जब कुष्ठचर्मी
बना श्वेतचर्मी
बैठ गया
विश्व – सिंहासन पर
दुनिया के मशहूर ट्रेड टावर पर
ऊंटों से भरी वादी लिए
हांकता है दुनिया को
लाल ऊंटों के बल पर
झूठे अहं का शिकार होकर
यह दुष्टधर्मी !
…..
जब केशविहीन
बना केशअहीन
बैठ गया सत्ता -में सिंहासन पर
दृष्टिवानों के भू – भाग पर
दागे बैलों के बल पर
झूठे दंभ का शिकार होकर
श्वेतचर्मी को साथ लेकर
मानवता – प्रहारी है
यह दुष्टधर्मी !
…..
दोनों कर रहे अपने कारोबार
हो रहा मानवता का संहार
इतने में वह आया
श्वेतचर्मी से बोला –
” मैं गरीब आदमी हूं
साधनहीन हूं
सफ़र जारी नहीं रख सकता
अपनी ही भूमि से
बेदखल हूं
मेरी इच्छा है
तू उतर टावर से
दिला झट से
हमारी मातृभूमि
मैं गरीब हूं
साधनहीन हूं।”
सुनकर यह
बोला श्वेतचर्मी –
” मैं तो ‘ ऊंट ‘ नहीं दे सकता
न ही दिलवा सकता
यह दौलत तो मिली है
विरासत में
बाप – दादा से
बिना किसी अधिक जतन के
मैं हक़ अदा नहीं कर सकता।”
जवाब मिला –
” तुम झूठे हो अगर
प्रभु तुम्हें वैसा दे कर
जैसे तुम पहले थे।”
फिर क्या था ?
टावर धराशाई हो गया
वह फिर कुष्ठचर्मी बन गया
…..
हुआ केशअहीन उद्वेलित
करने लगा अत्याचार हो कुंठित
इतने में आया वह
कहने लगा –
” मैं गरीब हूं
साधनहीन हूं
सफ़र जारी नहीं रख सकता
अपनी ही भूमि से
बेदखल हूं
मेरी इच्छा है
तू उतर सत्ता से
दे झट से
हमारी मातृभूमि
मैं गरीब हूं
साधनहीन हूं “
सुनकर यह
बोला केशअहीन –
मैं तो ऐसा नहीं करूंगा
कभी नहीं करूंगा
कभी नहीं दूंगा अपनी सत्ता
जवाब मिला –
” तुम झूठे हो अगर
प्रभु तुम्हें वैसा दे कर
जैसे तुम पहले थे ।”
फिर क्या था ?
केशहीन होने लगा वह
पतनशील होने लगा वह …
दृष्टिवान देख रहा है
अपना अस्तित्व
महसूस कर रहा है
अपना सम्मान
भोग रहा है
अपनी सांसारिक सत्ता
वह प्रसन्न है
क्योंकि
प्रभु उससे प्रसन्न है।
– राम पाल श्रीवास्तव ‘ अनथक ‘
[ रचना काल – 2002 ]
( एक लोककथा के आंशिक आधार पर, जो Span में छपी थी संभवतः 2001 ई.में। उसी समय इस कविता का जन्म हुआ। पात्र और एक – दो संवाद लोककथा के काव्यमय अंश हैं। यह कविता कुछ पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थी।)