कवि दिलीप कुमार पाण्डेय ‘उम्मीद की लौ’ के बाद, दूसरे काव्य संग्रह *’अंधेरे में से’* की  81 कविताओं के माध्यम से पाठकों के समक्ष रूबरू हुए हैं।  कवि की इन कविताओं से गुज़रते हुए विदित होता है कि कवि ने द्रुतमति से जीवन-परिवर्तन तथा आधुनिकता की दौड़ में झेले, भोगे, महसूस किए अनुभवों को काव्यात्मक रूप देने का प्रयास किया है। कवि ने इस संताप व संपत्ति को शारीरिक, मानसिक,आत्मिक एवं बौद्धिक स्तर पर आत्मसात किया है और साथ ही संवेदनात्मक रूप से अभिव्यक्त भी किया है। संग्रह की धाराएं जहाँ ‘अंधेरे में से’ ही कोई रास्ता, कोई समाधान, कोई दिशा तलाशने का प्रयास करती है, वहीं जीवन के हर पक्ष पर छाए घने अंधेरे को हटा कर रोशनी के प्रवेश की उम्मीद जगाती प्रतीत होती है।
अज्ञानता, अस्पष्टता , अंधविश्वास, आडंबर, अहंकार, अवसरवादिता, आक्षेप के अंधेरे से घिरे समाज को इस दुर्दांत स्थिति से निजात दिलाने का प्रयास करती दिखाई देती हैं, इस संग्रह की कविताएं।
कविताओं में जीवन के कई रंग बिखरे दिखाई देते हैं। यहाँ कमजोरों, निर्बलों के अभावग्रस्त की झलक भी है।  धनाढ़य, सत्ता सीन, संंभ्रांत वर्ग की सीनाजोरी भी अंकित है। दुख-सुख, खुशी-गमी, आशा- निराशा, हार-जीत, तनाव, कुंठा और द्वन्द्व के बीच झूलता आम इंसान दिखाई देता है। कुछ कविताओं मे बार-बार सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, आत्मिक, सामाजिक विसंगतियों, विद्रूपताओं, विडम्बनाओं, विषमताओं का एहसास मुखर हुआ है। मानवीय नैतिक मूल्यों का क्षरण तथा उससे उपजी अराजकता, उपरामता, अतिक्रमणता पर भी तल्खी व्यक्त की गई है। ऐसे अंधेरे समय में कवि ने कहीं-कहीं मानव कल्याण, मानवीयता की सुगंध तथा मानव मन की मूल प्रवृत्तियों को जगाने, उभारने, प्रकाशमंडित करने, उनकी पहचान उजागर करने की काव्यात्मक प्रतिबद्धता दिखाई है
इसमें कोई शक नहीं है कि कवि मन मौजूदा परिदृश्य में अतिक्रमण की हद तक पाँव पसार चुके पूंजीवाद, बाजार वाद, भौतिकतावाद वाद, यथार्थवाद तथा भाई-भतीजावाद को प्रताड़ना की सीमा तक महसूस करता है, फिर भी ऐसी विकट परिस्थतियों मे निराश के अंधकार में भी उम्मीद की किरण को काव्य रूप में थामे चलता है।
बेशक इस किरण की रोशनी क्षीण है। सुर मद्धिम और धुंधला सा है, लेकिन कवि का आशावादी दृष्टिकोण इन कविताओं का मज़बूत पक्ष है। कवि अंधेरे में अंधेरे की कविता लिखते हुए भी, उसमें से आशा की लौ तथा राख तले दबी कोई चिंगारी को उभारने की ईमानदार कोशिश करता है।
बेशक संग्रह की कविताएं पाठक मन को झिंझोड़ती नहीं, आलोकित नहीं करती, सनसनी नहीं पैदा करतीं, लेकिन पाठक मन में चिन्तन तथा रगों में दौड़ते लहू में एक सरसराहट सी अवश्य पैदा करने में सक्षम है। किसी व्यक्ति द्वारा वाह-वाह से दूर रहकर, सोचने के लिए मजबूर करना, चिंतन व मनन की ओर अग्रसर करना, इन कविताओं की उपलब्धि है।
मानव दिल-दिमाग में जड़ कर चुकी धारणाएं- अवधारणाएं, अपनी स्थिति- परिस्थिति, दुर्गति को नियति मानकर जीवन व्यतीत करने की पथराई सोच तथा इर्द-गिर्द बुने जाते कुचक्र के जाल, विश्वासघात के लाक्षागृह , षड्यंत्रों और चक्रव्यूहों से अनभिज्ञ, आमजन साधारण को जागरूक करना इन कविताओं का उद्देश्य दिखाई देता है।
 कवि परिवर्तन का विरोधी नहीं है, लेकिन वह जीवन में सकारात्मक बदलाव का हिमायती है। वह जीवन के संकटों का रुदन नहीं करता, बल्कि चेतनशील होकर वस्तुस्थिति का सामना करने हेतु प्रेरणा पैदा करता है। वह अपने निज के अनुभवों को अपने जैसे व्यापक वर्ग के लोगों से जुड़कर, इन्हें व्यापकता प्रदान करने का उपक्रम करता है। जीवन एंव समाज के यथार्थ को कविता के दर्पण में प्रतिबिंबित करता है। कवि की कविताओं में सत्यम, शिवम, सुंदरम तथा वसुधैव कुटुंब की जनकल्याणी भावना निहित है।
कवि इन कविताओं के माध्यम से वस्तुस्थिति के दर्शन कराता हुआ सुप्त लोगों को जगाने तथा बेहोश प्राय: को होश में लाने हेतु सद्प्रयास, विकट परिस्थितियों के मूल कारणों की ओर संकेत करता है, लेकिन उनसे निपटने हेतु कोई समाधान का हल नहीं सुझाता,  वैसे यह कवि कर्म अथवा धर्म भी नहीं परोसता है, कविता की किरण हाथ में थामे पाठक अपना रास्ता  स्वयं तलाश करता है, संग्रह की कविताएं अपना यह फर्ज़ निभाने मे सक्षम है। समाज मे सांप्रदायिक कट्टरवाद , सत्ता धारियों का दबदबा, जनसेवा के नाम पर शोषण, प्रदर्शन तथा छोटे- बड़ों के जीवन के प्रति दोहरे मापदंड,असहनशीलता व आडम्बर से परिपूर्ण भयावह स्थिति में परिवर्तन का चाहवान कवि अपनी कविताओं में बार-बार, इनका उल्लेख करता हुआ पाठक के दिल-ओ-दिमाग पर लगातार दस्तक देता जाता है। यही समय की महती जरूरत है। 

संग्रह की कुछ बानगियां उपरोक्त कथन की सत्यता की पुष्टि करने में सक्षम हैं।
देश में आम जनता के साथ चल रहे षड्यंत्र और इसमें हस्तक्षेप को इस  प्रकार प्रकट करते है-
*”हस्तक्षेप से तिलमिला उठते हो/ बर्दाश्त नहीं कर सकते हो/षड्यंत्र के खिलाफ़ उठती हुई आवाज़ को/लेकिन इतना ज़रूर है/ उस आवाज़ को तुम हमेशा के लिए दबा नहीं सकते।”*  ( षड्यंत्र )
वंशवाद से पीड़ित कवि का मन कह उठता है—
*”दानवकुल से आए यह लोग/वंशानुगत  कैंसर की तरह/ नस-नस में फैल रहा है इनका ज़हर”।*( शैतान घायल होगा)
धनाढ्यों पर केंद्रित हर बात कवि को नागवार गुज़रती है।यथा-
*”चर्चा महज़/औपचारिक हो कर रह गई/ केवल पूंजीपतियों पर केंद्रित/क्योंकि अगले शिकार में फिर कोई/झोपड़ी निशाने पर भी।”* (अतिक्रमण)
• साहित्यकारों की कथनी- करनी में अंतर बताते हुए कवि कहता है-
*” साहित्यकार छटपटाता है/ बौखलाता है/आक्रोश में आकर/संवेदनहीन बन जाता है/ पुलिसिया अंदाज में /धमकी देता है।”* ( डाकिया )
 समाज मे अवसरवादिता और समझौतावादी के कुप्रभाव पर कवि कुछ यूँ व्यक्त करता है-
*”हमने बौखलाहट में ही सही/व्यवस्था के अंधे कानून को लुटते देखा है/और घावों को देखा है/गहरे होते हुए।”*(समझौता)
कवि श्रमिक की पहचान कुछ यूँ बताता है-
*”जिसकी आँखे नीची हो /और जुबान बंद हो/ पेट दबा हो/ हड्डियाँ बाहर निकली हों / वही श्रमिक कर सकता है/श्रम और जी हुजूरी”।* (श्रमिक)
  सत्ता को व्यापार समझने वाले हरेक हथकंडा अपनाकर सत्ता पर काबिज होने के दुखांत को कवि कुछ यूँ स्पष्ट करता है –
*”मासूमियत का मुखौटा पहन/ हर बार जीत जाता है चुनाव/कानून की धज्जियां उड़ाता हुआ/ निरीह जनता पर धौंस जमाता हुआ/ मौन क्यों है निर्वाचन आयोग?और चुप्पी साधे है /कानून व्यवस्था।”* (मक्कार मुखिया)
कवि ने कविता में आम बोलचाल जैसे संवाद रचे हैं । भाषा की सहजता,सरलता,स्पष्टता तथा संगठता इन कविताओं का सकारात्मक पक्ष है। कविताओं की
शाब्दिक और वैचारिक लयात्मकता में तालमेल बैठाने के लिए पाठक को अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ सकती है। विषय विविधता होते हुए भी वैचारिक एकता होने के कारण ये कविताएँ किसी खण्ड काव्य के सर्गों/ उपसर्गों का आभास भी देने लगती है।
कवि ने प्रतीकों,बिंबों,मुहावरों आदि से कविता का अलंकारिक श्रंगार करने से गुरेज़ किया है। लेकिन अपने
विचार/बात को पुरजोर ढंग से कहने/साबित करने हेतु सटीकता तथा प्रमाणिकता को हथियार बनाया है।
कुल मिलाकर संग्रह *”अंधरे में से”* भी एक रोशनी की किरण तलाश करती हुई प्रतीत होती है जो मानव मन,समाज तथा देश के अंधेरे पक्ष को अनावृत कर सके ।
इस प्रकार हम उस पर दृष्टिपात करते हुए अंधेरे की सघनता को घटाने तथा रोशनी की तीव्रता को प्रचंड करने का प्रयास कर सकें ।वैचारिक भाषाबोध को जागृत करने वाली इन
कविताओं के संग्रह के सृजन हेतु कवि दिलीप कुमार पाण्डेय बधाई के
हकदार हैं ।इनकी कलम से भाषा में विषय के शिल्पगत आधार पर और भी प्रखरता, कविताओं की रचनाबद्धता होगी, इसी विश्वास के साथ।
डाॅ.धर्मपाल साहिल
मोबाइल-9876156964

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