लब्ध प्रतिष्ठ लेखक पवन बख़्शी जी की सद्यः प्रकाशित पुस्तक ” बलरामपुर से कंजेभरिया ” पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ | पुस्तक कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक से लेकर समसामयिक घटनाओं को समाहित किए हुए है | वैसे यह मूलतः बलरामपुर के इतिहास की परतें खोलती है और यहां की विशेषकर साहित्यिक, सांस्कृतिक चेतना पर प्रकाश डालती है | साथ ही इतर ततसंबंधित बातों का भी पर्याप्त समावेश है | पुस्तक का अधिकतर भाग संस्मरणात्मक शैली में लिखा गया है, जिससे पूरी पुस्तक में रोचकता और आगे पढ़ने की उत्सुकता बनी रहती है | पुस्तक में बलरामपुर जनपद के साहित्यकारों और साहित्यसेवियों पर जो सामग्री दी गई है, उसने पुस्तक की उपादेयता काफ़ी बढ़ा दी है |
समीक्ष्य पुस्तक का पहला अध्याय बलरामपुर की स्थापना और उसके नामकरण पर है | इसमें श्रावस्ती के प्राचीन इतिहास पर भी संक्षिप्त प्रकाश है | इसे प्राचीन काल में कोसल की राजधानी बताया गया है | बलरामपुर के नामकरण की चर्चा में राजवंश के इतिहास के संदर्भ में बहराइच का भी उल्लेख आया है |
दूसरा अध्याय बलरामपुर की जनपदीय हैसियत पर है | इसे ज़िला बनाए जाने की मांग पुरानी है, लेकिन इसकी बराबर उपेक्षा की गई | नतीजतन यह पूरा ख़ित्ता काफ़ी पिछड़ गया और देश केअति पिछड़ों में आगे बढ़कर अपना नाम लिखवाने लगा | 1997 में इसे जनपदीय हैसियत मिल भी गई, मगर पिछड़ेपन का वही पुराना ‘ तेवर ‘ अभी भी बरक़रार है | इसके विभिन्न कारण हैं, जिनकी चर्चा का यहाँ अवसर नहीं | जनता में अधीनता और ताबेदारी की पुरानी मानसिकता कमोबेश बनी हुई है, जो तमाम बुराइयों की जननी है |
बलरामपुर की सांस्कृतिक चेतना पर अध्याय बनाकर लेखक ने यहाँ बौद्ध, जैन और इस्लाम की संस्कृतियों के प्रभाव को बख़ूबी स्पष्ट किया है | शैव, शाक्त और वैष्णवों आदि पर सामग्री दी ही गई है | इस क्षेत्र पर जनजातीय प्रभाव और हिन्दू संस्कृति के आंदोलनों पर भी सम्यक यथाक्रम उल्लेख है |
बलरामपुर राजवंश पर पूरा एक अध्याय ही है | यह इतिहास तेरहवीं शताब्दी के बरियार शाह से लेकर वर्तमान कालीन महाराजा जयेंद्र प्रताप सिंह तक फैला हुआ है | इस अध्याय में ऐसे तथ्य भी हैं, जो राजवंश के अतीत की शोभा बढ़ाते हैं और जिनके बारे में अभिज्ञान से जनमानस सामान्यतः रिक्त है |
पाँचवाँ अध्याय गाँधी जी के बलरामपुर आगमन पर है | इसमें यह भी बताया गया है कि महात्मा गाँधी को बलरामपुर लाने का श्रेय बलरामपुर निवासी मौलवी अहमद ज़मां को दिया जाना चाहिए | लेखक के अनुसार, ” गाँधी जी के बलरामपुर आगमन का समाचार मिलते ही असहयोग आंदोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया |”
अगले अध्याय में बलरामपुर नगर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की सूची है, जिसमें 49 नाम हैं, जिनमें एकमात्र महिला श्रीमती सरस्वती देवी का भी नाम है |
बलरामपुर के दर्शनीय और ऐतिहासिक स्थलों पर भी अध्याय है, जिसमें बिजलीपुर मंदिर, सिटी पैलेस, झारखंडी मंदिर पर भी संक्षिप्त चर्चा है | दरगाह रहमुल्लाह शाह का भी तज़किरा है, जो बलरामपुर के गदरहवा मुहल्ले में अवस्थित है | लेखक ने इसे बलरामपुर का देवा बताया है |
पुस्तक में विभिन्न क्षेत्रों के महानुभावों का संक्षिप्त संस्मरणात्मक उल्लेख है | इनमें आम तौर पर उन लोगों पर सामग्री है, जो लेखक के संपर्क में रहे हैं अथवा हैं | इनमें अजय कुमार श्रीवास्तव, अजय सेठी, अमिताभ सिंह, आज़ाद सिंह, के के राणा, मुहम्मद नैयर अंसारी आदि पर परिचयात्मक सामग्री है, लेकिन बलरामपुर के प्रदीप मिश्रा पर जो विवरणात्मक ब्यौरा दिया गया है, उसने मुझे कुछ अधिक सोचने पर मजबूर कर दिया |
इसमें लेखक ने बलरामपुर में साहित्यिक ख़ेमेबाज़ी की बात उठाई है, जो मेरे लिए एकदम नई है | मुझे नहीं पता था कि बलरामपुर में साहित्यिक धूर्त भी रहते हैं, जो किसी भी तरह से माफ़िया से कम नहीं ! यह बड़ी चिंता है | बलरामपुर के साहित्याकाश पर जब तक ऐसे ‘ महाजीव ‘ रहेंगे , साहित्य का तो भला होनेवाला नहीं | अतः इनके उन्मूलन का मार्ग ही प्रशस्त करना चाहिए |
समीक्ष्य पुस्तक का नवाँ अध्याय है – ” बलरामपुर के साहित्यिक सितारे ” | इसमें बलरामपुर के साहित्यिक इतिहास का वर्णन करते हुए डॉ. भोलानाथ भ्र्मर के अनुसार, पंडित मदनगोपाल को बलरामपुर का पहला कवि बताया गया है | लेखक ने लिखा है कि महाराजा दिग्विजय सिंह के राजकाल में बलरामपुर हिंदी कविता का भारत प्रसिद्ध केंद्र हो गया था | यहाँ के पहले के साहित्यिकों में जिनकी प्रमुख रूप से जिनके बारे में कुछ न कुछ लिखा गया है, उनमें गोकुल प्रसाद ‘ बज ‘, ठाकुर लाल बहादुर सिंह चौहान, सैयद इक़बाल हसन रिज़वी, महावीर सिंह वीर, पंडित गणेश मिश्र, पंडित शोभाराम त्रिपाठी ‘ प्रचंड ‘, नानक चंद ‘ इशरत ‘, जगन्नाथ प्रसाद, अली सरदार जाफ़री, परोपकार सिंह ‘ पयाम ‘, हरिशंकर लाल ‘ ख़िज्र ‘, ओमप्रकाश सक्सेना ‘ चियाँ बलरामपुरी ‘, आदित्य कुमार चतुर्वेदी, बेकल उत्साही, सैयद अली महदी रिज़वी, सुरेंद्र विमल, शिवनारायण शुक्ल, हाशिम अली मुज़्तर, शांति प्रसाद मिश्र ‘ मधुकर ‘आदि |
जो जीवित साहित्यिक हैं, उनमें डॉ. माधवराज द्विवेदी, रामपाल श्रीवास्तव, अरुण प्रकाश पांडेय, कलीम क़ैसर, मुहम्मद साबिर क़मर बलरामपुरी, डॉ. अब्दुल सुब्हान ‘ शाद बलरामपुरी ‘, अनिल गौड़, डॉ. सुधीर मिश्रा, डॉ. चंद्रेश्वर पांडेय, यास्मीन, कमल पांडेय आदि पर न्यूनाधिक सामग्री है | ” बलरामपुर से कंजेभरिया की यात्रा ” शीर्षक में कंजेभरिया वासी साहित्यचेता लक्ष्मीनरायण अवस्थी के ग्राम तक की लेखक की यात्रा का विवरण है, जिनमें उनके पुस्तकालय की विशेष चर्चा है | इसी शीर्षक के अंतर्गत लेखक के मेरे [ समीक्षक ] ग्राम मैनडीह आने का सचित्र ज़िक्र किया गया है, एतदर्थ आभार !
” मन की पीड़ा ” लेखक के अन्तस् की आवाज़ है | इसमें पान, गुटखा, गांजा, शराब के आदी लोगों के व्यर्थ अहंकार और उन्माद की ख़बर ली गई है, जिनमें डॉक्टर और प्रोफेसर भी शामिल हैं | बक़ौल लेखक – ” कई – कई बार उनकी ओच्छी हरकतों पर ऐसे लोगों की नौकरी भी दांव पर लग गई, फिर लिखित माफ़ी मांगकर कुछ दिनों तक ख़ामोश रहने के पश्चात फिर वही हरकतें करना शायद उनकी प्रवृत्ति में शामिल है | समाज का कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति न तो ऐसे लोगों के घर जाना चाहता है और न ही ऐसे लोगों को अपने घर बुलाना चाहता है | अपने झूठे अहंकार में चूर ऐसे लोग बुद्धिजीवी वर्ग से अति दूर होकर मानसिक कुंठा में डूबे हुए हैं और मानसिक व्याधियों में गिरकर आज अकेले जीने के लिए विवश हैं |” पुस्तक के अंत में लेखक के जीवन और कर्तत्व पर डॉ. जितेंद्रकुमार सिंह ‘ संजय ‘ का विस्तृत आलेख दमदार और प्रेरक है | अमृतब्रह्म प्रकाशन, प्रयागराज से छपी यह पुस्तक निश्चय ही पठनीय और संग्रहणीय है | यदि पुस्तक की सामग्री का और विस्तार होता, तो और अच्छा होता |
– Dr RP Srivastava
Editor-in-chief, Bharatiya Sanvad