सारिब यूँ तो रोज़ाना ठेले पर पुराने कपड़ों को बेचने का काम करते हैं पर साल के दो दिन यानी पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को उनका ठेला तिरंगे झंडों, बैज और स्टीकर से सज-सँवर व चमक उठता है | इन दो दिनों में हर साल उनके चेहरे की रौनक़ ज़रा बढ़ जाती है ! घर उनका बलरामपुर शहर के भीतर चौक के पास है | वे ठेला लगाते हैं चौक से वीर विनय कायस्थ चौक तक के बीच में | कहीं भी ख़ाली जगह देखकर | उनकी उम्र कोई बहत्तर साल की होगी | माँ -बाप ने बताया था कि उनका जन्म आज़ादी वाले दिन ही हुआ था | उन्होंने सबका ज़माना देखा है | नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक का और अब मोदी जी का न्यू इंडिया का जलवा देख रहे हैं | ऐसे उनका जीवन हर दौर में मुश्किल रहा है | वे ग़रीबी में ही पैदा हुए, ग़रीबी में ही जवानी गुज़ार दी और अब बूढ़े हो चले हैं | उनके सिर और दाढ़ी के बाल सफ़ेद हो चुके हैं, पूरी तरह से | घर में बीवी के अलावा छोटे भाई का परिवार रहता है जिसमें नौ लोग रहते हैं | सब किसी न किसी छोटे रोज़गार में हैं | वे बस रोटी और कपड़ा भर कमा लेते हैं | कभी बड़ा या अमीर बनने का स्वप्न नहीं देखा – डॉ. चन्द्रेश्वर [ एम एल के कालेज , हिंदी विभाग, एसोशिएट प्रोफेसर /कवि-आलोचक , बलरामपुर , उ. प्र. ]

 

कृपया टिप्पणी करें