उस समय के उदीयमान कवि / कहानीकार वीरेंद्र सिंह गूंबर मेरे यहां पधारे। दो पुस्तकें मुझे भेंट स्वरूप दीं, इस आग्रह के साथ कि इनकी समीक्षा लिख दें। मुझे उन्होंने बताया कि इनसे पहले उनकी दो पुस्तकें छप चुकी हैं।
1999 में उनका काव्य संग्रह ‘निमंत्रण’ और 2002 में कहानी संग्रह ‘करील का पेड़ ‘ प्रकाशित हो चुका है। मुझे किंचित आश्चर्य हुआ कि एक सिख युवक का हिंदी प्रेम इतना हो कि उनकी चार साहित्यिक पुस्तकें आ जाएं। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि समीक्षा करवा कर छपवा देंगे। हुआ भी यही। लेकिन मैं इन पर सरसरी निगाह ही डाल सका। इसकी मात्र वजह पत्रकारी अफरातफरी थी।फिर भी काली पगड़ी पहने बहुत ही नरम स्वभाव के धनी वीरेंद्र जी की साफ़गोई से यह एहसास ज़रूर जगा कि उनका लेखन मौलिक और यथार्थपरक होगा। यह बात मार्च 2006 की है। तिथि याद नहीं रही। जब उनकी समीक्षा छपी तो उनकी कई रचनाएं प्रकाशनार्थ आईं, जिनमें से कई प्रकाशित भी हुईं। फिर 2010 में उनकी रचनाएं आनी बंद हो गईं। अभी तक उनकी ख़बर – खैरियत का का पता नहीं चल सका। न ही उनकी कोई नई रचना का अवलोकन कर सका।
आज मेरी लाइब्रेरी में उनकी वे दो पुस्तकें मिलीं, जिन्हें वे मुझे भेंट कर गए थे। कहानी संग्रह ‘नक्कारखाने की तूती ‘ पर फिर कभी लिखूंगा। काव्य संग्रह ‘अनाम मरता नहीं ‘ पर कुछ लिखने का प्रयास करता हूं। इस संग्रह में 51 कविताएं हैं, जो सभी दमदार लगती हैं। फिर भी कवि ने अपनी सादगी कुछ यूं बयान कर दी है – ” हिंदी भाषा के व्याकरण तथा कविता की बारीकियों के अल्प ज्ञान को स्वीकार करने में मुझे कोई झिझक नहीं है।” भाषा में बनावटीपन न होना कवि की पहली सफलता है। और दूसरी सफलता है भाषा का बोधगम्य होना। यह अलग बात है कि उर्दू भाषा की पर्याप्त जानकारी के अभाव में अनावश्यक जगहों पर नुक्ते लगाने या न लगाने का। कभी प्रूफ में सत्यानाश होता है। बहरहाल पुस्तक में यह दोष दीखता है।
‘अनाम मरता नहीं ‘ अच्छी कविता है। यही पुस्तक का भी नाम रखा गया है, जो उचित ही है। यह यथार्थ बोध है। कवि इसे सत्ता की नाकामियों का वीभत्स रूप कहता है। है भी यही। पुलिस सत्ता से ही नियमित नियंत्रित होती है। जैसी सत्ता होगी, वैसी पुलिस। भारतीय लोकतंत्र पर यह कलंक ही है कि बेकसूर की हत्या पुलिसिया सिस्टम का नतीजा बन जाती है, तभी ” ख़ाली फुटपाथ पर / एक दूसरे अनाम शख्स ने कब्ज़ा जमा लिया है ” नई कहानी के विस्तार हेतु ! ख्वाहिशें ( पृ. 34) और कसम ( 35) आम ज़िंदगी के मर्म को उकेरने में सक्षम हैं। ‘चुगलखोर हैं ….’ ने अच्छी चुगलखोरी की है। ज्वलंत मुद्दों और समस्याओ से ध्यान हटा दिया है। सिर्फ औपचारिकता ही जीवन का शेष है। कवि का ऐसा ही दर्द ‘सभ्यता ‘ में फूटता है, जहां वह असभ्य होने की खोज करता है। कहता है … फिर से असभ्य होना। .. अच्छा तंज है जीवन गति पर।
पुस्तक जनता प्रकाशन , चौखंडी, नई दिल्ली – 18 से छपी है। मूल्य 75 रुपए। कागज़ ,छपाई और फॉन्ट सभी उम्दा हैं।
– Dr RP Srivastava, Editor-in-Chief, Bharatiya Sanvad