” प्रेम बादल नहीं, आकाश लगता है ” – यह पंक्ति है, हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ कवि मोहन सपरा की, जिसको उन्होंने ” रंगों में रंग  … प्रेम रंग ” में समाविष्ट किया है | ऐसा उन्होंने क्यों लिखा ? इसलिए कि वे प्रेम भरे जीवनरूपी रंग में गहरे उतरे हैं और उसकी चरम अनुभूति की है | ऐसी ही कुछ अनुभूति कीट्स और यीट्स [ WB ] ने की थी | वैसे जब से इंसान के हृदय में कविता फूटी, प्रेम का संचार हुआ और कविता में प्रेम निष्पन्दित हुआ | वास्तव में प्रेम ही जीवन है और जीवन ही प्रेम है | प्रेम का फैलाव ही जीवन को जीवन देता है | ऐसे में प्रेम कवियों की लेखनी से परे कैसे रह सकता है ? जबकि यथार्थ यह है कि जब प्रेमदृष्टि नहीं, तो कविता का अस्तित्व ही नहीं है | वास्तव में कवि के उक्त काव्य-पंक्ति में पूरा जीवन-दर्शन निहित है | इतने  शिखर-उदात्त चिंतन हेतु उन्हें साधुवाद ! 
प्रेम काव्य सर्जकों के हृदय का भी अधिवासी है, जो उनकी कृतियों को अनुभूति के हिसाब से  भावों को नवाकार और नवाचार की ओर रहनुमाई करता रहता है | ऐसे में कोई भी कविता प्रेम के अभाव में रची ही नहीं जा सकती | प्रेम स्त्री-पुरुष के मध्य संबंधों तक सीमित नहीं होता | इसके विविध रूप होते हैं | प्रेम में पगकर ही काव्य-रचना संभव है | चाहे वह शोषित, दमित और उत्पीड़ित की व्यथा का चित्रण ही क्यों न हो, यदि भुक्तभोगी अथवा अथवा अभिशप्त के प्रति प्रेम, लगाव और आकर्षण नहीं होता, कविता मूर्तरूप ले ही नहीं सकती | कवि बिना प्रेम, आशनाई , असक्तता और संलग्नता के शब्दों को काव्य में कन्वर्ट नहीं कर सकता | 
जिसे दुनिया का पहला पद्यांश कहा जाता है – ” द लव सांग ऑफ शू-सिन ” – वह प्रेम का प्रचलित रूप है | इसी प्रकार ” वह तोड़ती पत्थर ” भी मानव-प्रेम का प्रतिफल है | इसलिए दैहिक और वासनात्मक प्रेम के अतिरिक्त  प्रेम का बृहत आकाश है | 
यदि हम प्रेम के प्रचलित और सीमित अर्थ पर जाते हैं, तो इसके आकाशीय धरातल की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती | हिंदी काव्य में प्रेम के धरातल की सघन खोज और नाना प्रकार की अनुभूतियां मौजूद हैं | प्रेम के अनेक संबंधों, प्रकारों और आयामों का बयान है | 
सूर, कबीर, तुलसी,चंद बरदाई, मीराबाई, भारतेंदु, घनानंद, बिहारी आदि ने मानवीय और आध्यात्मिक प्रेम के जो काव्यमय शब्द पिरोए हैं, उनकी अनुभूतियां बड़ी लाजवाब और लाज़वाल हैं | इन सबमें प्रेम का सतत प्रवाह न कहीं थमता है और न कहीं बोझिल होता है | सभी युगों और कालों में कवियों की कृतियों की ‘ प्रिय वस्तु ‘ प्रेम रही है, क्योंकि प्रेम बिना कविता की पंक्तियां उकेरी ही नहीं जा सकतीं | 
आधुनिक काल में भी ‘ उच्चारित प्रेम ‘ के साथ जिन कवियों की रचनाएं अधिक उल्लेखनीय हैं, उनके नाम हैं –
सर्वश्री अज्ञेय, हरिवंशराय बच्चन, महादेवी वर्मा, धर्मवीर
भारती,केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह, अशोक वाजपेई, नरेंद्र शर्मा आदि | इन नामों में अनिल जनविजय का इस मायने में  कोई सानी नहीं है, क्योंकि उन्होंने ही सबसे अधिक उच्चारित प्रेम कविताएं लिखी हैं |        
समीक्ष्य पुस्तक ” रंगों में रंग  …. प्रेम रंग ” में शीर्षक के अनुरूप प्रेम के विविध रंग भरे गए हैं | निश्चय ही,इस कार्य में कवि की निपुणता हैरत में डालनेवाली है, क्योंकि यह इतने आयाम लेती है कि पाठक दम-बख़ुद हो जाता है और वह न चाहते हुए भी काव्य-नभ में अपनी उड़ान भरने लगता है | प्रेम, जो प्रतीक्षा में रहता है, थोड़ी-सी ऊर्जा पाकर इतराने लगता है –
” प्रेम प्रतीक्षा में है 
चंदू का बबलू कि कब मेरे 
मुन्ना का रंग-बिरंगा नेकर फटे
औ ‘ वह इतरा सके | “
कवि का प्रेम उसे चीन्हता है, जो उसका माख़ज़ और स्रोत है | वह अंततः वहीं लौटकर आता है, जहां से वह चला | कितनी बड़ी रूहानियत आई हुई है कवि की कल्पना में | गीता में भगवान कृष्ण के उपदेश का यह मर्म ही तो है, जिसे कवि ने अपने शब्दों में उजागर किया है, बड़े ही क़रीने और सलीक़े से –
” उसने मझसे फिर-फिर-फिर कहा, प्रेम का रास्ता 
मुझ तक आता है 
मैंने उसे ग़ौर से देखा 
औ ‘ कह दिया, आ गले लग जा |”
प्रेम सब पर आच्छादित है | प्रभु का भी इससे पृथक अस्तित्व नहीं है | प्रेम का विश्वजनीन रूप है, एक प्रकार का प्रकाश है, जिसके सभी तलबगार हैं | अनिवार्य रूप से इसकी आत्मीयता के सभी क़ायल हैं, सबको भाती है –
” तुम कहते हो प्रेम, बादल है 
मुझे, प्रेम बादल नहीं 
आकाश लगता है 
पूरे विश्व को ढकता है, आत्मीय |”
कवि प्रेम का दायरा बढ़ा देता है | उसे नवाकार देता है | उसको समय के साथ सामंजस्यता का परिधान पहनाकर नाना प्रकार के अर्थ देता है, अर्थकोश बना देता है – 
” प्रेम में समय 
एक संयोग-क्षण को याद दिलाता 
रोम-रोम से अर्थकोश हो जाता है 
शब्दों का समुद्र 
प्रेम में समय 
कभी |”
प्रेम में जब दरार पड़ती और उसकी नैसर्गिकता भंग होती है, तो कवि का सवाल करना लाज़िमी है | फिर यदि कवि दार्शनिकता के साथ काव्याकाश में गोताज़न हो, तो बात ही क्या ? कवि कह उठता है –
” आओ, टूटे फूल से पूछें 
चिलचिलाती धूप से पूछें 
बहते-मचलते पानी से पूछें 
यह कैसा प्रेम है ?”
धन्य है ” रंगों में रंग  … प्रेम रंग ” का कवि | उसके चिंतन की उड़ान निराली है, इतनी कि वह वैर के भी अस्तित्व-शेष में प्रेम की खोज कर शेष को प्रेम बताता है | मुलाहिज़ा करें कवि की कुछ पंक्तियां –
” लड़ाई, जो पसीने के लिए होती है 
लड़ाई, जो हंसने के लिए होती है 
लड़ाई, जो खाने-पीने-सोने के लिए होती है 
यानी लड़ाई 
जो अपने अस्तित्व के लिए होती है 
अरे, लड़ाई भी तो 
हर क्षण, हमें भूलने नहीं देती 
जो कुछ शेष है 
प्रेम है |”
प्रेम का गणित प्रेम है | इसका प्रसार प्रेम से होता है | इसीलिए कवि कहता है –
” तो तुम, केवल तुम 
रोशनी बनकर पसरी होती हो 
मुझमें 
अंदर-बाहर 
शायद यही है –
प्रेम का गणित |”
प्रेम का उत्कर्ष प्रिय की खोज है | फिर उससे मिलन की उत्कंठा पैदा होती है | जब तक मिलन नहीं होता खोज का जारी रहना स्वाभाविक ही है | खोज में वह अन्य उपादानों के साथ शब्द रूपी साधन का भी  सहारा लेता है – 
” समझ-बूझ लो 
बहुत दूर बैठे हुए भी 
तटस्थ नहीं हूं |  
शब्दों में 
प्रेम की खेती उगा रहा हूं 
आंखों में समय तराश रहा हूं |”
प्रेम यदि दूरस्थ अवस्थित तब भी कवि चिंतित नहीं होता, क्योंकि वह प्रेम के मर्म को जान चुका है | ऐसे में चाहे दूरी हो या नज़दीकी, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता | जब उसने मर्म जान लिया, तो जीवन का राजमार्ग खुल गया | फिर इंसानियत के धर्ममार्ग के प्रशस्त होने में कितनी देर है | कवि के शब्दों में –
” तुमसे दूर रहकर
प्रेम का मार्ग 
जान गया हूं | 
मानव-धर्म पहचान गया हूं |” 
इतनी लंबी,दुर्गम और उद्भिज मार्ग का सफ़र करने के बाद कवि को अपने गंतव्य तक पहुंचना ही था | आख़िरकार वह पहुंच ही अपनी मंज़िल तक, उस मंज़िल तक जहां रिश्ते- नातों आदि की डोर टूट जाती है और वह सिर्फ़ अपने प्रिय एवं आराध्य का हो रहता है –
” सच तो यही है –
कि प्रेम में 
आदमी निडर हो जाता है 
अतिरिक्त रिश्ते भूल जाता है 
शायद, इसी को ‘ ईश्वर ‘ हो जाना कहते हैं |”
मानव-धर्म सारी सृष्टि का धर्म है | इसको जानने-पहचानने के बाद पशु-पक्षियों के प्रति नैमित्तिक प्रेम का परचना सहज और स्वाभाविक है | कवि इस प्रेमरस में भी डूबता और और अपने कर्तव्य में लग जाता है | इसका वर्णन कवि इन शब्दों में करता है –
” प्रेम ही तो है, जब मैं, चिड़ियों, कौओं के लिए 
बाज़ार से विशेष तौर से ख़रीद लाता हूं, मिट्टी का बर्तन 
औ ‘ रोज़ उसमें पानी उढ़ेल देता हूं –
रोटी के छोटे-छोटे टुकड़े रात को ही 
उसके पास रख देता हूं, प्रेम ही तो है |”
कवि कहता है कि प्रेम के वसीतर से वसीतर होते रहना उसका गुणधर्म है | इसी प्रेम के सहारे बीज वपित होकर अंकुरित, पल्ल्वित, पुष्पित और तनावर होते हैं –
” बीज ने समर्पण किया 
औ ‘ फूल बन गया 
वृक्ष बन गया 
प्रेम संग, प्रेम ही तो हुआ |”
क्या प्रेम का कोई रंग-रूप है ? नहीं, निराकार है वह, लेकिन हर जगह व्याप्त है | सबको मुहीत किए हुए है | वह हवा सदृश है –
” प्रेम 
एक अदद झोंका, नहीं 
हवा है
हवा ही हवा |”
प्रेम का अस्तित्व क्या है ? राग है वह, जिसकी लय पर सृष्टि चलायमान है, चाँद, सितारों, सूर्य आदि  गर्दिश तथा अस्तित्व है | लेकिन इनका भी हाल यह है कि सभी ‘ महाशून्य ‘ के दायरे में हैं | कवि कहता है –
” प्रेम 
हर लहर में 
ख़ामोश नहीं रहता 
राग बन जाता है 
प्रेम, 
महाशून्य में |”
प्रेम महाशून्य का दामन इसलिए पकड़ता है, क्योंकि वही सत्य और अमर्त्य है –
” प्रेम, मिट्टी का 
जल से, विचित्र है 
शायद इसीलिए 
प्रेम सत्य है, अमर्त्य है |”
समीक्ष्य पुस्तक की सभी कविताएँ एक  बढ़कर एक हैं | सभी का नवीन स्वर, नवीन भाव और नवीन दर्शन है | उदात्त अभिव्यक्ति देखते ही बनती है | पुस्तक के अंत में लगा ‘ अनुकथन ‘ एक अन्य दृष्टिकोण की तलाफ़ी करता है | आवश्यक नहीं कि इससे हर कोई सहमत हो, लेकिन एक गंभीर विवेचन अवश्य है | 103 पृष्ठीय इस पुस्तक की छपाई शानदार है | ग्राफिक्स बड़े भावपूर्ण और ज़ोरदार हैं, एतदर्थ मनोज छाबड़ा जी को हार्दिक बधाई | कविताओं प्रेम को ख़ुसूसी दस्तक देते कवि मोहन सपरा को बेशुमार नेक ख़ाहिशात और शुभकामनाएँ !
– Dr RP Srivastava 
Editor-in-Chief, Bharatiya Sanvad

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