वरिष्ठ लेखक आदरणीय राम पाल श्रीवास्तव जी का काव्य संग्रह “अँधेरे के ख़िलाफ़” कुछ दिनों पहले प्राप्त हुई थी. समय अभाव के कारण पढ़ न सका. इधर कुछ समय मिला तो पूरी किताब पढ़ डाली. किसी पुस्तक की समीक्षा लिखना मेरे लिए अत्यंत दुरूह कार्य है. किसी भी लेखक की भावनाओं का मूल्यांकन करना बड़ा पेचीदा कार्य होता है. विशेषकर मेरे जैसे व्यक्ति के लिए.
समदर्शी प्रकाशन से प्रकाशित 128 पृष्ठ का काव्य संग्रह “अँधेरे के ख़िलाफ़” लगभग 62 रचनाओं का संग्रह है. कौन सी रचना बहुत अच्छी है या कौन सी हलकी इस पर अपनी टिप्पणी करने में मैं असमर्थ हूँ. अथवा इस योग्य नहीं हूँ. यहाँ मैं केवल अपनी पसंदीदा रचनाओं का जिक्र करना अधिक पसंद करूंगा .
पुस्तक की शुरुआत में ही श्री राम पाल श्रीवास्तव जी ने लिखा है कि जब जीवन की विसंगतियां और त्रासद स्थितियां सामने आती हैं, तो कविता स्फुटित एवं उच्चारित होती है. कवि वास्तविक जीवन के निकट पहुंचता है और सच्चाई की ओर समाज की रहनुमाई करता है. अपनी पीड़ा, वेदना और व्यथा को उद्घाटित करता है. अँधेरे के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए समुचित वातावरण और धरातल निर्मित करने की और उन्मुख होता है.श्री राम पाल श्रीवास्तव जी का काव्य संग्रह “अँधेरे के ख़िलाफ़” में इसी केन्द्रीय भाव पर आधारित सभी रचनाएं हैं.
पुस्तक के शीर्षक पर आधारित उनकी एक रचना – अँधेरे के ख़िलाफ़ !
हे प्रभु !
अँधेरे के ख़िलाफ़ हमें रख
बना दे ऐसे दीप
जो सहें पवन –झंझा के हर थपेड़े
जलते हुए
शुभ्रता से लगे रहें हम …
बहुत ही संदर उद्गार हैं लेखक के.
सुन शब्द ! काव्य संग्रह की प्रथम रचना इसी के साथ प्रारम्भ होती है.
तुम मेरे हो
मेरे साथ हो
जबसे मैंने जन्म लिया
तुम मेरे साथ हो
साथ रहोगे
अगली रचना जो मुझे पसंद आई उसका शीर्षक है – खून की स्याही से !
क्या तुम वह सब लिख सके, जो लिखना चाहते थे ?
क्या तुम वह सब बोल सके, जो बोलना चाहते थे ?
एक अन्य रचना जिसका शीर्षक है – मृत्यु से परे !
जीवन और अपने बीच
कोई शर्त नहीं कोई भ्रम नहीं
कर्तव्य है खुद का
थोपना न समझो
एक रचना – हमें गण चाहिए !
मैं गण समाज चाहता हूँ
कदीम गण समाज
जहाँ साहचर्य ही साहचर्य था
परस्पर – एक दूसरे का आश्रय था
मौलवी अहमदुल्लाह का चरित्र वर्णन करते हुए श्रीवास्तव जी अपनी रचना राम जन्मभूमि के मौलवी में लिखते है –
अहमदुल्लाह
मौलवी नाम से मशहूर थे
अयोध्या के राम थे
अयोध्या में पैदा हुए
किन्तु घनश्याम थे
सावरकर के फरिश्ता थे आज़ादी के
रावण और कंस के काल थे
कम्पनी सरकार और्रायल ब्रिटिश इंडिया के
संहारक थे ………….
सुन समन्दर ! रचना के शब्द बहुत अच्छे लगते है
सुन समन्दर,
अब तुम ही
आना मिलने
मैं नहीं आती
हर बार
मिल मिल कर हम जान गये,
तेरा व्यापार .
अफ़्रीकी कवि बेंजामिन मोलाइस के जीवन से परिचित कराती उनकी रचना – बेंजामिन मोलाइस के प्रति
काली धरती गदराई
हरी होकर कड़ी हुई
उससे निकले कृष्ण पुष्प ……….
श्रीवास्तव जी की एक रचना – कविता
किसी ने कहा
किसी से
यह कविता क्या होती है ?
जो छंदबद्ध न हो
मुक्त हो
खालिस गद्य काव्य हो
आखिर
उसे कविता क्यों कहते हैं ?
एक अन्य कविता जो मुखे बहुत अच्छी लगी, जिसका शीर्षक है – जो शेष बचेगा !
मैं ‘तुम’ हो और तुम ‘मैं’
मैं शरीर, तुम आत्मा
बस, यहाँ से जाने के बाद
क्या होगा ?
मुझे बताकर जाना
मैं जानता हूँ कि
किसी को पता नहीं
फिर भी तुम कुछ न कुछ जरूर हों
और मैं भी !
मन को स्पर्श करती एक अन्य रचना – जीवन के पल छिन !
अब याद आये या न आये
मुझे याद आती है
निशापुष्पी गंध
और ये लता – वितान
जो दिवावसान के प्रतीक हैं
उलटे जोड़ सुनता हूँ
गायों के गले की घंटी से
जीवन के
पल छिन …………
खाने का खाना ! एक बेहतरीन कविता
ये कैसी अलंबरदारी है
जहाँ होती इजारेदारी है
ऊंच नीच छूतछात का ….
हरेक का एक खाना है
हरेक स्तर पर
अनुल्लंघनीय
इसी की तो अमलदारी है …
गाँव शहर में अंतर को प्रस्तुत करता श्रीवास्तव जी का एक गीत –
गाँव आया शहर में
देखो भई, देखो
गाँव आया शहर में
कंकड़ बाग़ में
मंगल बाज़ार में
हाट लगी है
बिसात्खाने सजे हैं
स्वागती उमड़े हैं
गाँव – गाँव आया
शहर – शहर गया है
देखो भई, देखो
कैसी आई
भारतीय संस्कृति
शहर में !
अब बाइस्कोप में
आगरे का ताजमहल
दिल्ली का क़ुतुब मीनार देखो !
काव्य में रुचि रखनेवालों के लिए यह एक संग्रहणीय पुस्तक है .
# पवन बख़्शी