भाई अख़लाक़ अहमद ज़ई की दो पुस्तकें मिलीं | ‘हरकारा’ जो पत्र संकलन है और दूसरी जेबकतरा जो लघुकथा संग्रह है। अभी हरकारा पढ़ी है। तेज़ी से लुप्त हो रही पत्र लेखन विधा को संबल देती हरकारा लेखक का जीवन दर्शन भी है। वैसे अब यह विधा बहुत कुछ पत्र पत्रिकाओं में छपने वाले संपादक के नाम पत्र तक सिमट चुकी है। हरकारा को पढ़कर मुझे राष्ट्रीय पत्र लेखक मंच की याद आ गई, जिसने दशकों तक सक्रिय रहकर विशेषकर हिंदी साहित्य जगत में पत्र लेखन विधा को संपुष्ट किया । मैं इस मंच का लगभग दो दशक तक मंडलीय संयोजक रहा। इसके राष्ट्रीय संयोजक थे आनंद शर्मा जी और संरक्षक थे चिपको आंदोलन के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा और अज्ञेय जी। खैर यह विषयांतर है….खुशी की बात है किअख़लाक़ भाई की हरकारा में इस्लाम पर केंद्रित कई मज़ामीन व पत्र हैं। ख़वातीन अर्थात स्त्रियों की व्यथा कथा का किंचित विस्तार भी है, जो लेखक की अभिरुचि को भी दर्शाता है।यह मेरा सौभाग्य और दुर्भाग्य दोनों है कि मैंने देवबंद से फाजिले दीनियात किया है। ज्ञान मेरा सौभाग्य है और जब कोई मेरे ज्ञान पर अन्यथा लेता है, तो उसे मैं दुर्भाग्य समझता हूं। अतः फितरी बात है कि इस्लाम के बारे में कुछ जानकारी रखता हूं। वैसे इल्म हासिल करना स्त्री और पुरुष दोनों के लिए अनिवार्य है, लेकिन मैं उन तथाकथितों का साथ नहीं दे पाता जो यह हदीस मंसूब करते हैं कि ज्ञान प्राप्ति के लिए चीन भी जाना पड़े तो जाओ। इसकी वजह यह है कि यह हदीस जईफ है, जिसमें सहीह हदीस के किंचित गुण नहीं हैं। वैसे हदीस की प्रमाणिक पुस्तकें यहां तक कि बुखारी और मुस्लिम भी इनके समावेश से ख़ाली नहीं हैं। हां, इनमें अल्पता ज़रूर है।जो भाई बंधु इस्लाम को ठीक से नहीं जानते, वे इस्लाम को अपार क्षति पहुंचाते हैं, इसीलिए मैंने कभी संपादकीय में लिखा था इस्लाम को सबसे अधिक क्षति मुसलमानों ने ही पहुंचाई है। इस अग्रलेख की बड़ी पजीराई हुई थी। एक प्रतिक्रिया यह आई कि इस ओर कोई ध्यान नहीं देता।मैं भी मानता हूं कि मुसलमानों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है, लेकिन यदि इसका दुरुपयोग न हो, तो फलाह व बहबूद के तमाम रास्ते खुल सकते हैं। इस संदर्भ में मैं भाई अखलाक को मैं दाद देता हूं कि उन्होंने इस्लाम को समझने समझाने की कोशिश की है।मैं हरकारा के मतन पर विस्तार में जाऊं, तो काफ़ी लिखना पड़ेगा, इसलिए अधिक विस्तार में नहीं जाऊंगा। इसके रचनाकार अखलाक भाई इतने व्यवहार कुशल और सिद्धहस्त हैं कि कुछ ऐसी बाते लिखने से दिल पीछे हटता है जो उन्हें ठेस पहुंचायें, फिर भी मानव कल्याण और इस्लाम के पेशेनज़र कुछ लिखने का साहस जुटाता हूं। यहां यह वाजेह करता चलूं कि मैं सभी धर्मों का आदर करता हूं और इसकी शिक्षाओं में किसी कतर ब्योंत का हिमायती भी नहीं हूं।सबसे पहले नया ज्ञानोदय के नाम पत्र… पृष्ठ ,49,50,51… शीर्षक वाले मजमून पर आता हूं, क्योंकि इसने मेरे दिल को भी दुखाया है। इसमें कबीर के दोहे… कांकर पाथर जोरि के … के संदर्भ में अज़ान का अर्थ बताते हुए उसके वाक्यों का उल्लेख किया गया है। इसमें बड़ी गलतियां हैं।रिसालत का इन्कार है। इस पर किसी दारुल इफ्ता से फतवा आ सकता है दीने इस्लाम से ख़ारिज होने का, जैसे बहाई, कादियानी, दीनदार अंजुमन आदि इस्लाम से ख़ारिज हैं, क्योंकि रिसालत के मुनकिर हैं। सऊदी अरब के पूर्व प्रमुख क़ाज़ी मौलाना शाह बिन बाज के पास इसी आधार पर शिया हज़रात को इस्लाम से पृथक करने का वाद आया था, जिस पर शिया नेताओं ने रिसालत को माना। रिसालत स्वीकार से मेरा आशय हज़रत मुहम्मद साहब को अंतिम नबी मानना है। हरकारा के प्रिय लेखक अज़ान के बोलों से रिसालत को गायब फरमाते हैं, जो इसका नागुजीर हिस्सा है। हरकारा के पृष्ठ 50 पर है/ अज़ान का मतलब है ख़बर करना कि नमाज़ का वक्त हो गया है/ अज़ान का सही अर्थ है पुकारना, जिसमें ईश प्रशंसा और भक्ति सब शामिल है। यह शब्द कुरआन से लिया गया है…22.27… अल्लाह ने हज़रत इब्राहीम को आदेश दिया कि लोगों को हज के लिए पुकारो। हज़रत मुहम्मद साहब के समय इबादत के वक्त की जानकारी देने के लिए ईसाई घंटी बजाते और यहूदी शंख। अतः हज़रत उमर साहब के परामर्श पर हज़रत मुहम्मद साहब ने .. जाओ नमाज़ नमाज़ पुकारो.. को मंजूरी दी, बुखारी 604, मुस्लिम 377. हज़रत बिलाल को मुअज्जन बनाया गया। सहीह हदीसों के अनुसार, कयामत के दिन मुअज्जिन की गर्दन सबसे ऊंची होगी. मुस्लिम.387. आजकल लाउड स्पीकर के इस्तेमाल ने अज़ान की सही शक्ल को मुतास्सिर किया है और यह तनाव का एक कारण भी है। मैं इसे धर्म विरुद्ध और बिदअत मानता हूं।हरकारा के प्रिय लेखक से अज़ान के बोल उद्धृत करने में बड़ी चूक हुई है। लेखक को भावावेश में नहीं आना चाहिए था। देखिए क्या लिखा गया है…अल्लाह हो अकबर..2…अल्लाह सबसे बड़ा है।अशहदुअल्ला इलाहा इल्लल्लाह..2..मैं गवाही देता हूं, अल्लाह के सिवाय कोई इबादत के लायक नहीं।हय्या अलस्सलाह ..2… आओ इबादत की तरफ़।हय्या अललफलाह..2.. आओ कामयाबी की तरफ़।अस्सलातु खैरूं मिनननीम.. नमाज़ नींद से बेहतर है।…यह लाइन केवल फज्र की अज़ान में बोली जाती है।…अल्लाह हो अकबर..अल्लाह सबसे बड़ा है।ला इलाहा इल्लल्लाह…. अल्लाह के सिवाय कोई इबादत के लायक़ नहीं।हरकारा के पृष्ठ 50 पर अज़ान के ये बोल बताए गए हैं। अज़ान के सही बोल इस प्रकार हैं ….अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबरअल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह सबसे बड़ा है… दो बार…अशहदुअल्ला इलाह इल्लल्लाहमैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं.. दो बार..अशहदु अन न मुहम्मदुर रसूलुल्लाहमैं गवाही देता हूं कि मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं… दो बार..हइ य अलस्सलाहआओ नमाज़ की ओर.. दो बार..हइ य अल ल फलाहआओ सफलता की ओर .. दो बार…अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबरअल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह सबसे बड़ा हैला इलाह इल्लल्लाहअल्लाह के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं।उक्त बोलों का मिलान करें तो अंतर साफ़ पता चलेगा । रिसालत की लाइन ही गायब है। …खैरूं मिनननीम लिखा गया है , जबकि खैरुम मिनननौम होना चाहिए। इस लाइन सामान्यतः अज़ान के बोलों में लिखा नहीं जाता, क्योंकि यह अपवाद है। मदरसों में अज़ान के बोलों में यह लाइन लिखने को गलत बताया जाता है। यह भी बताया जाता है कि इसे लिखना हो तो फुटनोट में लिखो। हरकारा के लेखक ने अल्लाहु अकबर को भी गलत लिखा है और छह बार कहने के बजाय सिर्फ़ तीन बार कहा है।एक गोष्ठी में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के शैलेश ज़ैदी भाई बजा फरमा रहे थे कि कबीर से मंसूब कई ऐसी बातें हैं, जिन पर आपत्ति की जा सकती है। हुआ भी यही होगा कि कबीर पर मढकर अपनी परितुष्टि, क्योंकि कबीर को इस्लाम से अनभिज्ञ नहीं माना जा सकता। अज़ान में प्रयुक्त अकबर शब्द को कुछ नाजानकर लोग सम्राट अकबर से जोड़कर अनर्थ कर डालते हैं। उपर्युक्त पत्र में महेश भट्ट का उल्लेख करना असंगत मालूम होता है।हरकारा में कुल 42 पत्र हैं, जिनमें कई पत्र, लेखक द्वारा विभिन्न पत्र पत्रिकाओं को लिखे गए पत्र भी हैं और वे पत्र भी हैं जिन्हें अखलाक भाई के मित्रों और साहित्य मनीषियों ने उनके पास भेजे। इसमें खुद को नकारने की ज़िद है.. पृष्ठ 16 से 21… शीर्षक लेख भी है, जिसमें स्त्री दशा का चित्रण है। यह लेख पहले कहां छपा और किस शक्ल में छपा, इसका उल्लेख नहीं है। लेकिन यह पत्र नहीं लगता। इसमें पृष्ठ 19 पर कहा गया है, हिंदू धर्म में महिलाओं के प्रति अधिक जड़ता है। उन्हें मात्र भोग्या से अधिक कुछ नहीं समझा जाता, लेकिन मुस्लिम महिलाओं की धार्मिक स्थिति ऐसी नहीं है। यह आपत्तिजनक है। गैर जिम्मेदाराना भी। यहां मैं अभी तुलना करने नहीं जा रहा, पर एक निवेदन ज़रूर है कि आधी आबादी को लेकर किसी धर्म पर इस किस्म की टिप्पणी किसी साहित्यधर्मी को शोभा नहीं देती और न ही यह जेब देता है कि आधी आबादी का लिहाज़ न किया जाए। मेरा यह पुराना निवेदन रहा है, जिसे मैं यहां दोहरा देना मुनासिब समझता हूं कि जब भी कुछ गंभीर लेखन हो , तो संबंधित विषय की पुस्तकों, रचनाओं का गहन अध्ययन कर लिया जाए। यह ज़रूर है कि कथित सेकुलरवादियों ने अपने अधकचरेपन के कारण हिन्दू महिलाओं पर निराधार ही ऊलजलूल टिप्पणियां कर डाली है और उन्हें फैलाव दे दिया है। अतः जब पढ़ना हो, तो पक्ष विपक्ष दोनों का साहित्य पढ़ा जाए। फिर लिखा जाए,जैसा कि मैं करता हूं।कुरआन के प्रावधानों को सही और स्वाभाविक ढंग से समझा जाना चाहिए। हरकारा के पृष्ठ 19 पर ही लिखा गया है कि कुरआन जायदाद में .. बहन का भी… हिस्सा तय करता है। कुरआन एक तरफ़ जहां औरत मर्द में फर्क करने की सजा मुकर्रर करता है, वहीं हिदायत देता है- ऐ ईमान वालो तुमको जायज़ नहीं कि औरतों को बपौती मानकर ज़बरदस्ती उन पर कब्ज़ा कर लो … सूरतुन निसा।सूरह निसा कुरआन की चौथी सूरह है, जिसका अर्थ है औरतें। इसी का लेखक ने हवाला दिया है। इसमें बपौती वाली यह आयत मुझे नहीं मिली। यह आयत ज़रूर मिली कि तुम्हारे लिए जायज़ नहीं कि स्त्रियों के माल के ज़बरदस्ती वारिस बन बैठो..4.19… अगर लेखक को जानकारी हो तो कृपया मेरी जानकारी में अभिवृद्धि कर दें, शुक्रगुजार रहूंगा।इस लेख में महर को भविष्य निधि के समान बताया गया है। है भी यह सुरक्षा कवच, लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यवहार पक्ष कमज़ोर है। भारतीय संदर्भ में देखें तो सामान्यतः मुस्लिम महिलाओं को जायदाद में हक नहीं मिलता। इस बाबत हुए कई सर्वेक्षणों में यह बात सामने आ चुकी है। रही बात महर की, जिसमें भी धांधली की जाती है। महर माफ़ का खेल चलता रहता है, जबकि कुरआन में महर खुशी से अदा करने का आदेश है..4.4..। वैसे इसका महिलाओं की आर्थिक स्थिति पर कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि इस्लामी शरीअत को महर की कमी उसके प्रति संतुलित दृष्टिकोण को पसंद करती है.. हिन्दुस्तानी मुसलमान- एक दृष्टि में, मौलाना सैयद अबुल हसन अली नदवी, पृष्ठ 43…’हरकारा’ के लेखक्र को स्त्री हित की चिंता ज़रूर है और होनी भी चाहिए। इस संदर्भ में मैं भाई अख़लाक़ की कई बातों से सहमत हूं और उन्हें बधाई भी देता हूं। यह भी मसर्रत की बात है कि हरकारा के प्रिय लेखक अपने विचारों को हंस में प्रकाशित करवा सके। लेखक की योग्यता, क्षमता सराहनीय है। हंस में मैंने एक बार प्रकाशनार्थ सामग्री भेजी थी। बड़ा कटु अनुभव हुआ। हुआ यह था कि भारतीय मुसलमानों पर केंद्रित हंस के विशेषांक की प्रतिक्रिया में 13 फुल स्केप पृष्ठों पर आधारित पत्र दिया। राजेंद्र यादव जी के दस्तख़त वाला पोस्टकार्ड मिला, जिसमें लिखा था कि सामग्री स्वीकृत हो गई है। अगले अंक में प्रकाशित होगी। मुझे प्रसन्नता हुई कि चलो इस बहाने तथाकथित सेकुलरवादी भी मेरा विचार पढ़ लेंगे, लेकिन यह मेरा मुगालता था। जब अगले अंक में मेरा पत्र नहीं छपा, तो मैंने दरियागंज स्थित हंस के दफ़्तर में फ़ोन किया।राजेंद्र यादव जी से बात करनी चाही। फ़ोन यादव जी को दिया गया। जैसे ही मैंने उन्हें अपना नाम बताया, उन्होंने तपाक से फ़ोन किसी भद्रा महिला को दे दिया। उन्होंने बताया कि आपका मैटर अभी भी कंपोज रखा है। कापी जब अंतिम दर्शन के लिए यादव जी के पास ले जाई गई, तो उन्होंने आपके लेख को एक बार फिर पढ़ा और उसे न प्रकाशित करने का निर्देश दिया। धन्य हैं ऐसे सेकुलरवादी।
हलाला क्या है ? शीर्षक पत्रोत्तर में गलतबयानी साफ़ झलकती है। लेखक का कहना है कि डा. महाराज कृष्ण जैन के खत का जवाब उन्होंने इसलिए नहीं दिया, क्योंकि उन्हें हलाला के बारे में कम जानकारी थी ( पृष्ठ 101)। लेकिन अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि लेखक ने इसमें जो जानकारी दी है वह कुरआन विरोधी होने के साथ ही भ्रमकारी बन गई है। लेखक ने दो पेजी मन्तव्य में लिखा है कि … कुरआन और हदीस से बिलकुल साफ़ है कि तलाक दो बार है जो एक एक महीने के अंतराल पर देना है। … साथ ही हरकारा के पृष्ठ 102 पर लिखा है … दरअसल ये वही लोग हैं जो एक बार के तलाक को तीन तलाक मानकर तलाक दिलाते हैं और बाद में हलाला के जरिए उसी से दोबारा शादी कराते हैं।… लेखक ने वहां .. एक बार के तलाक को … लिखकर और समस्या पैदा कर दी है। कुरआन ( 2.229) में है.. तलाक दो बार है।फिर सामान्य नियम के अनुसार ( स्त्री को) रोक लिया जाए या भले तरीके से विदा कर दिया जाए।लेखक के अनुसार, इसके लिए एक हदीस में हिदायत भी है कि तीन तलाक़ होने तक औरत घर छोड़कर न जाए । हो सकता है कि इस बीच सुलह हो जाए दोनों में । हां, तीसरे तलाक़ के लिए कहा गया है कि यदि तीन माह 10 दिन ( इद्दत की मुद्दत) गुज़र जाने के बाद सुलह नहीं होता है तो तीसरा तलाक़ अपने आप हो जाएगा । ( पृष्ठ 101) उक्त विवरण में एक, दो और तीन तलाक़ का ज़िक्र आया है। कहना क्या है और कहा क्या जा रहा है? स्थिति साफ़ नहीं हुई, गुंजलक हो गई। आइए तलाक़ को समझते हैं, जो अब सभी बड़े धर्मों में किसी न किसी प्रकार मौजूद है। इस्लाम में इसका स्पष्ट प्रावधान है, हालांकि फ़कीहोंं और उलमा में सर्वसम्मति का अभाव रहा है। कुरआन, सीरत, अहादीस और कुछ दर्जे तक फकीहों और आलिमों की सहमति पर आधारित तलाक़ का सही तरीक़ा यह सामने आता है —अगर पति – पत्नी का एक साथ रहना असंभव हो जाए और तलाक़ देना अनिवार्य हो जाए तो उसका सही तरीका यह है कि जब पत्नी मासिक धर्म से पवित्र हो जाए और पति ने उससे संभोग न किया हो तो एक बार तलाक़ दे। फिर जब पवित्र मास बीत जाए और मासिक धर्म आ जाए और फिर जब उससे पवित्र हो जाए तो दूसरी तलाक़ दे । फिर इसी प्रकार पवित्र मास बीत जाए और मासिक धर्म के बाद फिर पवित्र मास आ जाए तो तीसरी तलाक़ दे। इस तीसरी तलाक़ के बाद दोनों को सदैव के लिए अलग कर दिया जाएगा। इसे तलाक़ ए बाइन कहते हैं। तलाक़ ए बाइन के पश्चात अगर पत्नी ने किसी और से विवाह कर लिया और उससे संभोग करने के पश्चात तलाक़ हो गई या इस दूसरे पति का देहांत हो गया तो ऐसी स्थिति में वह अपने पहले पति से दोबारा विवाह कर सकती है, जिसको हलाला कहते हैं। इसके बिना वह पहले पति से विवाह नहीं कर सकती।( कुरआन मजीद इंसाइक्लोपीडिया, पृष्ठ 349, मकतबा दारुस सलाम, रियाज़, 2010 ई. )जिसे हलाला कहा जाता है उसकी प्रक्रिया का स्पष्ट उल्लेख कुरआन की सूरह अल बक़रह की आयत संख्या 230 में आया है, जिसमें कहा गया है कि – ( दो तलाकों के पश्चात) फिर यदि वह उसे तलाक़ दे दे तो इसके पश्चात वह उसके लिए वैध न होगी, जब तक कि वह उसके अतिरिक्त किसी दूसरे पति से निकाह न कर ले। अतः यदि वह उसे तलाक़ दे दे तो फिर उन दोनो के लिए एक दूसरे को पलट आने में कोई गुनाह न होगा। ( पवित्र कुरआन, हिंदी अनुवाद- डा. मुहम्मद अहमद, मधुर संदेश संगम, नई दिल्ली)मौलाना अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि फिर अगर वह ( तीसरी बार ) तलाक़ दे दे तो इसके बाद वह उसके लिए हलाल न होगी यहां तक कि उस औरत का निकाह किसी और से हो जाए ( कुरआन 2.230) – तफ़हीमुल कुरआन, जिल्द पंजुम, पृष्ठ 550 हलाल की यह प्रक्रिया ही हलाला है, जिसका उर्दू में संबंधित संदर्भ में बहुतायत प्रयोग किया गया है।जहां तक इद्दत की बात है तो इसमें अपवाद भी है, जैसे गैर रजस्वला स्त्री, जिसे हाथ लगाने से पहले ही तलाक़ दे दी जाए , उसके लिए कोई इद्दत नहीं है। वह चाहे तो तलाक़ के बाद फ़ौरन निकाह कर सकती है। ( उक्त, पृष्ठ 551)प्रसिद्ध इस्लामी विचारक पिक्थाल ( Marmaduke Pickthal ) ने कुरआन ( 2.230) का अंग्रेज़ी अनुवाद इस प्रकार किया है – And if he hath divorced her ( the third time ) then she is not lawful unto him thereafter until she hath wedded another husband. Then if he ( the other husband ) divorce her, it is no sin for both of them that they come together again.( Maktaba Al Hasnat, Delhi , Page 165, 166 )इस्लाम ने स्वाभाविकता को तरजीह दी है। शादी की जो शर्त है, वह फितरी होनी चाहिए। ऐसा न हो कि यह धंधा बन जाए या कोई तलाक़शुदा पत्नी को दोबारा पत्नी बनाने के लिए हलाला करवाए। यह इस्लाम विरुद्ध होगा। अबू दाऊद और इब्न माजह दोनों में इस माफहूम की बात मिलती है कि पहला पति ( मुहलिल ) इरादतन अस्थाई शादी ( मुहलिललहू ) के द्वारा तलाक़शुदा पत्नी से दोबारा निकाह करता है, तो दोनों पर अल्लाह की लानत है।मेरे एक उस्ताद ने कुरआन की इस व्यवस्था का निहितार्थ तलाक़ के प्रति मर्द को हतोत्साहित करना बताया था।व्यवहार में हर चीज सही हो, उसकी मैं वकालत नहीं कर पाता। मेरे 42 वर्षीय पत्रकारी जीवन में हलाला से संबंधित कई मीडिया रिपोर्टें आईं, मगर कभी मैं मौक़े पर जाकर उन खबरों को प्रत्यक्षतः नहीं समझ पाया। इसके संस्थागत रूप पर मैं आज भी सहमत नहीं हूं । कुछ बरस पहले एन डी टी वी के लखनऊ स्थित वर्तमान कार्यकारी संपादक कमाल ख़ान की एक रिपोर्ट चैनल पर प्रसारित हुई थी, जिसमें उत्तर प्रदेश में उस समय चल रहे कथित हलाला सेंटरों का विस्तृत विवरण था। इस आशय के बोर्ड लगी इमारतों को भी दिखाया गया था और संबंधित लोगों के साथ बातचीत को भी। जहां तक याद आता है, उसके आधार पर कह सकता हूं कि चार या पांच सेंटरों पर आधारित रिपोर्ट थी। अभी लगभग दो वर्ष पूर्व हलाला से जुड़े लोगों पर आज तक न्यूज़ चैनल ने बार बार रिपोर्ट दिखाई, जो नई दिल्ली के शाहीन बाग और ज़ाकिर नगर मुहल्लों पर आधारित थी। इस धंधे से जुड़े लोगों के बयानात भी दिखाए सुनाए गए, जिनमे एक बयान में हलाला करवाई रकम लाखों में मांगी गई। इन सबमें कितनी सत्यता है, यह जांच का विषय है, लेकिन किसी मेरी जानकारी की हद तक किसी मुस्लिम संगठन ने इस पर कोई संज्ञान नहीं लिया और न ही कोई बयान जारी किया। मीडिया में कभी फर्ज़ी खबरें भी चल सकती हैं, लेकिन उक्त विवरण जांच का विषय था और है। जहां तक चार तक शादियों का प्रश्न है, कुछ आलिमों का कहना है कि अरब में उस समय यह चलन में था कि लोग कई स्त्रियों से विवाह कर लेते। इसे सीमित और सशर्त करने के लिए कुरआन में आदेश आया, जो इस प्रकार है -यदि तुम्हें आशंका हो तो तुम अनाथों ( अनाथ लड़कियों ) के प्रति न्याय न कर सकोगे तो उनमें से जो तुम्हें पसंद हो, दो दो या तीन तीन या चार चार से विवाह कर लो। किंतु यदि तुम्हें आशंका ही कि तुम उनके साथ एक जैसा व्यवहार न कर सकोगे, तो फिर एक ही पर बस करो या उस स्त्री ( लौंडी ) पर जो तुम्हारे कब्जे में आई हो, उसी पर बस करो। इसमें तुम्हारे न्याय से न हटने की अधिक संभावना है ( 4.3)।बहुविवाह के आदेश में अनाथ लड़कियों और न्याय की भी शर्त लगाई गई है। व्यवहार में बहुविवाह का प्रचलन इस्लाम से अर्थात हजरत मुहम्मद साहब के आगमन से पूर्व प्रचुरता के साथ था, बाद में कुरआन के इस आदेश से इसे सीमित किया गया।ज्ञातव्य है हज़रत मुहम्मद साहब की बारह पत्नियां थीं और कई सहाबा किराम एक से अधिक पत्नियां रखते थे। भारतीय मुसलमानों यह प्रथा दक्षिण में अधिक है। मेरे एक मुस्लिम मित्र जो एक समाचार पत्र में संपादक थे, दो पत्नियां रखते थे, जिनमे एक दिल्ली में उनके साथ और दूसरी सेवारत होने के कारण उत्तर प्रदेश में रहती थीं।अंत में हरकारा की बात । यह 182 पृष्ठों पर आधारित है। दीक्षा प्रकाशन से छपी इस पुस्तक की छपाई, काग़ज़ और लेआउट दुरुस्त व आकर्षक है, लेकिन प्रूफ शोधन में और सतर्कता बरती जाती तो बेहतर होता।
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