सफल जिंदगी के लिये चुनौतियां होना जरूरी है। कुछ चुनौतियों से आप आसानी से पार पा लेते हैं, पर कुछ आपसे खुद को बदलने की मांग करती हैं। कामयाबी इस पर निर्भर करती है कि आप कितने बेहतर ढंग से खुद को बदल पाते हैं? चुनौतियों से पार पाने के लिये जीवन में सहने का अभ्यास जरूरी है। इसके बिना किसी का भविष्य उज्ज्वल नहीं हो सकता। जेन मास्टर मैरी जैक्श कहती हैं, ‘अपनी उलझनों का सामना करते हुए अनजान चीजों को गले लगाना हमें विकास की ओर ले जाता है। हमें आगे बढ़ाता है।’ जीव-विज्ञान बायोलोजी के अनुसार जीव-जंतुओं की वे ही प्रजातियाँ अपना अस्तित्व सुरक्षित रख सकती हैं जिनमें हर परिस्थिति और चुनौती को झेलने की क्षमता होती है। ‘सरलाईवल ऑफ़ दि फिटेस्ट’ डार्विन के इस सिद्धांत का भी यही तात्पर्य है। हर व्यक्ति को अपने जीवन में कठिनाइयों और समस्याओं का सामना करना होता है। यह एक सार्वभौम सत्य है।कोई घटना हो, व्यक्ति या फिर वस्तु, हम दो तरह से चीजों को देखते हैं। कभी हम पर प्यार का चश्मा चढ़ा होता है तो कभी डर का। लेंस बदलते ही हमारी पूरी सोच बदल जाती है। डर चीजों को एक रूप दे रहा होता है, तो प्रेम एक अलग ही धरातल। लेखिका व वक्ता गैब्रियल बर्नस्टेन कहती हैं, ‘हम इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं कि हमारी आंखें क्या देखती हैं? हम जिम्मेदार इस बात के लिए हैं कि उसे कैसे अपनाते हैं।’ समस्याओं को देखने के लिये भी सकारात्मक नजरिया बहुत अपेक्षित होता है। क्योंकि समय और परिस्थिति के अनुसार समस्याओं का रूपांतरण होता रहता है, पर जिंदगी के साथ उनका अटल संबंध है। वे पहले भी थी, आज भी हैं और आगे भी रहेंगी। जो सहिष्णुता, धैर्य एवं आत्मविश्वास का कवच धारण कर लेते हैं उनके लिए समस्याएँ भी समाधान बन जाती हैं। जो प्रगति के बाधक तत्त्व हैं, वे भी साधक और सहयोगी बन जाते हैं। जो सुविधाएँ सहज रूप से सुलभ हैं उनका उपयोग करने में कठिनाई नहीं हैं। पर उन्हें दिमाग पर हावी नहीं होने देना चाहिए। जिनकी मनोवृत्ति सुख एवं सुविधावादी हो जाती है उनके लिए छोटी-सी प्रतिकूलता को सहना कठिन हो जाता है। आज जिन राष्ट्रों में सुख-सुविधा के साधनों का विस्तार हो रहा है, वहाँ सहने का अभ्यास घटता जा रहा है। जिसके परिणामस्वरूप वहाँ नाना प्रकार के मनोरोगों की वृद्धि हो रही है तथा आत्महत्या के आँकड़े भी बढ़ते जा रहे हैं। क्योंकि हम जितना ध्यान रोगों को ठीक करने में देते हैं, उतना उनसे बचने में नहीं देते। दवा पर जितना भरोसा रखते हैं, उतना भोजन पर नहीं रखते। यही कारण है रोग पीछा नहीं छोड़ते। किसी ने कहा है, ‘हमें यह पता होता है कि कार के लिए कौन सा ईंधन सही है, पर हम ये नहीं जानते कि शरीर को ठीक रखने के लिए कौन से ईंधन की जरूरत है? हमें कैसा भोजन करना चाहिए?’ यही कारण है कि दुनिया भरी पड़ी है ऐसे लोगों से, जो अपनी भूमिका में खरे नहीं उतरते। लेकिन उनकी आलोचना करते रहने से हमें कुछ फायदा नहीं होगा। हम केवल सिक्के के दूसरे पहलू पर नजर रखकर ही अपना भला कर सकते हैं कि हमारे लिए आखिर बेहतर क्या है?

खुद के बारे में सच जानना हो तो जरूरी है कि आप यह महसूस करें कि आप एक बेहतर इंसान हैं। जो लोग खुद को बुरा मानते हैं, वे आमतौर पर हारे हुए और शर्म से भरे हुए, प्रताड़ित और टूटे हुए होते हैं। तो फिर सवाल उठता है कि अच्छाई आती कहां से है? यह एक ऐसा कठिन सवाल है, जिसका सामना धर्म, दर्शनशास्त्र और अब विज्ञान मिलकर कर रहे हैं। जीवन में ऊँचाई और गहराई का समन्वय आवश्यक है। हर व्यक्ति के मन में ऊँचाई पर पहुँचने का आकर्षण है, पर गहराई के बिना ऊँचाई भी वरदान नहीं होकर अभिशाप सिद्ध होती है। भारत की जीवनशैली में जो परिपक्वता है, स्थिरता है, यह ऊँचाई और गहराई के समन्वय का परिणाम है। इसी के परिणामस्वरूप विश्व के प्रबुद्ध लोगों के मानस में यहाँ के मौलिक आदर्शों और संस्कारों के प्रति आदर और आकर्षण का भाव रहा है। भारतीय दर्शन के अनुसार तरक्की की यात्रा अकेले नहीं हो सकती। जरूरी है कि आप अपने साथ दूसरों को भी आगे ले जाएं। उनके जीवन पर अच्छा असर डालें। इसके लिए बहुत कुछ करने की जरूरत नहीं होती। कितनी ही बार आपकी एक हंसी, एक हामी, छोटी सी मदद दूसरे का दिन अच्छा बना देती है। अमेरिकी लेखिका माया एंजेलो कहती हैं, ‘जब हम खुशी से देते हैं और प्रसाद की तरह लेते हैं तो सब कुछ वरदान ही है ।’

कुछ लोग कठिनाइयों के काँटों से घबराकर मार्ग बदलते रहते हैं। पर वे अपने जीवन में कभी भी शांति और सफलता के दर्शन नहीं कर सकते। जहाँ किसी प्रकार की कठिनाई और समस्या नहीं हो, इस प्रकार के जीवन की कल्पना एक दिवास्वप्न है, जो कभी भी सफल और सार्थक नहीं हो सकता। विश्व में जितने भी महापुरुष हुए हैं, उन्होंने नानाप्रकार के अवरोधों और संघर्षों का सामना किया है। जिस प्रकार अग्नि में तपने से सोने की आभा में नया निखार आता है, उसी प्रकार संघर्षों की आग में उनका आभामंडल और अधिक तेजस्वी और प्रभावशाली हो जाता है। हम चाहते हैं कि हमारी जिंदगी हमारे हिसाब से चले। हम ही अपने फैसले लें। अकसर लेते भी हैं। बावजूद खुश नहीं होते। अपने लिए फैसलों का दोष भी दूसरों पर ही मढ़ते हैं। हम अपनी मर्जी चलाने के बावजूद रोते रहते हैं, क्योंकि जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते। उपन्यासकार पेट्रिक नेस कहते हैं, ‘ये कहना कि मेरे पास कोई चारा ही नहीं है, खुद को जिम्मेदारियों से मुक्त करना है।’

आज हर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास चाहता है। लेकिन इसके लिए सहना और तपना जरूरी है। अंग्रेजी भाषा का प्रसिद्ध वाक्य है-‘फस्र्ट डिजर्व, देन डिजायर’ पहले योग्य बनो, बाद में सफलता की कामना करो। जो प्रगति और विकास के सपने को साकार करना चाहते हैं, उनके लिए इस वाक्य का मनन और अनुसरण करना जरूरी है। अधिकतर लोग साधना और तपस्या से बचने के लिए ‘शोर्टकट’ रास्ते की खोज करते हैं। इससे क्षणिक सफलता मिल सकती है, पर इसके दूरगामी परिणाम हानिकारक होते हैं। इसके कारण मानसिक और सामाजिक प्रदूषण उत्पन्न हो रहा है। विश्व के महापुरुषों ने पुरुषार्थ के बल पर हर परिस्थिति को झेलते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है। किसी भी कार्य के प्रारंभ में अवरोधों का सामना करना होता है। जो उनसे विचलित हो जाते हैं वे अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो सकते। जो धीरज से आगे बढ़ते हैं वे उन अवरोधों का निराकरण खोजने में सफल हो जाते हैं। जिंदगी उन्हीं का साथ देती है, जो अपने बल पर कुछ अलग करने की ठानते हैं। जितने बड़े सपने होते हैं, जीवन उतना बड़ा नजर आता है। अरमानों का यह फलक और बढ़ जाता है, जब सपने दूसरों से भी जुड़ जाते हैं। तब उनकी खुशी हम तक ही सीमित नहीं रहती। अमेरिका की पूर्व प्रथम महिला एलिनोर रूजवेल्ट कहती हैं, ‘भविष्य उनका होता है, जो सपनों की सुंदरता पर यकीन करते हैं।’

ललित गर्ग 

निर्माण विहार, दूसरा माला, दिल्ली-110

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