धूप और छांव की तरह जीवन में कभी दुःख ज्यादा तो कभी सुख ज्यादा होते हैं। जिन्दगी की सोच का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि जिन्दगी में जितनी अधिक समस्याएं होती हैं, सफलताएं भी उतनी ही तेजी से कदमों को चुमती हैं। बिना समस्याओं के जीवन के कोई मायने नहीं हैं। समस्याएं क्यों होती हैं, यह एक चिन्तनीय प्रश्न है। यह भी एक प्रश्न है कि हम समस्याओं को कैसे कम कर सकते हैं। इसका समाधान आध्यात्मिक परिवेश में ही संभव है। जैसा कि जोहान वाॅन गोथे ने कहा था-‘‘जिस पल कोई व्यक्ति खुद को पूर्णतः समर्पित कर देता है, ईश्वर भी उसके साथ चलता है।’’ जैसे ही आप अपने मस्तिष्क में नए विचार डालते हैं, सारी ब्रह्माण्डीय शक्तियां अनुकूल रूप में काम करती हैं।
अति चिन्तन, अति स्मृति और अति कल्पना- ये तीनों समस्या पैदा करते हैं। शरीर, मन और वाणी- इन सबका उचित उपयोग होना चाहिए। यदि इनका उपयोग न हो, इन्हें बिल्कुल काम में न लें तो ये निकम्मे बन जायेंगे। यदि इन्हें बहुत ज्यादा काम में लें, अतियोग हो जाए तो ये समस्या पैदा करेंगे। इस समस्या का कारण व्यक्ति स्वयं है और वह समाधान खोजता है दवा में, डाॅक्टर में या बाहर आॅफिस में। यही समस्या व्यक्ति को अशांत बनाती है। जरूरत है संतुलित जीवनशैली की। जीवनशैली के शुभ मुहूर्त पर हमारा मन उगती धूप की तरह ताजगी-भरा होना चाहिए, क्योंकि अनुत्साह भयाक्रांत, शंकालु, अधमरा मन समस्याओं का जनक होता है। यदि हमारे पास विश्वास, साहस, उमंग और संकल्पित मन है तो दुनिया की कोई ताकत हमें अपने पथ से विचलित नहीं कर सकती और सफलता का राजमार्ग भी यही है। जैसा कि किसी ने कहा है-‘‘जीवन बस एक दर्पण है और बाहर की दुनिया अंदर की दुनिया का प्रतिबिम्ब है।’’ एक बार अपने अंदर सफलता प्राप्त कर लें, बाहर खुद-ब-खुद वह प्रतिबिम्बित होगा।
हम सबसे पहले यह खोजें- जो समस्या है, उसका समाधन मेरे भीतर है या नहीं? बीमारी पैदा हुई, डाॅक्टर को बुलाया और दवा ले ली। यह एक समाधान है पर ठीक समाधान नहीं है। पहला समाधान अपने भीतर खोजना चाहिए। एक व्यक्ति स्वस्थ रहता है। क्या वह दवा या डाक्टर के बल पर स्वस्थ रहता है? या अपने मानसिक बल यानी सकारात्मक सोच पर स्वस्थ रहता है? हमारी सकारात्मकता अनेक बीमारियों एवं समस्याओं का समाधान है। आप आसमान को देखकर यह कह सकते हैं-‘यह कितना नीरस है’ या यह कह सकते हैं-‘यह कितना बड़ा है।’ यह बस दिमाग को अनुकूलित करने और उसे प्रशिक्षित करने की बात है।
मूल प्रश्न यह है कि हम अपनी समस्या को समझें और अपना समाधान खोजें। मन कमजोर क्यों होता है? यह निषेधत्मक भावों के द्वारा कमजोर होता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने भी यह माना है- जितने नकारात्मक भाव (नेगेटिव एटीट्यूट) हैं, वे हमारी बीमारियांे एवं समस्याओं से लड़ने की प्रणाली को कमजोर बनाते हैं। ईष्र्या, भय, क्रोध, घृणा- ये नकारात्मक भाव हैं। प्रायः यह कहा जाता रहा है- ईष्र्या मत करो, घृणा और द्वेष मत करो। क्योंकि यही समस्याओं की जड़ है। एक धार्मिक के लिए यह महत्वपूर्ण निर्देश है, किंतु आज यह धर्मिक दृष्टि से ही नहीं, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण बन गया है। विज्ञान ने यह प्रमाणित कर दिया है- जो व्यक्ति स्वस्थ रहना चाहता है, उसे निषेधात्मक भावों से बचना चाहिए। बार-बार क्रोध करना, चिड़चिड़ापन आना, मूड का बिगड़ते रहना- ये सारे भाव हमारी समस्याओं से लड़ने की शक्ति को प्रतिहत करते हैं। इनसे ग्रस्त व्यक्ति बहुत जल्दी बीमार पड़ जाता है। एक दर्शनिक ने बहुत खूबसूरती से कहा है-‘‘हे आत्मा! तुम क्यों चिंतित होते हो? कठिनाइयां आयेंगी तो क्या! अपनी दृष्टि समाधान पर लगाए रखो, समस्या पर नहीं।’’
ध्यान आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बहुत उपयोगी है। ध्यान से निषेधात्मक भाव कम होते हैं, विधायक भाव जागते हैं। ध्यान एक ऐसी विधा है जो हमें भीड़ से हटाकर स्वयं की श्रेष्ठताओं से पहचान कराती है। हममें स्वयं पुरुषार्थ करने का जज्बा जगाती है। स्वयं की कमियों से रू-ब-रू होने को प्रेरित करती है। स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार कराती है। आज जरूरत है कि हम अपनी समस्याओं के समाधान के लिये औरों के मुंहताज न बने। ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसका समाधान हमारे भीतर से न मिले। भगवान महावीर ने का यह संदेश जन-जन के लिये सीख बने- ‘पुरुष! तू स्वयं अपना भाग्यविधाता है।’ औरों के सहारे मुकाम तक पहुंच भी गए तो क्या? इस तरह की मंजिलें स्थायी नहीं होती और न इस तरह का समाधान कारगर होता है। इलेनोर रूजवेल्ट के ये शब्द भी प्रामाणिक लगेंगे-‘‘आखिरकार जीवन का उद्देश्य उसे जीना और इष्टतम अनुभवों को हासिल करना, नए और समृद्ध अनुभवों को उत्सुकता से और निर्भर होकर आजमाना है।’’ इसलिए अपने लिए एक नई राह बनाएं, ताकि अपने जीवन को भरपूर जी सकें।
गुरुनानक ने कहा था-‘‘मनुष्य सांसों से बना है, एक बार में एक सांस। अगर सांस आती है तो हम मनुष्य हैं, वरना मिट्टी के पुतले।’’ सांस की तरह हमारे भीतर अनेक शक्तियां हैं, जो हमें बचा सकती हैं, हमें समस्याओं के समाधान दे सकती है। लिनेश सेठ ने लिखा है-‘‘जीवन के साथ एक सामंजस्यपूर्ण संबंध स्थापित करने का सबसे सरल तरीका है-अपने श्वास के साथ एक पे्रमपूर्ण, खुशनुमा संबंध विकसित करना।’’ एक और शक्ति संकल्प की शक्ति है। अनावश्यक कल्पना मानसिक बल को नष्ट करती है। लोग अनावश्यक कल्पना बहुत करते हैं। यदि उस कल्पना को संकल्प में बदल दिया जाए तो वह एक महान शक्ति बन जाए। एक विषय पर दृढ़ निश्चय कर लेने का अर्थ है- कल्पना को संकल्प में बदल देना। यह संकल्प का प्रयोग करें तो वह बहुत सफल होगा। संकल्प एक आध्यात्मिक ताकत है। संकल्पवान व्यक्ति अंधकार को चीरता हुआ स्वयं प्रकाश बन जाता है। चंचलता की अवस्था में संकल्प का प्रयोग उतना सफल नहीं होता जितना वह एकाग्रता की अवस्था में होता है। हर व्यक्ति रात्रि के समय सोने से पहले एक संकल्प करे, उसे पांच-दस मिनट तक दोहराए, मैं यह करना या होना चाहता हूं, इस भावना से स्वयं को भावित करे, एक निश्चित भाषा बनाए और उसकी सघन एकाग्रता से आवृत्ति करे, ऐसा करने से संकल्प बहुत शीघ्र सफल होता है।
मारग्रेट शेफर्ड ने यह खूबसूरत पंक्ति कही है-‘‘कभी-कभी हमें सिर्फ विश्वास की एक छलांग की जरूरत होती है।’’इसी से व्यक्ति में आत्म विश्वास उत्पन्न होता है और इसी से एक समाधान सूत्र मिलता है कि- मेरी समस्याओं का समाधान कहीं बाहर नहीं है, भीतर है। ध्यान का प्रयोजन है- व्यक्ति में यह आत्मविश्वास पैदा हो जाए- जो मुझे चाहिए, वह मेरे भीतर है। यदि यह भावना प्रबल बने तो मानना चाहिए- ध्यान का प्रयोजन सफल हुआ है। ध्यान का अर्थ यही है कि हमारे शरीर के भीतर जो शक्तियां सोई हुई हैं, वे जाग जाएं। ध्यान से व्यक्ति में यह चेतना जगनी चाहिए-मुझमें शक्ति है, उसे जगाया जा सकता है और उसका सही दिशा में प्रयोग किया जा सकता है। शक्ति का बोध, जागरण की साधना और उसका सम्यग् दिशा में नियोजन- इतना-सा विवेक जाग जाए तो सफलता का स्रोत खुल जाए।
–ललित गर्ग
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