एक दिन अवधी महारानी ने शोकाकुल होकर मुझसे कहा, ” तू लोग काहे हमार दुरगत करत जात हव ? हमरे लिये कोऊ कुछू नाही करत हय … ऐसन मा हमरे मरैम केत्ती देर हय।”
मैंने कहा कि आपने अच्छा किया। हमें ध्यान दिलाया। आप ठीक कहती हैं। हम लोगों ने आपकी बहुत उपेक्षा की है। लेकिन अब हम लोग आपकी उन्नति और विकास के लिए जी तोड़ प्रयास करेंगे।
अवधी महारानी कुछ आक्रोशित हो उठीं। तेज़ आवाज़ में बोलीं, ” येहमन तोहरै लोगन कै जादा दोख हय। अबही तक का करत रहेव ? हमका जप्पल बनाय दिहव बहुत समै से। जब हमार प्रान घटका में लागि आवा हय, तब कहत हव, दवा करायिब ? तोहीं लोग दोखी हव। हमार प्रान हर लेहव।”
क्षमा कीजिए, हम लोगों से अवश्य आपकी उपेक्षा हो रही है। अब आपको शिकायत का अवसर नहीं मिलेगा। – मैंने आश्वस्ति के साथ कहा।
” तुहीं लोग हमका बोलैम अव लिखैम सरमात हव। आपन अपमान समझत हव अव यहहु कहत हव की अब हमार उन्नतिया करिहव ! हमका समझि मा नाही आवत हय। कैसय मान ली हम तोहार बतिया की अब तोहार लोगन कै सौचैक अंदाज बदलि गवा हय, अव हमका मोहाय लागेव हय।”
अपनी सफ़ाई में मैंने कहा, सच है कि हम अवध क्षेत्र के लोग अपनी इस असल भाषा – जन्मजात भाषा को निश्चय ही उल्लेखनीय सीमा तक भूल चुके हैं। यह हमारे लिए बड़ी चिंता और ग्लानि की बात है। इसी भाषा में हमारा पूरा भक्ति साहित्य है। उत्तमोत्तम – मर्यादा पुरुष … भगवान राम का जीवन चरित्र है, उसी भाषा को बोलने – लिखने में हमें संकोच हो रहा है … लाज से मरे जा रहे हैं। छोटाई और पिछड़ेपन का बोध होता है, अर्थात् हम खुले और व्यावहारिक रूप में अपनी मूल भाषा का तिरस्कार कर रहे हैं। यह बहुत अनुचित और गलत है।
” अब सकुचाय अव सरमाय से काम ना चली” – अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए अवधी महारानी ने कहा, ” हमका फलय – फूलय कै लिये अकादमी तक नाही हय। संविधान कै अठवीं सूचिया भी हमरे भाग मा नाही। अवधी पढ़य – पढ़ावैक कौनव परबंध नाही हय। अब तौ दिहतवव से हम जाइत हय, जेकरे मटिया मा हम बहुतै समय से परी रहेन। हियंव खड़ी बोलिया आइ गइ हय। गंवआ के लारिकवै जब बहिरे कमाय जात हंय, तौ हमका बिसराय आवत हंय। आज हालत ई हय की हमका कोऊ लिखत – पढ़त नाही हय। बिरलै कब्भऊ कदा कै बात नाही करित है। गाना – बजाना मयहा भी हमार इस्तैमाल नाही होत हय। फिलिम – उलिम भी नाही बनत हय। कबभौ – कबभौ येक – दुय सब्द या पूरा वाक्यवै बोलि देत हंय, तौ हमरे आंखिम चमकै लागत हय, जैसन की येही हमार जान होय। सांच येही हय की फिलिम इत्याद मा छौंकैक – बघारैक काम मा हम आइत हय। कबभौ – कदार लिखै – उखै मा हमरा ऐसय इस्तैमाल होय जात हय।”
महारानी की इस व्यथा – कथा को सुनकर मैं नतमस्तक की मुद्रा में आ गया। मैंने विनीत भाव में कहा, देवी ! हमें क्षमा कर दीजिए। हम लोगों ने आपसे गद्दारी की है, विश्वासघात किया है। आपने अपनी जो बातें बताई हैं, वे हमारे लिए उपदेश और प्रबोधन हैं। हम अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे थे। अब हमारे नेत्र खुल गए हैं। हममें कर्तव्य बोध जाग उठा है।
( कभी अवधी में कुछ नहीं लिखा, जिसका मुझे अफ़सोस है। इस भाषा की स्थिति को देखते हुए उपर्युक्त पंक्तियां सहज रूप से मुझसे टाइप हो गईं। आप सभी से निवेदन है कि अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराएं। )
– Dr RP Srivastava
Chief Editor, Bharatiya Sanvad