सच कह दूं ऐ बिरहमन गर तू बुरा ना माने
तेरे सनमक़दों के बुत हो गए पुराने
अपनों से बैर रखना तूने बुतों से सीखा
जंग-ओ-जदल सिखाया वाइज़ को भी ख़ुदा ने
तंग आके मैंने आखिर दैर-ओ-हरम को छोड़ा
वाइज़ का वाज़ छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने
पत्थर की मूरतों में समझा तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है
आ ग़ैरियत के परदे एक बार फिर उठा दे
बिछड़ों को फिर मिला दे, नक्श-ए-दुई मिटा दे
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें
दुनिया के तीरथों से ऊंचा हो अपना तीरथ
दामान-ए-आस्मां से इसका कलस मिला दे
हर सुबह उठ के गायें मंतर वो मीठे – मीठे
सारे पुजारियों को मय पीत की पिला दे
शक्ति भी शांति भी भक्तों के गीत में है
धरती के वासियों की मुक्ति पिरीत में है |
– डा . मुहम्मद इकबाल