कभी-कभी लगता है समय का पहिया तेजी से चल रहा है जिस प्रकार से घटनाक्रम चल रहा है, वह और भी इस आभास की पुष्टि करा देता है। पर समय की गति न तेज होती है, न रुकती है। हां पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव घोषित हो जाने से तथा प्रक्रिया प्रारंभ हो जाने से जो क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं हो रही हैं उसने ही सबके दिमागों में सोच की एक तेजी ला दी है। इन राज्यों में मतदान का पवित्र कार्य सन्निकट है। इन चुनावों में युवाओं का प्रतिनिधित्व बढ़े, यह परम आवश्यक है। राजनीति में युवाओं की भूमिका कैसी हो, इस पर लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है। पिछले दिनों वरुण गांधी ने विभिन्न माध्यमों से युवा पीढ़ी से सम्पर्क किया। विश्वविद्यालयों, युवा संगठनों के बीच में जाकर उन्होंने युवाओं से राजनीति में अपनी सक्रिय भूमिका निभाने को प्रेरित किया है। उनके ये प्रयास कितने समीचीन है, इस पर विचार आवश्यक है। गांधी परिवार के प्रभावी वारिस, युवा व्यक्तित्व, प्रखर वक्ता और मजबूत सामाजिक आधार को लेकर सक्रिय वरुण गांधी पर देश की नजरे टिकी है, कुछ ऐसी संभावनाएं भी व्यक्त की जा रही है कि देर-सबेर वे कांग्रेस में शामिल हो सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि वे युवाओं को राजनीति में सक्रिय करने के लिये जो प्रयास कर रहे हैं, उससे निश्चित ही भारत की राजनीति को एक नया मोड़ मिल सकेगा। 

वरुण गांधी को विरासत में मिली राजनीति धरातल का ही प्रभाव ही है कि वे भारत की वर्तमान राजनीति में व्यापक बदलाव लाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि देश में  और आम लोगों के बीच ऐसा माहौल बने कि अगला चुनाव चाहे वह पंचायत को हो या प्रधानमंत्री का, पहले खुली बहस हो। चुनाव में खड़े एक-एक व्यक्ति का विजन आम आदमी के बीच में रखा जाए और फिर चुनाव हों। यह जरूरी है कि राष्ट्रीय वातावरण अनुकूल बने। देश ने साम्प्रदायिकता, आतंकवाद तथा घोटालों के जंगल में एक लम्बा सफर तय किया है। उसकी मानसिकता घायल है तथा जिस विश्वास के धरातल पर उसकी सोच ठहरी हुई थी, वह भी हिली है। पुराने चेहरों पर उसका विश्वास नहीं रहा। अब प्रत्याशियों का चयन कुछ उसूलांे के आधार पर होना चाहिए न कि जाति और जीतने की निश्चितता के आधार पर। मतदाता की मानसिकता में जो बदलाव अनुभव किया जा रहा है उसमें सूझबूझ की परिपक्वता दिखाई दे रही है। ये पांच राज्यों के चुनाव ऐसे मौके पर हो रहे हैं जब राष्ट्र विभिन्न चुनौतियों से जूझ रहा है।

वरुण गांधी राजनैतिक सुधार चाहते हैं। इसीलिये उन्होंने राइट टू रिकॉल की वकालत भी की। उन्होंने राजनैतिक सुधार से लेकर गरीबी, बेरोजगारी, महिला सशक्तिकरण, किसानों की आत्महत्या जैसे मुद्दों के कई उदाहरण छात्रों-युवाओं के सामने रखे। वे सांसदों-विधायकों के वेतन-भत्ते को गलत नहीं मानते। लेकिन इनको बढ़ाने का अधिकार विधायक-सांसदों को नहीं दिया जाना चाहिए। उनका यह कहना भी उचित है कि 4 फीसदी वोटों से जीतकर आए, तो फिर कैसे कह सकते हैं कि वह पूरी जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। चुनाव में अपना प्रतिनिधि चुनने का मतलब कतई नहीं होना चाहिए कि चुनने के बाद नेता मनमर्जी करने लगे। लोकतंत्र का मतलब यह है कि जनता चाहे जिसे सत्ता में लाए और जिसे चाहे सत्ता से निकाल दे। इस बिल को पास करवाने के लिए वे संसद में प्रयासरत हैं।

युवा वर्ग की छवि कहीं न कहीं महानगरों में बसने वाले अंग्रेजी बोलने वाले युवाओं से बनती है। हम अक्सर उन्हें ही युवा वर्ग का प्रतीक मान लेते हैं। जबकि हकीकत में वे हमारे युवा वर्ग का एक बहुत छोटा हिस्सा है। परिवर्तन, क्रांति और बदलाव की राजनीति ने युवाओं से जो उम्मीदें बांधी थीं उसका अंश आज भी कहीं ना कहीं हमारी राजनीतिक समझदारी में कायम है लेकिन ऐसा होने के बावजूद राजनीति में युवाओं की सक्रिय भागीदारी क्यों नहीं हो पा रही है, यह एक अहम सवाल है। जिसको लेकर वरुण गांधी का चिन्तीत होना या उसके लिये प्रयास करना, देश के लिये शुभता का सूचक है।

पांच राज्यों के चुनाव के प्रारंभ में जो घटनाएं हो रही हैं वे शुभ का संकेत नहीं दे रही हैं। अशांति, अस्थिरता, बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, महिलाओं से जुड़ी स्थितियां, काश्मीर मंे आतंकवादियों की हताशापूर्ण गतिविधियां, सीमापार से छेड़खानी- ये काफी कुछ बोल रही हैं। आज सुरक्षाबलों के बिना न नेता सभाएं कर सकते हैं, न मतदाता मत डाल सकते हैं और न पूरे राष्ट्र में मतदान एक दिन में हो सकता है। मतदाता भी  धर्म संकट में है। उसके सामने अपना प्रतिनिधि चुनने का विकल्प नहीं होता। प्रत्याशियों में कोई योग्य नहीं हो तो मतदाता चयन में मजबूरी महसूस करते हैं। मत का प्रयोग न करें या न करने का कहें तो वह संविधान में प्रदत्त अधिकारों से वंचित होना/करना है, जो न्यायोचित नहीं है।

इस बार की लड़ाई कई दलों के लिए आरपार की है। ”अभी नहीं तो कभी नहीं।“ ये चुनाव पांच राज्यों का ही नहीं बल्कि दिल्ली के सिंहासन का भाग्य निश्चित करेंगे। इसी बात को लेकर सभी आर-पार की लड़ाई लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। उन्हें केवल अगले चुनाव की चिन्ता है, अगली पीढ़ी की नहीं। मतदाताओं के पवित्र मत को पाने के लिए पवित्र प्रयास की सीमा लांघ रहे हैं। यह त्रासदी बुरे लोगों की चीत्कार नहीं है, भले लोगों की चुप्पी है जिसका नतीजा राष्ट्र भुगत रहा है/भुगतता रहेगा, जब तब भले लोग  या युवापीढ़ी मुखर नहीं होगी। ऐसी स्थितियों के बीच वरुण गांधी के प्रयासों की सार्थकता है। उनकी जागरूकता, संकल्प और विवेक प्रभावी भूमिका अदा कर सकता है।

मतदाता का मत ही जनतंत्र का निर्माण करता है और इनके आधार पर ही राजनीतिक नेतृत्व की दशा-दिशा तय होती है। ऐसे में यदि भारत का भविष्य-यानी युवा सत्ता एवं जनतांत्रिक मूल्यों की स्थापना में सक्रिय हस्तक्षेप नहीं कर पाता तो पर्याप्त मतशक्ति के बावजूद राजनीतिक नेतृत्व में उसकी प्रत्यक्ष भागीदारी संभव नहीं हो सकती। भारत युवा आबादी वाला देश है और बीते कुछ दशकों में यहां ‘युवा’ मतदाताओं की संख्या लगातार बढ़ी है। अलग-अलग जाति समूह एवं राजनीतिक दलों में बंटे होने के बावजूद राजनीतिक हस्तक्षेप की अपनी क्षमता के बावजूद उन्हें विभिन्न राजनीतिक दलों में भागीदारी नहीं मिल रही है। आज भी वे केवल अपने-अपने दलों की ‘युवा इकाई’ की राजनीति तक सीमित हैं। इसी तरह युवकों में मत देने की चाह तो बढ़ी है, लेकिन अभी उनमें राजनीतिक हस्तक्षेप की अपेक्षित शक्ति विकसित नहीं हो पाई है या होने नहीं दी जा रही है। शायद यही कारण है कि आबादी के अनुपात में उन्हें राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि युवा पीढ़ी राजनीति से अलिप्त ही रहे, उसे देश के वर्तमान और भविष्य से कुछ मतलब ही न हो? यदि ऐसा हुआ, तो यह राष्ट्र के लिये बहुत ही खतरनाक होगा। इसलिए उन्हंे भी राजनीति में सक्रिय होना चाहिए, पर उनकी सक्रियता का अर्थ सतत जागरूकता है। ऐसा हर विषय, जो उनके आज और कल को प्रभावित करता है, उस पर वे अहिंसक आंदोलन कर देश, प्रदेश और स्थानीय जनप्रतिनिधियों को अपनी नीति और नीयत बदलने पर मजबूर कर दें। ऐसा होने पर हर दल और नेता दस बार सोचकर ही कोई निर्णय लेगा।

स्पष्ट है कि राजनीतिक सक्रियता का अर्थ चुनाव लड़ना नहीं, सामयिक विषयों पर जागरूक व आंदोलनरत रहना है। यदि युवा पीढ़ी अपने मनोरंजन, सुविधावाद से  ऊपर उठकर देखे, तो सैकड़ों मुद्दे उनके हृदय में कांटे की तरह चुभ सकते हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार, कामचोरी, राजनीति में वंशवाद, महंगी शिक्षा और चिकित्सा, खाली होते गांव, घटता भूजल, बढ़ता आतंकवाद. माओवादी और नक्सली हिंसा, बंगलादेशियों की घुसपैठ, बिगड़ता कश्मीर, जनसंख्या के बदलते समीकरण, किसानों द्वारा आत्महत्या, गरीब और अमीर के बीच बढ़ती खाई आदि तो राष्ट्रीय मुद्दे हैं ही, इनसे कहीं अधिक स्थानीय मुद्दे होंगे, जिन्हें आंख और कान खुले रखने पर पहचान सकते हैं। आवश्यकता यह है युवा चुनावी राजनीति में तो सक्रिय बने ही, साथ ही साथ इन ज्वलंत मुद्दों पर भी उनकी सक्रियता हों। उनकी ऊर्जा, योग्यता, संवेदनशीलता और देशप्रेम की आहुति पाकर देश का राजनीतिक परिदृश्य निश्चित ही बदलेगा। इसके लिये वरुण गांधी के प्रयासों एवं उपक्रमों की प्रासंगिकता से इन्कार नहीं किया जा सकता।

– ललित गर्ग

, निर्माण विहार, दिल्ली-110092

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