सुनहरी सरज़मीं मेरी, रुपहला आसमाँ मेरा
मगर अब तक नहीं समझा, ठिकाना है कहाँ मेरा ,
किसी बस्ती को जब जलते हुए देखा तो ये सोचा
मैं ख़ुद ही जल रहा हूँ और फैला है धुआँ मेरा |
ये भावपूर्ण शब्द हैं पद्मश्री बेकल उत्साही के , जिनके कलाम का कोई जवाब नहीं | मैं यह बात इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि चाचा बेकल मेरे शहर के हैं , अपितु यही यथार्थ है ! जो लोग उन पर अपनी ख़ुदनुमाई का आरोप मढ़ते हैं, वे मुग़ालते में हैं | यह उनकी हीन – भावना ही है जो रह – रहकर छलक जाती है …. ख़ैर एक महान कवि और शायर को इसकी भी ज़रुरत होती है कि ” मैं ख़ुद ही जल रहा हूँ और फैला है धुआँ मेरा |” लोकप्रिय शायरों और कवियों में एक, खड़ी बोली हिंदी के साथ ही सोंधी मिट्टी की भाषा अवधी और उर्दू तीनों भाषाओँ में उनकी ख़ासी निपुणता तो देखते ही बनती है | वे ऐसे कवि हैं , जो
अवधी के विकास और प्रचार प्रसार के लिए सदैव तत्पर और कटिबद्ध रहे | मगर इस सच्चाई के बावजूद वे अपने को तुलसी और कबीर के बीच पाते हैं | एक शेअर देखिए –
छिड़ेगी दैरो हरम में ये बहस मेरे बाद,
कहेंगे लोग कि बेकल कबीर जैसा था |
कभी कहते हैं –
मन तुलसी का दास हो अवधपुरी हो धाम ,
साँस उसके सीता बसे , रोम – रोम में राम |
फिर कहते हैं –
मैं ख़ुसरो का वंश हूँ , हूँ अवधी का संत ,
हिंदी मिरी बहार है , उर्दू मिरी बसन्त |
काव्य की शायद कोई ऐसी विधा नहीं , जिसमें चाचा बेकल ने कलम न चलाई हो , और वह भी पूरे मनोयोग से | यद्यपि बलरामपुर ने कई रचनाकार दिए हैं , किन्तु आपका कोई सानी नहीं …. अली सरदार जाफ़री भी नहीं ! उनकी विविध विधाओं की रचनाएं सब पर भारी हैं | सन 1923 में बलरामपुर के रमवापुर [ उतरौला ] में एक ज़मीदार परिवार मुहम्मद शफी खां के रूप में जन्मे चाचा बेकल को बचपन से ही फ़क़ीराना तबीयत मिली | जब भी मिलते सादगी का सहज इज़हार करते | मेरे जैसे छोटे रचनाकारों को प्रोत्साहित करते | मेरे बलरामपुर वास के दौरान अक्सर पूछते – ‘ यहर का – का लिखेव है ? ‘ बलरामपुर से बाहर रहने पर भी मेरा उनसे पत्राचार रहा | उन्होंने मेरे अनुरोध पर उन पत्र – पत्रिकाओं में रचनाएं भेजीं, जिनसे मैं संबद्ध था | मिसाल के तौर पर, एक बार जब मैं एक साहित्यिक पत्रिका का संपादक था, तो उसके ” हिंदी ग़ज़ल अंक ” में दो ग़ज़लें भेजीं, जो सादर प्रकाशित हुईं | इनमें से एक – दो शेअर यहाँ प्रस्तुत हैं –
मैं जीतूं तो हार मेरी
वो हारे तो उसकी जीत
पुरखों का इतिहास न पूछ
तू क्या जाने रीत – कुरीत |
—-
सुना है मोमिनो ग़लिब न मीर जैसा था
हमारे गाँव का शायर नज़ीर जैसा था |
सचमुच चाचा का गाँव नज़ीर जैसा था, जहाँ न तो भेदभाव था, न ही आडंबर ! चाचा खुद भी इसकी मिसाल थे | चाचा जमींदार थे, फिर भी उन्होंने संपन्नता का कभी कोई प्रदर्शन नहीं , बल्कि इससे बचने के लिए आपने अपनी बहुत – सी चल – अचल संपत्तियों को जरुरतमंदों के बीच बाँट दिया था | उन्होंने यह काम युवावस्था के पूर्व ही कर लिया था , ताकि काव्य – रचना सृजन में कोई बाधा न आए | वे ज़मींदारी को शोषण का ही एक रूप मानते थे | .अरबी,फारसी, उर्दू और हिन्दी के गहन अध्येता चाचा बेकल ने अपनी कविता की शुरूआत अवधी से की और उनकी उम्र के अंतिम पड़ाव तक जारी रही | इसी तरह 1952 से अंतिम समय के कुछ पूर्व तक मंचों पर उनकी उपस्थिति बनी रही | उनका जन्म एक जून 1928 को उतरौला के गोर रमवापुर गाँव में हुआ था | घर के लोग उन्हें भूलन कहकर पुकारते थे |
एक ज़माने में अवधी के बड़े कवि रमई काका [ चंद्र भूषण त्रिवेदी ] के साथ मंचों पर उनकी उपस्थिति अवधी में मधुर रसधार घोल देती थी | [ पंडित चन्द्रभूषण त्रिवेदी रमई काका अवधी के महान कवियन मा से रहे | काका कै कलम बैसवाड़ी अवधी मा बड़ी धार से चलत रही | काका कै जन्म सन 1915 ई0 मा उत्तरप्रदेश के उन्नाव ज़िला के रावतपुर गाँव मा भवा रहै .| आप आकाशवाणी लखनऊ-इलाहाबाद मा सन् 1940 ई0 से 1975 ई० तक काम किहिन रहए काका सिरिफ कवितन तक नहीं सीमित रहे | ]
चाचा बेकल पहले अवधी सम्राट बंशीधर शुक्ल के साथ भी मंचों पर दिखते …… एक समा – सा बंध जाता ! शुक्ल जी के साथ उन्हें सुनने का लुत्फ़ कुछ अलहिदा ज्ररूर होता | शुक्ल जी का खड़ी बोली के साथ अवधी के अल्फ़ाज़ का सितारों की भांति टांकना बहुत मशहूर है . जैसे –
‘ है आज़ादी ही लक्ष्य तेरा
उसमें अब देर लगा न जरा
जब सारी दुनियां जाग उठी
तू सिर खुजलावत रोवत है . ‘
गोपाल सिंह नेपाली और मोती बी.ए . कर साथ भी चाचा बेकल अक्सर दिखते थे |
5 अगस्त 2011 को ‘ तुलसी अवध स्री ‘ सम्मान के प्रथम प्रापक चचा बेकल विशुद्ध अवधी को अपनी अवधी कविता का आभूषण बनाया | कुछ उदहारण देखिए –
खारी पानी बिसैली बयरिया
बलम बम्बइया न जायो .
दूनौ जने हियाँ करिबै मजूरी
घरबारी से रहियये न दूरी
हियैं पक्की बनइबै बखरिया
बलम बम्बइया न जायो .
हमरे गाँव मा कौन कमी है
स्वर्ग लागत है हमरी नगरिया,
बलम बम्बइया न जायो .
उनकी एक और अवधी कविता की कुछ पंक्तियाँ पढिए –
नाचै ठुमुक ठुमुक पुरवाई
खेतवन बाँह लियत अँगराई
देवी देउता सोवैं फूल की सेजरिया,
निराला मोरा गाँव सजनी।
बन उपवन हरियाली हुमसै
माटी सुघर बहुरिया।
बँसवाटी लौचा झकझोरै
यौवन मस्त बयरिया।
पेड़न पंछी चाँदी टोरै
नदिया बीच मछरिया
बरसै झूम झूम के सोने कै बदरिया,
निराला मोरा गाँव सजनी।
चचा बेकल की रचनाओं में ग्राम्य जीवन का बेहतरीन चित्रण है | गांव, खेत-खलिहान, किसानी संस्कारों से परिपूर्ण है | ग्राम्य गौरव पर उनके दो शेअर पेशे ख़िदमत हैं –
फटी कमीज नुची आस्तीन कुछ तो है
गरीब शर्मो हया में हसीन कुछ तो है |
लिबास कीमती रख कर भी शहर नंगा है
हमारे गाँव में मोटा महीन कुछ तो है |
जब आज चाचा बेकल को श्रद्धांजलि स्वरूप कुछ लिखने ही बैठ गया हूँ, तो यह भी जान लेते हैं कि चाचा मुहम्मद शफी खां ‘ बेकल उत्साही ‘ कैसे बने ? 1952 में एक कवि सम्मेलन में मौजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री पं . जवाहर लाल नेहरू ने उनकी अवधी कविता की प्रशंसा की और उन्हें उनका कलमी नाम ‘ बेकल उत्साही ‘ प्रदान किया | वैसे भी चचा बेकल , पंडित नेहरू के बेहद करीब रहे हैं | देश के एक और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी उनके करीबी मित्र रहे हैं | दोनों का बीस से अधिक मंचों पर साथ रहा , किन्तु चाचा तो ठहरे सच्चे कांग्रेसी ! उन्होंने 1962 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के बलरामपुर क्षेत्र के प्रत्याशी सुभद्रा जोशी को अटल बिहारी वाजपेयी के मुक़ाबले मदद की | कांग्रेस की ओर से चुनाव – प्रचार के निमित्त फिल्म जगत के जानेमाने अभिनेता बलराज साहनी भेजे गए , जिन्होंने बेकल चाचा के घर ठहर कर चुनाव – प्रचार किया | अटल जी इस चुनाव में सुभद्रा जोशी से 2052 मतों से हार गए थे |
चाचा बेकल 1986 में कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य भी बने | गीत, ग़ज़ल, नज़्म, मुक्तक, रुबाई, दोहा आदि विविध काव्य विधाओं में उनकी बीस से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हैं | उन्हें अनेक सम्मान मिल चुके हैं, जिनमें से 1976 में मिला पद्मश्री उल्लेखनीय है.| पं . नेहरू की यह दिली इच्छा थी कि चचा बेकल विशेषकर अवधी के रचनाधर्मी बनें | ऐसा हुआ भी | चाचा बेकल उत्साही अवधी के लिए सदा प्रयासरत रहे | उन्होंने इससे दक्षिण भारत तक को उस समय परिचित कराया , जब वहां हिंदी विरोधी लहर चल रही थी | उनकी मांग थी कि ”सरकार अवधी के विकास के लिए गंभीरता से काम करे. ताकि अपने घर की जुबान के प्रति हमारा गौरव-बोध मजबूत हो | लखनऊ में अवधी के अध्ययन के लिए विश्व स्तर का संस्थान बने जिसमें एक साहित्यिक संग्रहालय और पुस्तकालय भी हो | साथ ही भोजपुरी की तरह अवधी की भी एक फिल्म इंडस्ट्री स्थापित हो जिसका कि केंद्र लखनऊ में हो |” ‘ तुलसी अवध स्री ‘ पुरस्कार प्राप्त करते समय उन्होंने कहा था , “अवधी भासा के बिकास के लिए सरकारी परयास कै बहुत जरूरत है। जैसे सरकार की तरफ से हिन्दी अउर उरदू के बिकास के ताईं तमाम संस्थै बनायी गयी हैं, वही चाल पै अवधिउ का पहिचान मिलै कै जरूरत है। दुखद ई है कि हम खुद अपनी भासा का बोलै से हिचकिचात हन। हमैं लोगन का यहिके लिए जगावै क चाही। राजनीति अवधी का चौपट किहिस है। हमैं सचेत रहै क चाही। नयी पीढ़ी अवधी क आगे लैके आए, फिलहाल हम इहै सोच के खुस अहन।” चाचा को सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी, जब उनकी आकांक्षाओं को पूरा किया जाएगा | चाचा बेकल को भावभीनी श्रद्धांजलि …
– Dr RP Srivastava, Editor – in – Chief , ”Bharatiya Sanvad”