ओ शांतनु !
सुवास के प्रेमी
परिहास के प्रेमी
क्या तूने पाया अनैसर्गिक गंध ?
सत्यवती को पाकर
सत्या को लाकर
क्या तूने पाया दिव्यता का सुवास ?
ओ शांतनु !
शांति – लाभ कर चर्चित
हस्त – स्पर्श के हर्षित
क्या तूने किया
शांति का विलोम ?
अपने का विलोम ?
भीष्म को पाकर
देवव्रत को लाकर
क्यों तूने किया
शांति – भंग ?
ओ शांतनु !
देवव्रत सुत भीष्म
सुनन्दा के भीष्म
क्या हुआ तेरे
जल – सुतों का ?
चित्रांगद का ?
विचित्रवीर्य का ?
मत्स्य गंधा तो बनी
योजनगंधा ….
क्या हुआ ?
चित्रांगद नहीं रहे
विचित्रवीर्य भी जवान नहीं हुए
बूढ़े ही रहे …. !
और निःसन्तान !
ओ शांतनु !
क्या हुआ तेरे
कला – कौशल का ?
युवा बनाने का ?
शांति – लाभ का ?
यह सवाल
आज भी है
रह – रहकर
जो मुझे सालता रहता है !!!
– राम पाल श्रीवास्तव ‘अनथक’