मैं आदरणीय बच्चन सिंह जी का शुरू से प्रशंसक रहा हूँ। वजह साफ़ है। उनका अति सक्रिय होना। वे मौलिक रूप से तो थे पत्रकार , लेकिन साहित्यकार होना उनकी मौलिकता से बाहर न था। वे विभिन्न अखबारों में गुरुतर दायित्व निभाने के साथ ही एक समय ऐसा भी आया कि हिमांचल विश्वविद्यालय, शिमला के हिंदी विभागाध्यक्ष बने। मुझे ‘ स्वतंत्र भारत ‘ ( वाराणसी ) में उनके साथ काम करने का अल्पकालिक अवसर मिला। उस समय वे ‘ स्वतंत्र भारत ‘ के वाराणसी संस्करण के संपादक थे | एकदम तूफ़ानी काम होता था बच्चन जी का। उन्होंने पत्रकारिता के साथ ही कहानी, कविता ( मूलतः नवगीत ) और उपन्यास भी लिखे।मुझे कई नामचीन संपादकों के साथ काम करने का मौक़ा मिला | इन यशस्वी संपादकों में गुरुवर पंडित लक्ष्मी शंकर व्यास जी, गुरुवर चंद्र कुमार जी, बड़े भाई सत्य प्रकाश ‘असीम’ जी आदि के नाम हैं ही |
बच्चन सिंह जी का नाम मैं इनमें क़तई नहीं जोड़ना चाहता हूँ, क्योंकि मैंने ‘ स्वतंत्र भारत ‘ [ वाराणसी ] में स्टाफ़ रिपोर्टर की हैसियत से जितने महीने काम किया, उनको कभी आम संपादक के रूप में पाया ही नहीं | वे सदा सक्रिय और हर परिस्थिति के लिए तैयार रहते | डेस्क रिपोर्टिंग के सिरे से ख़िलाफ़, यहां तक कि बड़ी घटना पर ख़ुद वहां जाना पसंद करते थे | अकेले हैं तो क्या हुआ, एक – दो दिन तो पूरा अख़बार निकाल लेना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी | शायद इसी दक्षता के चलते प्रबंधन के प्रिय बन जाते थे | वे कहते थे बस काम करते जाओ सलीक़े से, जीवकोपार्जन यही है | कभी कहते , ” पत्रकारिता जीवकोपार्जन का साधन होने के बावजूद मिशन है |”वाराणसी में ” The Pioneer ” का प्रकाशन जब शुरू हुआ, तो सरस्वती शरण ”कैफ़” जी इसके रेजिडेंट एडीटर बने | मैं पहले से ही कैफ़ जी के साथ स्ट्रिंगर के तौर पर काम करता था | कैफ़ जी के साथ मैं भी ” The Pioneer ” जुड़ गया और लोकल ख़बरें देने लगा | इसके कुछ समय बाद लहरतारा [ वाराणसी ] से ही इसका हिंदी प्रकाशन भी मंज़रेआम पर आ गया, तो उससे भी जुड़ा | बच्चन सिंह जी इसके स्थानीय संपादक थे | जब ” स्वतंत्र भारत ” की डमी निकाली जा रही थी, संपादक जी ने संपादकीय विभाग से जुड़े सभी लोगों की मीटिंग की और तय किया कि इसका प्रवेशांक वाराणसी पर केंद्रित होगा, जिसके सिलसिले में विज्ञापन एकत्र किए जा चुके हैं | यह भी तय हुआ कि कौन क्या लिखेगा ? मेरे ज़िम्मे बनारस की गलियां आईं | बच्चन जी ने कहा कि ” साइकिल से सारा बनारस छान चुके हो | अब इसकी गलियों पर लिखो, लेकिन फिर गलियों में जाकर | ” मैंने काफ़ी मेहनत और मनोयोग से लंबा फ़ीचर तैयार किया , जो लगभग बिना किसी काट – छांट के अख़बार के पूरे एक पेज पर छपा, जिसका शीर्षक था – ” गलियों का शहर बनारस ” | यह मेरा दुर्भाग्य था कि बच्चन जी के साथ कम समय तक ही काम कर सका, क्योंकि ” स्वतंत्र भारत ” का प्रकाशन बंद हो गया | बच्चन सिंह जी के प्रयास से ही मैं महादेवी वर्मा जी का इंटरव्यू लेने में सफल हुआ था | उस समय वे वरीय कहानीकार काशीनाथ सिंह के यहाँ थीं | यह इंटरव्यू संभवतः महादेवी जी अंतिम इंटरव्यू था , जो स्वसंपादित साप्ताहिक समाचार पर ‘ पराड़कर सन्देश ‘ और ‘ दैनिक जनमुख ‘ में छपा , जिसे पूर्व केंद्रीय मंत्री राज नारायण के दामाद बृजेश राय निकलते थे और मैं उसका साहित्य पेज देखने के साथ क्राइम रिपोर्टर था |
इसके बाद मयूर विहार , दिल्ली में बच्चन सिंह जी से एक बार भेंट हुई, जब वे बीमार थे और बेटे विनय के साथ रहते थे | उन दिनों मैं मयूर विहार अक्सर जाया करता था डॉ. देवेश चंद्र के आवास पर, जो उन दिनों गृह मंत्रालय में राजभाषा अधिकारी थे | वे मेरे घनिष्ठ मित्रों में थे |
बच्चन सिंह जी से मेरा वैचारिक मतभेद कम मुद्दों को लेकर हुआ। मैं ‘ दलित ‘ शब्द के प्रयोग का सदा ही विरोधी रहा हूँ। मैं इसे भेदभाव बढ़ानेवाला शब्द मानता हूँ। जबकि सच बात यह है कि बच्चन सिंह जी जानबूझकर दलित शब्द का इस्तेमाल करते थे, यहाँ तक कि उनकी पाँच कहानियों के संकलन का नाम ” एक दलित लड़की की कथा ” है। वैसे इस कहानी में कथानक मायावती के जीवन जैसा है, जो इतनी तेज़ी के साथ चलता है कि कहानी के दायरे से बाहर निकल जाता है । माधुरी और राजमणि में कोई प्रेम प्रसंग नहीं चलता। माधुरी चर्मकार जाति की है और राजमणि ब्राह्मण। राजमणि छात्रनेता से विधायक बन जाता है और माधुरी के ज़मीन के प्लाट को हड़प लेता है, तो प्रतिक्रिया में उच्च सरकारी पद की चाह रखनेवाली माधुरी राजनीति में कूदकर ” सर्वजन समाज पार्टी बनाती है और मुख्यमंत्री बन जाती है। इसी के साथ कहानी ख़त्म हो जाती है। बच्चन सिंह जी की कहानियां ऐसी ही हैं जो किसी जगह घटित हुई हैं। इन्हें कहानी के शिल्प में ढालना मेरा मानना है कि किसी पुख़्ता कहानीकार के लिए भी कठिन होता।
सही मायने में बच्चन सिंह जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्हें नमन, श्रद्धा सुमन का अर्पण।
मैं आदरणीय बच्चन सिंह जी का शुरू से प्रशंसक रहा हूँ। वजह साफ़ है। उनका अति सक्रिय होना। वे मौलिक रूप से तो थे पत्रकार , लेकिन साहित्यकार होना उनकी मौलिकता से बाहर न था। वे विभिन्न अखबारों में गुरुतर दायित्व निभाने के साथ ही एक समय ऐसा भी आया कि हिमांचल विश्वविद्यालय, शिमला के हिंदी विभागाध्यक्ष बने। मुझे ‘ स्वतंत्र भारत ‘ ( वाराणसी ) में उनके साथ काम करने का अल्पकालिक अवसर मिला। उस समय वे ‘ स्वतंत्र भारत ‘ के वाराणसी संस्करण के संपादक थे | एकदम तूफ़ानी काम होता था बच्चन जी का। उन्होंने पत्रकारिता के साथ ही कहानी, कविता ( मूलतः नवगीत ) और उपन्यास भी लिखे।मुझे कई नामचीन संपादकों के साथ काम करने का मौक़ा मिला | इन यशस्वी संपादकों में गुरुवर पंडित लक्ष्मी शंकर व्यास जी, गुरुवर चंद्र कुमार जी, बड़े भाई सत्य प्रकाश ‘असीम’ जी आदि के नाम हैं ही | बच्चन सिंह जी का नाम मैं इनमें क़तई नहीं जोड़ना चाहता हूँ, क्योंकि मैंने ‘ स्वतंत्र भारत ‘ [ वाराणसी ] में स्टाफ़ रिपोर्टर की हैसियत से जितने महीने काम किया, उनको कभी आम संपादक के रूप में पाया ही नहीं | वे सदा सक्रिय और हर परिस्थिति के लिए तैयार रहते | डेस्क रिपोर्टिंग के सिरे से ख़िलाफ़, यहां तक कि बड़ी घटना पर ख़ुद वहां जाना पसंद करते थे | अकेले हैं तो क्या हुआ, एक – दो दिन तो पूरा अख़बार निकाल लेना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी | शायद इसी दक्षता के चलते प्रबंधन के प्रिय बन जाते थे | वे कहते थे बस काम करते जाओ सलीक़े से, जीवकोपार्जन यही है | कभी कहते , ” पत्रकारिता जीवकोपार्जन का साधन होने के बावजूद मिशन है |”वाराणसी में ” The Pioneer ” का प्रकाशन जब शुरू हुआ, तो सरस्वती शरण ”कैफ़” जी इसके रेजिडेंट एडीटर बने | मैं पहले से ही कैफ़ जी के साथ स्ट्रिंगर के तौर पर काम करता था | कैफ़ जी के साथ मैं भी ” The Pioneer ” जुड़ गया और लोकल ख़बरें देने लगा | इसके कुछ समय बाद लहरतारा [ वाराणसी ] से ही इसका हिंदी प्रकाशन भी मंज़रेआम पर आ गया, तो उससे भी जुड़ा | बच्चन सिंह जी इसके स्थानीय संपादक थे | जब ” स्वतंत्र भारत ” की डमी निकाली जा रही थी, संपादक जी ने संपादकीय विभाग से जुड़े सभी लोगों की मीटिंग की और तय किया कि इसका प्रवेशांक वाराणसी पर केंद्रित होगा, जिसके सिलसिले में विज्ञापन एकत्र किए जा चुके हैं | यह भी तय हुआ कि कौन क्या लिखेगा ? मेरे ज़िम्मे बनारस की गलियां आईं | बच्चन जी ने कहा कि ” साइकिल से सारा बनारस छान चुके हो | अब इसकी गलियों पर लिखो, लेकिन फिर गलियों में जाकर | ” मैंने काफ़ी मेहनत और मनोयोग से लंबा फ़ीचर तैयार किया , जो लगभग बिना किसी काट – छांट के अख़बार के पूरे एक पेज पर छपा, जिसका शीर्षक था – ” गलियों का शहर बनारस ” | यह मेरा दुर्भाग्य था कि बच्चन जी के साथ कम समय तक ही काम कर सका, क्योंकि ” स्वतंत्र भारत ” का प्रकाशन बंद हो गया | इसके बाद मयूर विहार , दिल्ली में उनसे एक बार भेंट हुई, जब वे बीमार थे और बेटे विनय के साथ रहते थे | उन दिनों मैं मयूर विहार अक्सर जाया करता था डॉ. देवेश चंद्र के आवास पर, जो उन दिनों गृह मंत्रालय में राजभाषा अधिकारी थे | वे मेरे घनिष्ठ मित्रों में थे |
बच्चन सिंह जी से मेरा वैचारिक मतभेद कम मुद्दों को लेकर हुआ। मैं ‘ दलित ‘ शब्द के प्रयोग का सदा ही विरोधी रहा हूँ। मैं इसे भेदभाव बढ़ानेवाला शब्द मानता हूँ। जबकि सच बात यह है कि बच्चन सिंह जी जानबूझकर दलित शब्द का इस्तेमाल करते थे, यहाँ तक कि उनकी पाँच कहानियों के संकलन का नाम ” एक दलित लड़की की कथा ” है। वैसे इस कहानी में कथानक मायावती के जीवन जैसा है, जो इतनी तेज़ी के साथ चलता है कि कहानी के दायरे से बाहर निकल जाता है । माधुरी और राजमणि में कोई प्रेम प्रसंग नहीं चलता। माधुरी चर्मकार जाति की है और राजमणि ब्राह्मण। राजमणि छात्रनेता से विधायक बन जाता है और माधुरी के ज़मीन के प्लाट को हड़प लेता है, तो प्रतिक्रिया में उच्च सरकारी पद की चाह रखनेवाली माधुरी राजनीति में कूदकर ” सर्वजन समाज पार्टी बनाती है और मुख्यमंत्री बन जाती है। इसी के साथ कहानी ख़त्म हो जाती है। बच्चन सिंह जी की कहानियां ऐसी ही हैं जो किसी जगह घटित हुई हैं। इन्हें कहानी के शिल्प में ढालना मेरा मानना है कि किसी पुख़्ता कहानीकार के लिए भी कठिन होता।
सही मायने में बच्चन सिंह जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्हें नमन, श्रद्धा सुमन का अर्पण।