‘ नचिकेता के पत्र : वाजश्रवा के नाम ‘ बड़ी दिलचस्प और अर्थवत्तापूर्ण रचना है | नचिकेता दुनिया पहला जिज्ञासु और साधक है | उसे जब ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो गया, तो उसने पिता वाजश्रवा से उनके अतीत कर्मों पर सवाल किए | कवि ने इन सवालों को साहित्य विशेषकर कविता के शिल्प में बख़ूबी ढाला है | वाजश्रवा और नचिकेता की कथा का आरंभ कठोपनिषद से होकर अन्य ग्रंथों में फैलता है | कथानुसार, वाजश्रवा ने एक बार अपना सब कुछ दक्षिणा में दे डाला था | इस क़दम पर नचिकेता ने अपने पिताश्री से पूछा कि आप मुझे किसको प्रदान करते हैं ?
तब वाजश्रवा ने ग़ुस्से में आकर कह दिया, ‘ मृत्यु को |’ इस नचिकेता मृत्यु [ यमराज ] के पास चला गया | वहाँ तीन दिनों तक निराहार रहकर उससे ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया | ब्रह्मज्ञान प्राप्ति के बाद उसे जो प्रज्ञा-बोध हुआ, उसके आधार पर नचिकेता अपने पिता को पत्र में लिखता है –
‘ इसलिए
उचित यही है पिता
आज तुम मेरे अनुभवों को
नवीन भले ही कहो
पर सत्य से रीते न कहो
तुमने मुझे सत्य कहने के लिए
और अधिक कर दिया है सशक्त !
सो पिता !
आज सत्य स्वीकार करके
दस्यु चाल को पहचानो
मेरी और तुम्हारी सोच में
जो भेद उचित है
उसे पहचानो !’
कवि इंसानियत के अत्याचार,शोषण और दमन के सर्वथा ख़िलाफ़ है | इसलिए वह दमित का स्वर बन जाना अपना फ़र्ज़ समझता है | ‘ उस्ताद मिर्ची ‘ शोषणकारी तंत्र की जीवंतता बयान करती है | यह वह स्थिति होती है, जब आम आदमी परतंत्र महसूस करने लगता है और कवि अपनी संवेदनीयता को –
‘ यों वह स्वयं
एक सस्ते ग़ल्ले की दूकान पर
मजूरी करता है
जहाँ
मालिक की बढ़ती हुई
तोंद को भरने
और अपनी
रोज़ी-रोटी का मसला
हल करने के लिए
तकड़ी के काँटे पर ठेंगा मारता है !
वह मानता है
कि उस समय
तकड़ी का काँटा
उसकी आँतों में
कितनी ही बार
गहराता जाता है !’
कवि बदलाव को क्षरण के रूप में देखता है | आज मानवीय मूल्यों का इतना ह्रास हो चुका कि पवित्र वाणियाँ भी प्रभावित नज़र आती हैं | इस विषम परिस्थिति में कवि की सर्जनात्मक शक्ति नए रूप में दिखाई पड़ती है –
‘ शब्द, जो कभी उजले थे
शब्द, जो कभी पवित्र थे
शब्द, जो कभी मोहक थे
शब्द, जो कभी प्यारे थे
आज,
वे शब्द सभी मैले हो गए हैं !
संतों, गुरुओं, आप्त-पुरुषों की वाणी
खो चुकी है अर्थ आज |’
समीक्ष्य 156 पृष्ठीय पुस्तक में दिलजीत दिव्यांशु की कुल पचास कविताएं संकलित हैं, जिनमें ‘ गुलाब, चमेली और कैक्टस ‘ शीर्षक कविता हिंदी कविता इतिहास में अन्यतम महत्व की अधिकारिणी है | इसकी अभिव्यंजना चमत्कृत कर देने वाली है | गुलाब, चमेली और कैक्टस मानव जीवन के स्थितियाँ हैं, जो संत्रास के यथार्थ को प्रकट करने का दम-ख़म रखते हैं | कवि के शब्दों में –
‘ मैंने तो नहीं चाहा था –
– कि
किसी बिगड़े रईस के
बटनहोल की शोभा को
मेरी सख़्त हथेली पर
टिका दो तुम !
लेकिन तुमने यह सब क्या किया
और मैंने क्या पाया ?
मेरी सख़्त हथेली
झुलस-सी गई है
अंगार-से लाल गुलाब की आग से
गड़-से रहे हैं
रईसी गुलाब के शूल
निरंतर हथेली में मेरी
और मेरे हृदय-प्रदेश तक को
छलनी किए जा रहे हैं !’
‘ सत्य की तलाश,’ ‘ निरंतर चलनेवाली लड़ाई,’ नंगू पनवाड़ी,’ ‘ शब्दों से कविता तक,’ ‘ देश,’ ‘ मुझे एक बेटी चाहिए,’ ‘ श्वेत छिपकली,’ और ‘ जीवन जिया ‘ शीर्षक कविताएँ बेहद दमदार और मानीख़ेज़ हैं | पुस्तक का संपादन उत्तम है | प्रूफ की ग़लतियाँ खटक पैदा करती हैं, जो ‘ वटवृक्ष ‘ को झट से ‘ बटवृक्ष ‘ बना देती हैं और बनाती ही जाती हैं ! ‘ धृष्टता ‘ और ‘ धृष्ट ‘ रूप बदलकर ‘ धृष्ठता ‘ एवं ‘ धृष्ठ ‘ बन जाते हैं ! फिर ऐसे और भी प्रयोग हो जाते हैं ! चंद्र बिंदु के प्रयोग का भी यही आलम है | कहीं लगा तो कहीं लगा ही नहीं ! सब पर प्रूफ की भारी मार पड़ी है ! नुक़्ते लगाने में असावधानी बार-बार नज़र आती है | उर्दूदार नुक़्ते लगाए ही न जाएँ, तो चल सकता है, किन्तु एक जगह लगे और दूसरी जगह नदारद रहे, तो उचित नहीं |
कितना भी संभालिए, मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह बताता है कि प्रूफ रीडिंग में चूक हो ही जाती है | मुझे याद है कि एक पुस्तक की पाँच सज्जनों ने प्रूफ रीडिंग की, किन्तु उच्छिष्ट रह गए ! लेकिन इस क़िस्म के अवशेष जितने साफ़ हो जाएँ, अच्छा ही है | पुस्तक का काग़ज़ उम्दा है और छपाई भी | इस श्रेय प्रकाशक बिंब-प्रतिबिंब पब्लिकेशंस, फगवाड़ा को जाता है |
इतनी उत्कृष्ट और स्तरीय सर्जना की कवि की कोशिश सराहनीय और वंदनीय है ही | आज दिलजीत दिव्यांशु जी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी बेशक़ीमती धरोहर विद्यमान है, जो साहित्य जगत के लिए संतोष का विषय है | इसे संभव बनाया है अग्रणी रचनाकार बलवेंद्र सिंह जी ने | एतदर्थ उनका आभार, अनेकानेक शुभकामनाएँ |
– Dr. R.P.Srivastava
Editor-in-Chief, Bharatiya Sanvad [ Portal ]