पत्रकारिता की शुरुआत मिशन के रूप समाजिक समरसता एवं राष्ट्रीय एकता अखंडता को बनाये रखने के लिए आजादी मिलने के समय की गई थी। वैसे पत्रकारिता के क्षेत्र में नारद जी को पत्रकारिता का आदिगुरु एवं आदिपत्रकार कहा जा सकता है, क्योंकि पहले व्यक्ति थे जो  तीनों लोको का भ्रमण करते एवं लोक कल्याण की समस्याओं का निदान कराते रहते थे। यह बात अलग है कि उस जमाने में अखबार, रेडियो, टेलीविजन अथवा चैनल नहीं थे और समाचारों का आदान – प्रदान जुबानी किया जाता था। अखबारों की शुरुआत तो आजादी से पहले भारतवासियों को एकजुट करके सविज्ञा आंदोलन में शामिल करके अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए हुई थी। आजादी के बाद इसमें वृद्धि हुई और अखबार के साथ साथ रेडियो टेलीविजन भी इसमें जुड़ गये।सेटलाइट लगने के बाद तो देश नहीं बल्कि दुनिया में संचार क्रांति आ गई तथा सूचनाओं के आदान – प्रदान के तमाम रास्ते खुल गये। इधर डिजिटल इंडिया का जमाना आ गया और सोशल मीडिया सभी मीडिया पर भारी पड़ने लगी है जिसके फलस्वरूप पत्रकारिता में गिरावट आने लगी है। आजादी के बाद कुछ समय तक तो पत्रकारिता हरामखोरी कालाबाजारी का पर्दाफाश करने के साथ – साथ गांव देश का सर्वांगीण विकास कर राष्ट्र को अखंड एवं मजबूत बनाने वाली थी लेकिन सत्तर के दशक के बाद इसमें भी गिरावट आने लगी और जबसे इसे उद्योग का दर्जा दे दिया गया, तबसे इसमें बड़े बड़े उद्योगपतियों का प्रवेश होने लगा और पत्रकारिता को मोहरा बनाकर गलत कार्य करने करवाने का दौर शुरू हो गया है। इसके बाद पत्रकारिता में जबसे टेलीविजन के अलावा प्राइवेट न्यूज चैनलों का प्रवेश इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के रूप में हुआ, तबसे तो पत्रकारिता नये आयामों पर आधारित हो गयी है और इधर सोशल मीडिया ने सभी मीडिया को पीछे ढकेल दिया है क्योंकि इन्टरनेट की दुनिया में लाखों करोड़ों अरबों लोग जुड़े हुए हैं। यहीं कारण है कि जबसे सोशल मीडिया सक्रिय हुई है तबसे अधिकारी कर्मचारी बातचीत करने में घबराने लगे हैं और हमेशा उन्हें वीडियो वायरल होने का भय बना रहता है।पत्रकारिता कोई जरूरी नहीं है कि किसी अखबार अथवा अन्य माध्यमों से जुड़कर की जायेगी क्योंकि स्वतंत्र पत्रकारिता का क्रेज आज भी यथावत बना हुआ है।आजकल किसी बड़े उद्योगपति के अखबार से जुड़कर पत्रकारिता नहीं की जा सकती है क्योंकि बड़े अखबार कमाई के चक्कर के आगे किसी पचड़े में नहीं फंसना चाहते हैं।यहीं कारण है कि आजकल वर्जन लेने के बाद ही समाचार प्रकाशित करने का प्रचलन है जबकि सत्तर के दशक में जिसके खिलाफ समाचार होता था उससे मिलकर उसकी बात को छापना पीत पत्रकारिता कही जाती थी और ऐसा करने वाले पत्रकार को हेय दृष्टि से देखा जाता था। पत्रकारिता के कई अंग होते हैं जो अलग अलग स्तर पर अलग अलग कार्य करते हैं।इसमें सबसे नीचले स्तर की पत्रकारिता को संवाददाता कहा जाता है लेकिन अब हर स्तर पर प्रेस के प्रतिनिधि के तौर पर बिठाये लोगों को एवं उनके कुछ कार्यालय सहयोगी संवाददाताओं को छोड़कर जल्दी संवाददाता की नहीं बल्कि समाचार सेवा संवादसूत्र न्यूज सर्विस आदि के रूप में अंशकालिक तैनाती की जाती है। रातदिन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद एक फौजी की तरह अपनी निजी सुविधा से पुलिस से पहले घटना स्थल पर पहुंचने एवं विपरीत परिस्थितियों में गाँव गलियों में छिपे दुखदर्द को सुर्खियों में प्रकाशित अथवा प्रसारित करने वाले हमारे पत्रकारों का दर्द आजतक किसी ने सुनने की कोशिश ही नहीं की। पत्रकारिता भी समाज से जुड़ी हुई है जब समाज में गिरावट आई है तब पत्रकारिता में भी गिरावट आना स्वाभाविक है इसके बावजूद पत्रकारिता की एक अपनी पहचान एवं जगह बंरकरार बनी हुयी है और इसी लिये हर आदमी गाड़ी में पत्रकार लिखवाकर थाना तहसील जिला पर हनन दिखाने के लिए पत्रकार बनने को बेताब है।इस समय  पत्रकार बनने का दौर जारी है और इस समय लोग अखबार एवं न्यूज चैनलों से जुड़कर जिला तहसील ब्लाक नगर पंचायत स्तर पर ऐनकेन प्रकारेण पत्रकार बनने के लिये बेताब हैं।फलस्वरूप हर स्तर पर पत्रकार बनने के लिए सौदेबाज़ी होने लगी है और इसके लिए एजेंसी के साथ विज्ञापन जरूरी होता जा रहा है। आजकल जिले के विभिन्न स्तरों पर पत्रकारों की तथाकथित न्युक्ति जिला स्तर के ब्यूरो की संस्तुति के आधार पर होने लगी है कहा तो यहाँ तक जा रहा है कि कुछ लोग तो ऐसे भी जिले के ब्यूरों होते हैं जो प्रतिमाह एक बंधी रकम देते रहने का सौदा करते हैं जबकि कुछ नकद भी ले लेते हैं।अखबार का लक्ष्य प्रसार और राजस्व विज्ञापन रहता है और यही एक उद्योगधंधे का उद्देश्य भी होता है लेकिन इस उद्देश्य की पूर्ति करने के चक्कर में पत्रकार को ग्रामीण पत्रकार से घनचक्कर बना दिया गया है। प्रमुख, बीडीओ, सेक्रेटरी, प्रधान, एसडीएम, तहसील, रजिस्टार, अस्पताल, कोतवाली ही विज्ञापन के साथ – साथ प्रचुर समाचार के आधार होते हैं और पत्रकार अगर इनसे विज्ञापन लेता है तो उनके विभाग की कोई गड़बडी नहीं छाप सकता है और समाचार छाप देता है तो विज्ञापन नहीं देते हैं। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में ग्रामीण पत्रकारों को पत्रकारिता बचाये रखने के लिए बहुत ही समन्वय बनाना पड़ता है। ग्रामीण पत्रकार पत्रकारिता की जान कहा गया है लेकिन पत्रकारिता के ठेकेदार उस जान को बेजान बनाने में लगे हैं।आजकल मंहगाई के जमाने में मजदूर को भी ढाई तीन सौ रूपये रोजाना मिलते हैं, लेकिन ग्रामीण पत्रकारों को सौ रूपये भी रोज नहीं मिलते हैं। पत्रकारों की बढ़त अच्छी बात है बुरी नहीं है, लेकिन ध्यान देने की बात है इस पवित्र पेशे में अराजक तत्व खाने – कमाने लूटने वाले न घुसने पाएं, जिसकी आज शुरुआत हो गई हैे।
  – भोलानाथ मिश्र
 वरिष्ठ पत्रकार/समाजसेवी
रामसनेहीघाट, बाराबंकी, यूपी

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