादिष्ट व्यंजनों का लुत्फ भी लेता रहा|मेरे बच्चे भी मुहल्ले के बच्चों के साथ घुलमिल कर रंग-अबीर की होली खेलते रहे|बलरामपुर एक उत्सवप्रिय नगर है|यहाँ किसी भी पर्व या त्योहार में चाहे वो किसी धर्म का हो मस्ती देखते बनती है|मैं विविध रंगों से सराबोर होकर जब दोपहर में घर लौटा तो आईने में अपनी शक्ल ही नहीं पहचान पा रहा था| उस रोज़ पहली बार कॉलेज के दो दर्ज़न विविध विषयों के वरिष्ठ शिक्षकों के साथ होली खेलते हुए जो भाव मन में पैदा हुआ वह अभिभूत और विमुग्ध करने वाला था|इन शिक्षकों में ही भूगोल के डॉ. ओपी मिश्र भी थे जो बाद में 2000-2001 में कॉलेज के प्राचार्य बने और अब रिटायरमेंट के बाद प्रदेश में अधीनस्थ सेवा चयन आयोग के सदस्य हैं| राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर डॉ. डीएन शाही,मनोविज्ञान के डॉ.एसएन शुक्ल,भौतिकी के डॉ. केडीपी शुक्ल,डॉ.बीपी पांडेय,बॉटनी के डॉ.डीएस शुक्ल,डॉ.जेपी तिवारी, डॉ. एन के सिंह, डॉ. डी डी तिवारी, बीएड के एसएन त्रिपाठी,डॉ.जेपीएन सिंह, डॉ.अरुण कुमार सिंह, गणित के डॉ. एसके श्रीवास्तव ,अर्थशास्त्र के एपी अग्रवाल,भूगोल में ही डॉ.डीएन तिवारी ,केमेस्ट्री के डॉ. एम के सिंह, डॉ.पीके पांडेय,जूलॉजी के डॉ. मार्कण्डेय मिश्र आदि की याद सहज ही आ रही है| पूरा बलरामपुर रंगो में डूब जाता था|कॉलेज के सामने वाली सड़क भी लाल-पीले-हरे रंगों से नहा उठती थी|युवा लड़कों की टोलियाँ शिव की बारात की तरह दिखती थीं|बलरामपुर आज भी इस परंपरा को जीवित रखे हुए है|कहा जा सकता है कि यह एक रंगीन और शौक़ीन मिजाज शहर है|