मदिरालय जाने को घर से

चलता है पीनेवाला,

‘किस पथ से जाऊँ ?’
असमंजस में है वह भोलाभाला;
अलग-अलग पथ बतलाते सब
पर मैं यह बतलाता हूँ-
‘राह पकड़ तू एक चला चल,
पा जाएगा मधुशाला’।
पौधे आज बने हैं साकी

ले-ले फूलों का प्याला,
भरी हुई है जिनके अंदर
परिमल-मधु-सुरभित हाला,
माँग-माँगकर भ्रमरों के दल
रस की मदिरा पीते हैं,
झूम-झपक मद-झंपित होते,
उपवन क्या है मधुशाला !
एक तरह से सबका स्वागत
करती है साकीबाला
अज्ञ-विज्ञ में है क्या अंतर
हो जाने पर मतवाला,
रंक-राव में भेद हुआ है
कभी नहीं मदिरालय में,
साम्यवाद की प्रथम प्रचारक
है यह मेरी मधुशाला।
छोटे-से जीवन में कितना
प्यार करूँ, पी लूँ हाला,
आने के ही साथ जगत में
कहलाया ‘जानेवाला’,
स्वागत के ही साथ विदा की
होती देखी तैयारी,
बंद होने लगी खुलते ही
मेरी जीवन-मधुशाला !

– हरिवंश राय बच्चन

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